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    Home»Jharkhand Top News»महिलाओं के स्वाभिमान का प्रतीक है झारखंड का टुसू पर्व
    Jharkhand Top News

    महिलाओं के स्वाभिमान का प्रतीक है झारखंड का टुसू पर्व

    SUNIL SINGHBy SUNIL SINGHJanuary 6, 2024No Comments7 Mins Read
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    खूंटी। झारखंड प्रदेश भारतवर्ष की हृदय स्थली है। पहाडों और घने जंगलों से आच्छादित यह प्रदेश अपने गर्भ में अपार भू सम्पदा को संजोये हुए हैं। यह प्रदेश आर्या-अनार्य संस्कृति का संगम स्थल है। यहां का लोकजीवन शुरू से ही संगीतमय रहा है।

    इसी प्रकार पर्व-त्योहार के संबंध में भी एक उक्ति प्रचलित है -बारह मासे 24 परब। नृत्य और गीत यहां के लोगों की सांस्कृतिक धरोहर है। कोई ऐसा महीना नहीं, जिसमें कोई न कोई पूजा, अनुष्ठान एवं त्योहार या मेला न लगता हो। जिस प्रकार सम्पूर्ण झारखंड में करमा और सरहुल बड़े उमंग और हर्षाेल्लास के साथ मनाया जाता है। इससे भी अधिक उमंग के साथ मनाया जाता टुसू पर्व।

    एक महीना पहले से टुसू पर्व मनाने की तैयारी शुरू हो जाती है। टुसू मूलतः झारखंड का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण त्योहारों में एक है। यह पर्व मकर संक्रान्ति के अवसर पर मनाया जाता है। संक्रान्ति का हमारे देश में बड़ा महत्व है। संक्रमण का सामान्य अर्थ है परिवर्तन। प्रकृति में परिवर्तन, मानव-जीवन में परिवर्तन। इस दिन सौरमंडल में एक शाश्वत घटना घटती है। सूर्य का मकर राशि में प्रवेश ही मकर संक्रान्ति कहलाता है

    झारखंड के अलावा दूसरे राज्यों में भी मकर संक्रान्ति एक पवित्र और शुभ दिन के रूप में मनाया जाता है, लेकिन झारखंड में मकर संक्रान्ति पूजा या पुण्य रूप में नहीं, बल्कि एक उत्सव के रूप में मनायी जाती है।

    मकर संक्रांति के दिन गांव के लोग प्रातः उठकर नहा-धोकर पूजा करते हैं। लकड़ी, बांस, सुखी घास आदि को जमा कर उन पर आग लगायी जाती है और उसके चारों और पारम्परिक नृत्य किये जाते हैं। इस अवसर पर सांढ़ों की लड़ाई तथा मुर्गा लड़ाई की पुरानी परंपरा रही है। हिमाचल प्रदेश में मकर संक्रान्ति को माघ साजी कहा जाता है। इस दिल लोग नदियों में नहाते एवं डुबकियां लगाते हैं।

    इस अवसर पर खाने के लिए विशेष रूप से खिचड़ी बनायी जाती है, जिसे घी के साथ खाया जाता है। ओडिशा में इसे संक्रान्ति कहा जाता है। इस अवसर पर विशेष पकवान के रूप में मकरा-चावल, रसगुल्ला, लाई तथा छेना पुड़ी आदि बनाये जाते हैं। वे अपना पारम्परिक नृत्य करते हैं। पश्चिम बंगाल में इसे पुस संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है और विशेष रूप से खजूर गुड़ तैयार किया जाता है तथा पटाली पीठा बनाया जाता है। वहां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। दिल्ली तथा हरियाणा में इसे सकरात या संक्रान्ति कहा जाता है। यहां विशेष पकवान में चुरमा बनाये जाते हैं। इन दिनों विवाहित स्त्रियों के भाई अपनी बहन के लिए उपहार लाते हैं।

    उत्तराखंड, कुमाऊं में इसे मकर संक्रान्ति कहा जाता है। यहां पर लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। पकवान में खिचड़ी बनाई जाती है। उत्तर प्रदेश में संक्रान्ति कहा जाता है। यहां भी पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है। पकवान में तिल के लड्डू, गुड़ के लड्डू बनाये जाते हैं। विशेष रूप से वहां पतंगे उड़ाई जाती हैं।

