विशेष
-अब ‘बड़े भाई’ की हर बात मानने को मजबूर हैं ‘छोटे भाई’
-फिलहाल आरजेडी सुप्रीमो की स्क्रिप्ट पर एक्ट कर रहे हैं नीतीश
राजनीति में खिलाड़ी दो प्रकार के होते हैं, एक सधा हुआ और दूसरा कच्चा। राजनीति के इस खेल में कब कौन सध जाये और कौन कच्चा हो जाये, यह राजनेताओं की महत्वाकांक्षा और उनके द्वारा पैदा की गयी स्थिति पर भी निर्भर करता है। राजनीति में ऐसे बहुत से उदहारण देखने को मिले हैं, जहां एक लीडर एक पल में कच्चा खिलाड़ी, यानी चीनी हो जाता है और उसी का चेला पका हुआ खिलाड़ी गुड़ हो जाता है। राजनेताओं में अक्सर यह देखने को भी मिला है। असुरक्षा की भावना, सत्ता का नशा और उम्मीद से ज्यादा महत्वाकांक्षा तीन ऐसी मनोस्थितियां होती हैं, जहां एक सधा हुआ सत्ता शीर्ष पर बैठा हुआ राजनेता सत्ता के साथ-साथ अपनी राजनितिक हैसियत भी गंवा बैठता है। तब उसके जीवन में एक वक्त ऐसा आता है, जब उसे न तो जनता पूछती है, न पार्टी पूछती है और न ही उसी के लोग। जब ऐसा समीकरण बनने लगता है, तब वह व्यक्ति गलतियां पर गलतियां करने लग जाता है। बिहार की राजनीति में भी ऐसा कुछ देखने को मिल रहा है। लालू ने अपने राजनीतिक जीवन में बहुत सी उंचाइयों के साथ पतन भी देखा। नीतीश को लालू के पतन का फायदा भी मिला। लेकिन लालू राजनीति के ऐसे माहिर खिलाड़ी हंै, उनके लिए जब जगे, तब ही सवेरा है। वह अपने जीवन में हमेशा प्रत्यनशील रहे। पहले वह खुद मुख्यमंत्री थे, फिर पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया और अब अपने पुत्र तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने में लगे हुए हैं। फिलहाल बिहार की कमान नीतीश कुमार के हाथों में है। वह आठ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, जिसमें छह बार एनडीए की टीम में थे, तो दो बार महागठबंधन की टीम में। बिहार के राजनितिक चौसर को नीतीश ने कुछ ऐसा साध रखा है कि पासा चाहे जो भी पड़े, दांव उन्हीं का लगता है। लेकिन इस बार नीतीश की महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही है। पीएम बनने का सपना पाले बैठे हैं नीतीश। वह केंद्र में सत्ता की सवारी करना चाहते हैं, लेकिन नीतीश के पास कोई सारथी नहीं है, क्योंकि इस रेस में सब राजा बनने की दौड़ में शामिल हो रहे हैं। फिलहाल तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनने का सुनहरा अवसर दिख रहा है। लालू के रूप में उनके पास सारथी भी हैं और मार्गदर्शक भी।
नीतीश कुमार अगर विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए में बने रहते हैं, तो उन्हें बिहार की गद्दी तेजस्वी यादव के लिए खाली करनी पड़ेगी। इस बार लालू ने ऐसी बिसात बिछायी है कि पासा तो नीतीश ने खुद फेंका, लेकिन दांव लगा लालू का। जानकारों का कहना है कि लालू प्रसाद यादव के बिछाये जाल में नीतीश कुमार फंस चुके हैं। अगर लालू की रणनीति कामयाब हुई, तो विपक्षी दलों की मुंबई बैठक में नीतीश कुमार का संयोजक बनना पक्का माना जा रहा है। लेकिन उनके ऊपर सोनिया गांधी चेयर पर्सन रहेंगी। यह एक ऐसा खेल है, जिसे अगर समय रहते नीतीश नहीं समझ पायेंगे, तो उनका हाल ‘खुदा मिला न विसाल-ए-सनम’ जैसा हो जायेगा। क्या चल रहा है राजनीति के दो धुरंधरों के बीच का खेल, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव में शह-मात का खेल जारी है। परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बनी हैं, जिससे नीतीश कुमार अब लालू की हर बात मानने को तैयार हैं। लेकिन नीतीश को बिहार छोड़ने का भी मन नहीं है। एक तरफ असुरक्षा है, तो दूसरी तरफ महत्वाकांक्षा। भावनाओं के इस माया जाल में नीतीश इस बार बुरे फंसे हैं। दूसरी ओर लालू भी नीतीश की घेरेबंदी से बाज नहीं आ रहे। वह हर हाल में उन्हें बिहार छुड़ाना चाहते हैं। विपक्षी दलों के गठबंधन आइएनडीआइए की अगली प्रस्तावित बैठक में शायद लालू अपने मकसद में कामयाब हो जायें।
