नौ बार के विधायक, दो बार के लोकसभा सदस्य, लोकसभा और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में रहे मल्लिकार्जुन खड़गे का देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का अध्यक्ष बनना आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ तो है ही, 137 साल पुरानी कांग्रेस के लिए भी 21वीं सदी की सबसे अहम घटना है। पार्टी अध्यक्ष पद के लिए हुए सीधे मुकाबले में उन्होंने भारी जीत हासिल तो कर ली है, लेकिन उनके सामने बड़ा सवाल यही है कि क्या वह कमजोर हो रही पार्टी की हड्डियों को नयी मजबूती दे सकेंगे। 24 साल बाद गांधी-नेहरू परिवार के बाहर का अध्यक्ष चुने जाने के बाद क्या10 जनपथ से चल रही कांग्रेस का फोकस अब 10 राजाजी मार्ग होगा, जो खड़गे का निवास है या खड़गे शीर्ष नेतृत्व की प्रतिछाया मात्र होंगे? या फिर वह उन फैसलों की ढाल भर होंगे, जिन्हें लेने में आलाकमान पीछे हटता रहा है? या कि वह उनका चेहरा बनेंगे, जिनसे सीधे मिलने में आलाकमान झिझकता रहा है? ये ऐसे सवाल हैं, जिनसे 80 साल के तपे-तपाये कांग्रेसी खड़गे को पहले ही दिन से रू-ब-रू होना पड़ रहा है। लेकिन इन तमाम सवालों के बीच कांग्रेस ने मील का एक पत्थर तो कायम कर ही दिया कि उसने पार्टी की आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि खड़गे का चुनाव कर कांग्रेस एक झटके में उस आरोप के घेरे से बाहर निकल गयी है, जिसे ‘परिवारवाद’ कहा जाता है। लेकिन इसका कांग्रेस पर कोई असर होगा या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। कर्नाटक के पंचायत स्तर से ऊपर उठ कर पार्टी का अध्यक्ष बननेवाले खड़गे के पास राजनीति का लंबा अनुभव तो है, लेकिन आक्रामक राजनीति के इस दौर में वह कांग्रेस के रथ को कितनी दूर तक खींच पायेंगे, यह भी देखनेवाली बात होगी। फिलहाल खड़गे के अध्यक्ष बनने पर हर राज्य में कांग्रेसी खुशियां मना रहे हैं, मिठाइयां बांट रहे हैं। बैनर-पोस्टर में उनकी तसवीर के साथ अपनी तसवीर लगा कर चारों ओर प्रदर्शन करने की होड़ लगी है। झारखंड में भी होर्डिंग्स और बैनर चहुंओर दिख रहे हैं। होड़ इस तरह की कि कोई कार्यकर्ता इसमें पीछे रहना नहीं चाहता। खड़गे की जीत के सियासी मायने और कांग्रेस को होनेवाले लाभ के साथ पार्टी में संभावित बदलाव पर नजर डाल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को अतत: नया गैर-गांधी अध्यक्ष मिल गया है। ऐसा 24 सालों के बाद हुआ है। 80 वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के नये अध्यक्ष हैं। अर्से बाद कांग्रेस मुख्यालय में ढोल-नगाड़े सुनाई दिये और यह खुशी किसी आम चुनाव की नहीं, बल्कि आंतरिक चुनाव को लेकर थी। चुनाव कवर करने वालों के लिए यह बहुत ही नया अनुभव था, क्योंकि जीतने वाला तो खुश था ही, हारने वाला भी मुस्कुरा रहा था।
खड़गे के पास राजनीति का विराट अनुभव है और वह कर्नाटक के पंचायत स्तर के चुनावों से चल कर यहां तक पहुंचे हैं। यह कांग्रेस के लिए बड़ी बात तो है ही, पार्टी के एक आम कार्यकर्ता के लिए भी यह उत्साह बढ़ानेवाली बात हो सकती है। खड़गे की जीत और उनकी नयी भूमिका को इन दो बातों से समझा जा सकता है- पहला, ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के पदयात्री राहुल गांधी ने कहा कि ‘जो पार्टी अध्यक्ष कहेंगे, वही करूंगा’ और दूसरे, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी खुद खड़गे से मिलने उनके घर गयीं। अब तक की परंपरा में खड़गे ने आलाकमान से मिलने का वक्त मांगा था, जो कि नहीं मिला और वे दोनों खड़गे से मिलने पहुंचीं। आलाकमान फिलहाल कमान खड़गे को सौंपता हुआ केवल दिख रहा है। वह देगा भी, इसके लिए कुछ समय पार्टी को देना होगा।