    महाराष्ट्र राज्य में इसे मकर संक्रान्ति कहा जाता है। वहां हलवा, तिल-गुड़ लड्डू, पूरन पोली आदि पकवान बनाये जाते हैं। महिलाएं एक दूसरे को हल्दी, कुमकुम आदि लगाती है। दक्षिण के राज्य आंन्ध्र प्रदेशा तथा तेलांगना में यह संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर छोटी लड़कियां जानवरों, पक्षियों तथा मछलियों को दाना खिलाती हैं।

    कर्नाटक में यह सुग्गी के नाम से जाना जाता है। यहां चावल के पकवान बनाये जाते हैं। विभिन्न तरह की रंगोलियां बनाई जाती हैं तथा पतंग उड़ाये जाते हैं। मकर संक्राति के मौके पर पूरे वर्ष कृषि संबंधी कार्यों से गुजरने के बाद किसान अपने परिश्रम का फल पाते हैं। इस दिन साल भर के परिश्रम की समाप्ति हो जाती है। सफल परिश्रम के उपलब्ध होने पर यहां के किसान मकर संक्रान्ति को एक उत्सव के रूप में मनाते हैं। साधारणतः करमा, बांदना और टुसू शस्योत्सव है।

    मकर संक्रान्ति के दिन ही झारखंड में टुसू मनाया जाता है। टुसू का शुभारम्भ अगहन संक्रान्ति के दिन से होता है। बांस की एक नई टोकरी में टुस‘ की मूर्ति रखकर दीप, नैवेद्य जलाते हुए कुंवारी लड़कियां टुसू गीतों के साथ इसका उद्घाटन करती हैं।

    टुसू पर्व को पूस (पौष) परब के नाम से भी जाना जाता है। टुस‘ अगहन संक्रान्ति या पहला पौष से प्रारम्भ होकर पौष संक्रान्ति तक एक स्थाई उत्सव है। अगहन संक्रान्ति के दिन टुसू की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पौष संक्रान्ति को इसका विसर्जन किया जाता है। टुसू की स्थापना मुहल्ले या गांव की किसी निश्चित घर में की जाती है। प्रत्येक शाम को मुहल्ले एवं गांव की लड़कियां उस निश्चित स्थल पर एकत्रित होती हैं और टूसू गीत गाती हैं। टुसू की स्थापना में कोई मंत्रोच्चारण का विधान नहीं है। गीत गाकर पूजा की जाती है। यह प्रक्रिया महीने भर चलती रहती है। विसर्जन की पहली रात को जागरण कहा जाता है।

    टुसू को प्रतिदिन फूलों से सजाश-संवारा जाता है। यह पर्व लोक संस्कार की एक अत्यन्त मूल्यवान सम्पदा है। कहीं-कहीं टुसू के प्रतीक के रूप में चौड़ल बनाया जाता है। वस्तुतः यह टुसू की पालकी है, जिसे विभिन्न रंगों के कागज द्वारा पतली-पतली लकड़ियों की सहायता से भव्य महल का आकार प्रदान किया जाता है। स्पर्धावश आजकल बड़े-बड़े एवं कीमती चौड़लों का निर्माण कारीगरी का एक अच्छा नमूना पेश करता है। पौष संक्रान्ति के दिन लड़कियां चौड़ल को लेकर गाजे-बाजे के साथ गांव का भ्रमण करती हैं। फिर विसर्जन के लिए सभी धर्म, जाति, संस्कृति एवं भाषा-भाषी के लोग बड़े प्रेम भाव, एकता और आत्मीयता के साथ सदल-बल टुसू गीत गाते हुए ढोल, नगाड़ा, शहनाई आदि बजाते हुए किसी नदी के किनारे निर्दिष्ट स्थान पर जाते हैं। उस निर्दिष्ट स्थान पर विभिन्न गांवों के लोग अपने चौड़लों के साथ आते हैं जिससे मेला सा लग जाता है।