नीतीश बन सकते हैं संयोजक और यही चाहते हैं लालू
मुंबई में इसी महीने के आखिर में विपक्षी गठबंधन की तीसरी बैठक होनी है। अगर सब कुछ ठीक रहा, तो लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बनने वाली 11 सदस्यों वाली कोआॅर्डिनेशन कमेटी में नीतीश को जगह मिल जायेगी। उन्हें गठबंधन का संयोजक भी मनोनीत कर दिया जायेगा। लालू यादव से राहुल गांधी की मुलाकात के बाद सैद्धांतिक रूप से इस बात पर सहमति बन गयी है कि नीतीश कुमार समन्वय समिति के संयोजक बनेंगे और सोनिया गांधी यूपीए की चेयरपर्सन की तरह आइएनडीआइए की भी चेयरपर्सन रहेंगी। इसका नतीजा यह होगा कि नीतीश संयोजक बन कर चुनाव के लफड़े सलटाते रहेंगे। जो मामला अनसुलझा रह जायेगा, उसे सोनिया गांधी बहैसियत चेयरपर्सन सुलझायेंगी। लालू को इसका फायदा यह मिलेगा कि नीतीश कुमार को फुल टाइम काम मिल जायेगा और उन्हें बाध्य होकर बिहार छोड़ना पड़ेगा।
तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना लालू का मुख्य उद्देश्य
लालू यादव का सपना है कि वह जितनी जल्दी हो, पुत्र तेजस्वी को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देखें। इसलिए उन्होंने सबसे पहले नीतीश को एनडीए से निकाल कर महागठबंधन के साथ जोड़ा। दोनों बेटों को एडजस्ट कराया। साथ ही नीतीश को राष्ट्रीय राजनीति और पीएम पद का सपना दिखाया। इसी शर्त पर नीतीश महागठबंधन की ओर से सीएम भी बने। नीतीश के लिए यह तात्कालिक राहत थी। उन्हें भी इसका अनुमान नहीं था कि सच में उन्हें बिहार की गद्दी छोड़ने का यह लालू द्वारा बिछाया जा रहा जाल है। अब नीतीश उस जाल में फंस चुके हैं। हालांकि नीतीश भी कम बड़े खिलाड़ी नहीं हैं। उन्होंने 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ने की घोषणा कर अपनी कुर्सी सुरक्षित कर ली। पर लालू को इतने से ही संतोष नहीं है। वे जल्दबाजी में हैं। उनकी हड़बड़ी का आलम यह है कि आठ महीने बाद होने जा रहे लोकसभा चुनाव से पहले ही बिहार से उन्हें विदा करना चाहते हैं।
संयोजक के ऊपर चेयरपर्सन का भी होगा पोस्ट
लालू यादव की गांधी परिवार से नजदीकियां लालू के लिए बेहद कारगर साबित होती दिखाई पड़ रही है। जब यूपीए की सरकार थी, तब लालू यादव रेल मंत्री रह चुके हैं। सोनिया गांधी से उनकी निकटता बुरे दिनों में भी बरकरार रही। शायद यही वजह रही कि नीतीश की सोनिया से मुलाकात कराने में लालू नीतीश के मददगार बने थे। उसके बाद दो ऐसे मौके आये, जब गांधी परिवार के प्रति अपनी निकटता और सहानुभूति का लालू ने सार्वजनिक मंच पर इजहार किया। पहला मौका तब आया, जब पटना में 23 जून को विपक्षी दलों की पहली बैठक हुई। लालू ने न सिर्फ राहुल को शादी की सलाह दी, बल्कि उसी वक्त यह सांकेतिक तौर पर सार्वजनिक भी कर दिया कि राहुल की शादी में बाराती सभी विपक्षी दल बनेंगे। लालू ने यह बात तब कही थी, जब राहुल मानहानि मामले में सांसदी गंवा चुके थे और उनके चुनाव लड़ने पर लोग शंका जाहिर करने लगे थे। दूसरा मौका आया