खड़गे का चुनाव कांग्रेस को अन्य दलों से आगे खड़ा करता है, क्योंकि एक तरफ उस पर लगे परिवारवाद का आरोप अब बीती बात हो चुकी है और दूसरे कि भाजपा के अलावा अन्य क्षेत्रीय दलों में से किसी ने इस तरह की आंतरिक चुनाव व्यवस्था अब तक नहीं बनायी है। यह पीएम मोदी की भी जीत है, जिन्होंने कई अवसरों पर कांग्रेस को परिवार के बाहर आकर चुनाव कराने का सुझाव दिया था। इसलिए उन्होंने शानदार राजनीतिक परंपरा कायम करते हुए खड़गे को बधाई संदेश भेजा।
लेकिन खड़गे के चुनाव जीतने के बाद से कई सवाल फिजाओं में तैर रहे हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना कई मामलों में ऐतिहासिक है। चाहे पांच दशक बाद किसी दलित के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की बात हो या दक्षिण भारत से आने वाले किसी नेता के छठी बार कांग्रेस के सिरमौर बनने की। ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि उनकी जीत का पार्टी और गांधी-नेहरू परिवार के लिए क्या मायने हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया से साफ हो जाता है कि पार्टी में एक ऐसा समूह अब भी सक्रिय है, जो गांधी-नेहरू परिवार के खिलाफ है। यह सही है कि खड़गे और शशि थरूर को मिले वोटों के आकंड़े को देख कर पता चलता है कि खड़गे की जीत ब्लॉक बस्टर से कम नहीं है, लेकिन थरूर का एक हजार वोटों का आंकड़ा पार करने में सफल रहना भी पार्टी में कई नेताओं को आश्चर्य में डाल गया होगा। शशि थरूर पार्टी के अंदर संगठनात्मक स्तर पर बड़े बदलाव की मांग करने वाले जी-23 के सदस्य रहे हैं और उनके विपरीत खड़गे को गांधी परिवार का विश्वासपात्र माना जाता है। पूरे चुनाव के बीच मल्लिकार्जुन खड़गे को गांधी परिवार का ‘अनौपचारिक आधिकारिक उम्मीदवार’ माना गया। ऐसे में शशि थरूर को मिले वोट बताते हैं कि पार्टी के अंदर के योग्य मतदाताओं में 11 फीसदी से अधिक लोग गांधी परिवार की कार्यशैली के खिलाफ हैं।
इसके साथ ही कांग्रेस पर परिवारवाद का सबसे ज्यादा आरोप लगा है और इसे साबित करने के लिए विरोधी अब तक पार्टी अध्यक्ष पद पर परिवार की पकड़ के आंकड़ों को पेश करते हैं। 1992 और 1998 के बीच की अवधि को छोड़ कर (जब पीवी नरसिंह राव और सीताराम केसरी शीर्ष पद पर थे) पार्टी के अध्यक्ष पद पर 1978 से गांधी परिवार के ही किसी एक सदस्य का कब्जा रहा। दरअसल कांग्रेस के लगभग 137 साल पुराने इतिहास में अध्यक्ष पद के लिए आज तक सिर्फ छह बार चुनाव हुए हैं, 1939, 1950, 1977, 1987, 2000 और 2022 में। लेकिन अब 24 साल बाद परिवार के बाहर मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने से पार्टी के पास परिवारवाद के इस आरोप का मुकाबला करने की काट आ गयी है।
वैसे यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि चूंकि मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस का वर्तमान और अतीत दोनों देखा है और वह 1969 से कांग्रेस के साथ हैं। इसलिए वह अपने अनुभव का लाभ पार्टी को देंगे और पार्टी को परिवार की छाया से बाहर निकालने में सक्षम होंगे। इसके साथ खड़गे अध्यक्ष बन कर कांग्रेस को भाजपा के दलित दांव की काट निकालने में मदद कर सकते हैं। इसलिए यह देखना खास होगा कि वह अपनी रणनीतियों से कैसे कांग्रेस के लिए 2024 चुनाव के फॉर्मूले में फिट होंगे।
2014 में जब कांग्रेस लोकसभा में केवल 44 सदस्यों तक सिमट गयी थी, तब गुलबर्गा से दूसरी बार जीते खड़गे को लोकसभा में कांग्रेस का नेता बनाया गया था। तब महाभारत का सहारा लेते हुए खड़गे ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, हम लोकसभा में भले ही संख्या में केवल 44 हो सकते हैं, लेकिन पांडव कभी भी सौ कौरवों से नहीं डरे। कांग्रेस के सेना नायक के रूप में वह 2024 के महाभारत में पार्टी के रथ को कहां तक खींच पाते हैं, यह तो समय बतायेगा, लेकिन उनके सामने पहली चुनौती राहुल-प्रियंका की भूमिका तय करने की है, जिन्हें आज भी आम कांग्रेसी अपना नेता मानता है। राजनीतिक रूप से परिपक्व हो रहे इन भाई-बहनों से खड़गे कैसे काम लेते हैं, इससे ही उनका राजनीतिक कौशल सामने आयेगा।