    करूणा भाव से ओतप्रोत होते हैं टुसू के विसर्जन गीत

    टुसू विसर्जन के गीत करूणा भाव से ओत-प्रोत और बड़े मार्मिक होते है। टुसू गीतों में नारी जीवन के सुख दुःख, हर्ष-विवाद, आशा-आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है। कुछ गीतों में दार्शनिक भाव भी दृष्टिगोचर होते हैं। वस्तुतः टुसू पर्व एक संगीत प्रधान उत्सव है। संगीत के बिना इस त्योहार का कोई महत्व नहीं है। टुसू त्योहार मनुष्य को दुःख और पीड़ा से मुक्ति दिलाने वाला पर्व है। आपस की शत्रुता को मिटाकर आपसी सद्भाव लानेवाला त्योहार है। टुसू पर्व के दिन सभी लोग अपने को उन्मुक्त समझते हैं और पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करते हैं।

    झारखंड में बसने वाले विभिन्न सम्प्रदायों के लोग समान रूप से आनन्दोल्लास के साथ मनाते है। यद्यपि यह जातीय उत्सव है। डॉ सुहृद कुमार भौमिक इसे सीमान्त बंगाल का जातीय उत्सव मानते हैं। उनका मानना है कि टुसू एक कुरमी (महतो) की अत्यन्त रूपवती कन्या थी।

    इसी प्रकार डॉ सुधीर करण ने अपने एक लेख टुसू पुराण में असली नाम ‘रूक्मणी था, लेकिन यह टुसू पर्व अब अपनी जातीय सीमा को लांघकर सार्वजनिक हो गया है। वस्तुतः यह पर्व आर्य-अनार्य संस्कृति की द्विमुखी धारा बंगाल के पििश्चमी सीमान्त और छोटानागपुर के पूर्वी-दक्षिणी क्षेत्रों के जनमानस की लोक संस्कृति का उत्सव है। टुसू को साधारणतः स्त्रियों का त्योहार माना जाता है। समाज में अधिकांश दायित्व, घरेलू बोझ, दरिद्रता, झंझट आदि का बोझ स्त्रियों को ढोना पड़ता है।

    पुरुषों की भांति स्त्रियों को स्वच्छंदता कम मिलती है। परिवार रूपी गाड़ी को चलाने के लिए स्त्रियों को अथक परिश्रम करना पड़ता है। कृषिजीवी लोग पूरे वर्ष की कमाई से अन्न संग्रह के अवसर पर क्या गरीब, क्या अमीर सभी लोगों के घर में अच्छे-अच्छे पकवान बनते हैं और सभी लोग नये-नये वस्त्र पहनते हैं। यह पर्व कृषिजीवी समाज के शस्य की प्रचुरता की कामना का त्योहार है। जमीन की उर्वराशक्ति की प्रार्थना इच्छा का पर्व है, हिंसक पशुओं से आत्म रक्षा एवं शस्य-रक्षा तथा संतानोत्पति की आकांक्षा इत्यादि का त्योहार है। टुसू मूलतः एक शस्योत्सव है। शस्य को केन्द्रित करके त्योहार मनाने का विधान अति प्राचीन काल से समाज में प्रचलित रहा है। बल पूर्वक कहा जा सकता है कि कृषक समाज का यह सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण त्योहार है। कृषि सभ्यता की मूल मानसिकता का प्रकाश इस त्योहार पर पड़ता है।

    टुस पर्व को एक आंचलिक त्योहार के रूप में चित्रित किया जाता रहा है, लेकिन इसकी सीमा कम नहीं है। यह रांची, हजारीबाग, पुरूलिया, बांकुड़ा, मेदनीपुर एवं ओडिश के उत्तरी क्षेत्रों में पड़ने वाले प्रमुख मेले-कानास, पुष्पघाट, मुसाबनी, चांडिल, जयदा, बुण्डू, सिल्ली, मुरी, रजरप्पा, सिलाईदर, डमीनडीह, बांछापोल, सतीघाट, देवलघाट, चापाईसिनी, सीतापांज , मरकुरदर, कोंचो, तुलीनघाट इत्यादि हैं।

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