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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»बासी कढ़ी में उबाल की तरह ही है नीतीश कुमार की ताजा पहल
    स्पेशल रिपोर्ट

    बासी कढ़ी में उबाल की तरह ही है नीतीश कुमार की ताजा पहल

    adminBy adminApril 25, 2023No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    -कोलकाता-लखनऊ में कुछ खास हासिल नहीं कर पाये सुशासन बाबू
    -शरद पवार ने तो एकता की पूरी कवायद की हवा निकाल कर रख दी
    -कुनबा न भानुमति, फिर भी 2024 के लिए उम्मीद बांधे बैठे हैं विपक्षी दल

    दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विपक्ष की हालत यह है कि उसके पास नेता, नीति, दिशा—कुछ भी नहीं है। पश्चिम की परिभाषा वाले लोकतंत्र में एक सशक्त विपक्ष का होना आवश्यक होता है, लेकिन निश्चित रूप से वह विपक्ष रचनात्मक ही हो सकता है, विध्वंसात्मक नहीं। अगर समान विचारधारा ही विध्वंसात्मक हो, तो ऐसे विपक्ष की आवश्यकता दुनिया के किसी लोकतंत्र को नहीं होती। इसलिए अब कहा जा रहा है कि भारत में विपक्षी दलों की एकता की पार्टी अभी शुरू नहीं हुई है, लेकिन खत्म हो चुकी है। अरविंद केजरीवाल, जगन रेड्डी, केसीआर, ममता बनर्जी आदि सभी अपने-अपने स्तर पर विपक्ष की एकता का प्रयास कर चुके हैं और सारे विफल भी हो चुके हैं। खास बात यह है कि ये सभी दूसरों के प्रयासों को विफल करने में जरूर सफल रहे हैं। अब नीतीश कुमार एक बार फिर इस कुनबे को जोड़ने के लिए रेस हुए हैं, यानी बासी कढ़ी में नये सिरे से उबाल आया है। नीतीश कुमार ने अपनी ताजा मुहिम में पहले कोलकाता में ममता बनर्जी से बात की और फिर लखनऊ में अखिलेश यादव से मिले। दोनों नेताओं ने कोई ठोस आश्वासन तो नहीं दिया, लेकिन नीतीश कह रहे हैं कि उनकी मुहिम सफल होती दिख रही है। इससे पहले नीतीश पिछले दिनों जब दिल्ली प्रवास पर थे, तब उन्होंने अपनी मुहिम को तेज करना शुरू किया था। हालांकि नीतीश जानते हैं कि दिल्ली में उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए भी कोई तभी तक राजी हो सकेगा, जब तक वह बिहार के मुख्यमंत्री हैं और बिहार के मुख्यमंत्री वह तभी तक हैं, जब तक तेजस्वी यादव का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त है। इसलिए वह थोड़ा आगे निकलने की जुगत में हैं। राहुल गांधी के परिदृश्य से लगभग बाहर होने के बाद अब नीतीश को लगने लगा है कि उनके सामने कोई बाधा नहीं है। इसलिए वह उत्साहित नजर आ रहे हैं। लेकिन ममता-अखिलेश के अलावा दूसरे जितने भी क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, कोई भी नीतीश की मुहिम को तवज्जो देने के मूड में नहीं दिखाई दे रहा है। शरद पवार ने तो यह कह कर इस मुहिम की हवा ही निकाल दी है कि अब तक मिल कर चुनाव लड़ने पर बात कहां हुई है, यानी सूत न कपास, जुलाहे में लट्ठम-लट्ठा। नीतीश कुमार की इस ताजा मुहिम के संभावित परिणाम का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    बहुत देर नहीं हुई, जब देश के पूर्वी तट, यानी कोलकाता में विपक्ष की एकता की मुहिम का ताना-बाना बुना जा रहा था। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्ष के मिशन 2024 के लिए साझा रणनीति पर मुहर लगा रहे थे। देश के पश्चिमी तट, यानी मुंबई में शरद पवार पूरी मुहिम की हवा यह कह कर निकाल रहे थे कि अभी तो मिल कर चुनाव लड़ने की इच्छा ही जतायी गयी है, मंजिल अभी बहुत दूर है। लेकिन पवार की इस टिप्पणी से बेखबर नीतीश कोलकाता से लखनऊ के लिए उड़े और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव से मिलने पहुंच गये। इन दोनों मुलाकातों में नीतीश कुमार को कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला, लेकिन इतना जरूर कहा गया कि एकता के बिना कुछ भी संभव नहीं है।
    दरअसल, विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार लगातार प्रयास में हैं। एक ही दिन दो राज्यों के दो शहरों में उन्होंने दो नेताओं से मुलाकात की। बकौल नीतीश, ममता इगो छोड़ कर विपक्षी एकता के लिए तैयार भी हो गयीं। उन्हें जेपी आंदोलन की गंध भी मिल रही है, जिसने वर्षों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस का सफाया कर दिया था। ममता का इस बात के लिए बेहिचक तैयार हो जाना कि भाजपा को हराने के लिए हम सबके साथ हैं, नीतीश की सबसे बड़ी कामयाबी कही जा रही है।