राहुल की सजा पर रोक लगने पर। सजा पर सुप्रीम कोर्ट से रोक लगते ही राहुल गांधी लालू के घर पहुंच गये। जानकारों की मानें, तो राहुल का डायरेक्ट लालू के यहां पहुंचना नीतीश के लिए खतरे की घंटी भी हो सकती है। यह कोई मामूली घटनाक्रम नहीं है। वैसे लालू-राहुल के बीच सियासी बातें तो हुईं ही, मटन-भात का भोज भी हुआ। उसी दौरान नीतीश कुमार को समन्वय समिति का संयोजक बनाने की बात हुई। नीतीश की पलटी मार राजनीति पर राहुल ने आशंका जाहिर की, तो लालू ने इसकी भी काट सुझा दी।
नीतीश कुमार को संयोजक तो बनाया जायेगा, लेकिन उनके ऊपर सोनिया गांधी चेयरपर्सन बन कर बैठी रहेंगी, ताकि नीतीश ने फिर पलटी मारी, तो विपक्षी गठबंधन की सेहत पर कोई असर न पड़े।
क्या विकल्प है नीतीश के पास
फिलहाल नीतीश कुमार के सामने अभी दो विकल्प दिखाई पड़ रहे हैं। पहला, वह बिना नफा-नुकसान की परवाह किये लालू की लिखी स्क्रिप्ट पर एक्ट करते रहें। दूसरा, वह अपने पुराने खेल को खेलें, यानी पलटीमार खेल। मसलन कुर्सी सुरक्षित रहने की गरंटी पर एनडीए के साथ चले जायें। हालांकि एनडीए में लौटना अब उनके लिए भारी फजीहत की बात होगी। एनडीए भी सीधे तौर पर उनके लिए अब दरवाजे बंद कर चुका है। हालांकि एनडीए में नीतीश की कमी अभी तक महसूस की जाती है। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने हाल ही में अपनी पटना यात्रा के दौरान यह बात कही भी थी। उन्होंने तो नीतीश को एनडीए में लौट आने का आग्रह भी किया था। राहुल गांधी की सजा पर रोक लगने से कांग्रेस जिस तरह उत्साहित है, उससे अब यह बात साफ हो गयी है कि पीएम के सबसे बड़े दावेदार वही हैं। नीतीश की यह उम्मीद भी जाती रही। हालांकि नीतीश ने पहले ही साफ कर दिया था कि वे पीएम पद की रेस में नहीं हैं। मसलन नीतीश विपक्षी गठबंधन के साथ रहते हैं और राजनीति से संन्यास नहीं लेते हैं, तो उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़ कर राष्ट्रीय राजनीति में फिर उतरना पड़ेगा। जीवन में एक बार विधायकी और एक बार सांसदी के अलावा नीतीश ने अब तक चुनाव नहीं लड़ा है। इसलिए यह स्थिति उनके अनुकूल नहीं होगी। खैर, अगले कुछ ही महीनों में स्थिति साफ हो जायेगी।
बिहार में कहते हैं कद्दू कटेगा सब में बंटेगा, सभी को है जेडीयू की टूट का इंतजार
बिहार में विपक्ष में बैठी भाजपा और उसके सहयोगी दल बार-बार यह बात कहते हैं कि लोकसभा चुनाव तक जेडीयू टूट जायेगा। ज्यादातर उसके विधायक-सांसद एनडीए के किसी घटक दल के साथ होंगे। सच तो यही है कि लालू को भी इसका इंतजार रहेगा। इसलिए कि जेडीयू के टूटने पर आठ विधायकों ने भी साथ दे दिया, तो आरजेडी की सरकार बन जायेगी। बिहार में सरकार बनाने के लिए 122 सदस्यों का समर्थन जरूरी है। बिहार में बने महागठबंधन में जेडीयू को छोड़ आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों के 114 विधायक हैं, यानी बहुमत से महज आठ विधायक कम हैं। तब तो नीतीश का नामलेवा भी शायद ही कोई बचेगा। यानी महत्वाकांक्षा और असुरक्षा के इस खेल में नीतीश क्या दांव खेलते हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। वैसे राजनीति के इस खेल में लालू का पलड़ा फिलहाल भारी दिखाई पड़ता है, लेकिन नीतीश भी कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। अगर वह पुराने फॉर्म में लौटे, तो अपना मनपसंद खेल खेलने से नहीं चूकेंगे। राजनीति का क्या है, सब मतभेद और मनभेद एक चाल से दूर हो जाती है।