    क्या विपक्षी एकजुटता हकीकत बनेगी या सिर्फ हवाबाजी
    नीतीश कुमार के मिशन, विजन और थीम पर ममता की सहमति जरूर मिल गयी, पर संदेह और सवाल की गुंजाइश तो अब भी है। ममता ने विपक्षी एकता की पहली बैठक पटना में आयोजित करने की सलाह भी दी। नीतीश सोमवार को ही लखनऊ में अखिलेश यादव से भी मिले। विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार का अभी तक का प्रयास सही दिशा में जाता दिख रहा है। सिद्धांतत: सभी विपक्षी दल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए तैयार हैं, लेकिन सबको साथ ला पाना ही कड़ी चुनौती है। इसलिए कि इनमें ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां हैं और सबका अपने-अपने राज्यों में वर्चस्व है। इतना ही नहीं, इन नेताओं ने पहले भी विपक्षी एकता की मुहिम शुरू की थी, जो मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गयी। नीतीश की ताजा मुहिम का हश्र भी कुछ ऐसा ही हो सकता है, क्योंकि इस कुनबे का सरदार कौन होगा, यह अब तक तय नहीं है।
    अब बात नीतीश के ताजा प्रयास की। ममता बनर्जी हों या अखिलेश यादव, सबकी अपने-अपने राज्यों में अलग पहचान है। कोई भी अपनी पहचान गंवाने के लिए शायद ही तैयार हो। इसलिए भाजपा के खिलाफ एक साथ आने की सैद्धांतिक सहमति बनाना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि टिकट बंटवारे में किसे कितनी सीटें दी जायें या राज्यों में कौन अपनी पहचान मिटाने या वर्चस्व खत्म करने को तैयार होगा। ममता बनर्जी जिस माकपा और कांग्रेस की मुखालफत कर बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं, क्या उन दलों के साथ वह उनके उम्मीदवारों को जिताने के लिए चुनाव प्रचार करेंगी। क्या वाम दल मान जायेंगे कि ममता की मर्जी से उनके लोगों को टिकट मिले। कहना आसान है, लेकिन करना कठिन। यानी सिद्धांत और व्यवहार में जमीन-आसामान का अंतर होता है। अभी ममता विपक्षी एकता के लिए इगो छोड़ने को तैयार हो गयी हैं। सैद्धांतिक रूप से विपक्षी एकता की उनकी सहमति भी मिल चुकी, लेकिन आगे की डगर बहुत मुश्किल है। सभी दल अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, यानी सीटों के समझौते पर मामला फंसेगा। यही बात शरद पवार ने कह भी दी है और इसलिए नीतीश के प्रयासों को बासी कढ़ी में उबाल की संज्ञा दी जा रही है।

    सभी दलों के साथ आने में नीतीश कुमार को भी संदेह
    नीतीश कुमार को भी सभी विपक्षी दलों को साथ ला पाना आसान नहीं लगता। इसलिए वह बार-बार कह रहे हैं कि अधिक से अधिक लोगों को साथ लाने की उनकी कोशिश है। यह कोशिश तो उसी वक्त विफल हो गयी, जब नीतीश से अरविंद केजरीवाल की मुलाकात के हफ्ते भर के अंदर आम आदमी पार्टी के एक महासचिव ने साफ कर दिया कि उनकी पार्टी किसी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। अकेले चुनाव मैदान में उतरेगी। पीएम या सीएम का चेहरा पहले से घोषित करने की उनकी पार्टी में परंपरा नहीं रही है। इसलिए अभी पीएम फेस की चर्चा आम आदमी पार्टी नहीं करेगी। इससे साफ है कि जो दल जहां मजबूत है, वह अपने वर्चस्व से कोई समझौता शायद ही करे।

    दागदार विपक्षी चेहरों पर कितना भरोसा करेगी जनता
    विपक्षी एकता की इस मुहिम में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का नाम बेवजह घसीटा जा रहा है। कई लोग तो नीतीश कुमार को उसी रूप में देखने भी लगे हैं। यह देख-सुन कर थोड़ा आश्चर्य भी होता है। सत्ता के लिए नीतीश कुमार जिस तरह रोटी की तरह दल या गठबंधन उलटते-पलटते रहे हैं, वैसे में उनमें जयप्रकाश नारायण की छवि देखना जेपी का अपमान ही कहा जायेगा। वैसे नीतीश कुमार के लिए जेपी और लोहिया का अपमान कोई नयी बात नहीं है। दोनों ने जाति का विरोध किया। जेपी ने जो जाति तोड़ो, जनेऊ तोड़ो का नारा दिया और नीतीश सरकार जाति जनगणना करा रही है। लोगों से उनकी जाति पूछी जा रही है। जेपी के आंदोलन का मुद्दा भ्रष्टाचार भी था। विपक्षी एकता के लिए जितने नेता बेचैन हैं, उनमें नीतीश को छोड़ तकरीबन सभी दागदार हैं। व्यक्तिगत तौर पर ममता बनर्जी बची हुई हैं, लेकिन उनके परिजन और पार्टी के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। लालू परिवार, सोनिया गांधी का परिवार, केसीआर जैसे कई नेताओं के परिवार विपक्षी एकता के लिए बेचैन हैं। वे कोर्ट से भी राहत पाने में नाकाम रहे हैं। सब कुछ जनता के सामने है। ऐसे में यह अहम सवाल है कि क्या ऐसे चेहरों पर जनता भरोसा कर पायेगी।

     

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