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    Home»विशेष»संथाल परगना की तीन सीटें तय करेंगी आदिवासी किसके साथ
    विशेष

    संथाल परगना की तीन सीटें तय करेंगी आदिवासी किसके साथ

    adminBy adminMay 25, 2024No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    दुमका, राजमहल और गोड्डा में इसलिए दोनों पक्षों ने लगा दिया है पूरा जोर
    भाजपा के लिए झामुमो की मजबूत किलेबंदी को तोड़ने का है बड़ा अवसर

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    देश भर में लोकसभा चुनाव अब अंतिम दौर में पहुंच रहा है। झारखंड में अंतिम चरण के चुनाव में संथाल परगना की तीन सीटों, दुमका, राजमहल और गोड्डा में 1 जून को मतदान होगा। संथाल परगना की इन तीन सीटों का झारखंड की राजनीति में अलग ही महत्व है और कहा जाता है कि झारखंड की सत्ता की चाबी इन तीन संसदीय सीटों के तहत आनेवाली 18 विधानसभा सीटों के पास है। ऐसा कहने का कारण यह है कि संथाल परगना झारखंड के सबसे ताकतवर क्षेत्रीय दल झारखंड मुक्ति मोर्चा का गढ़ कहा जाता है, हालांकि चुनावी राजनीति के नजरिये से अब यह धारणा पुरानी पड़ चुकी है। आदिवासी बहुल इस इलाके में हाल के दिनों में भाजपा ने भी अपना जनाधार कायम किया है और इसी जनाधार की बदौलत 2019 में उसने दुमका और गोड्डा सीट पर जीत हासिल कर ली थी। दुमका झारखंड की उपराजधानी है और झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की कर्मभूमि भी है। पिछले चुनाव में भाजपा के सुनील सोरेन ने उन्हें हरा दिया था। इसलिए इस बार दुमका और राजमहल सीट पर झामुमो का उम्मीदवार है, जबकि गोड्डा सीट से कांग्रेस के प्रदीप यादव लगातार तीन बार के भाजपा सांसद डॉ निशिकांत दुबे को चुनौती दे रहे हैं। संथाल परगना की इन तीन सीटों का राजनीतिक महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि यहां सभी दलों ने पूरी ताकत झोंक दी है, क्योंकि झारखंड का यही इलाका तय करेगा कि आदिवासियों का असली रहनुमा कौन है। संथाल परगना की तीन सीटों का चुनाव परिणाम ही छह महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव का थोड़ा-बहुत संकेत भी दे देगा। भाजपा के लिए इस बार संथाल परगना का रण पिछली बार की तुलना में थोड़ा आसान है, क्योंकि इस बार शिबू सोरेन और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन चुनावी परिदृश्य में नहीं हैं, जबकि भाजपा के पास उसके सबसे बड़े चेहरे के रूप में प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी हैं, जिन्होंने भी शिबू सोरेन को चुनाव में हराया है। क्या है संथाल परगना की तीन सीटों का समीकरण और दोनों पक्षों की ताकत-कमजोरी, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    पूरे देश के साथ झारखंड में भी संसदीय चुनाव अब अंतिम दौर में पहुंच रहा है। सातवें और अंतिम चरण के चुनाव में झारखंड में संथाल परगना की तीन सीटों, दुमका, गोड्डा और राजमहल में 1 जून को मतदान होगा। इनमें से दुमका और राजमहल आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, जबकि गोड्डा सीट अनारक्षित है। 2019 के चुनाव में भाजपा ने दुमका और गोड्डा से बाजी मारी थी, जबकि राजमहल सीट झामुमो के पास गयी थी।

    आंदोलनकारियों की जमीन है संथाल परगना
    आज से लगभग 167 वर्ष पहले 1855 में संथाल परगना का निर्माण अंग्रेजी शासन व्यवस्था में हुआ था, जिसमें पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से पाकुड़, महेशपुर और बीरभूम जिले की मलूटी और रानीश्वर, मसलिया, नाला, कुंडहित इलाके को काट कर इसमें मिलाया गया। भागलपुर के भी कुछ क्षेत्र को शामिल करने के बाद संथाल परगना अस्तित्व में आया। इतिहासकारों के अनुसार 1855 में महाजनी प्रथा के साथ अंग्रेजी शासन के विरोध में जो ‘संथाल हूल’ हुआ था, जिसे इस क्षेत्र के सिदो-कान्हू जैसे कुछ संथाल समुदाय के लोगों ने लीड किया था, वह पश्चिम बंगाल के क्षेत्र से होते हुए हजारीबाग तक फैल गया था। हालांकि कुछ ही माह के अंदर ही इस विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया था। सिदो-कान्हू समेत कई विद्रोहियों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया था। संथाल हूल शांत होने के बावजूद अंग्रेजी प्रशासकों ने यह महसूस किया कि जिस क्षेत्र में इस तरह के विद्रोह के स्वर फूट सकते हैं, वहां अपनी प्रशासनिक व्यवस्था मजबूत करनी आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखते हुए इस क्षेत्र को नया जिला बनाते हुए इसे संथाल परगना का नाम दिया गया। संथाल परगना भले ही पिछड़ा इलाका माना जाता रहा, लेकिन यह आंदोलनकारियों की भूमि रही है। शिबू सोरेन ने संथाल परगना से ही अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को धार दी और आखिरकार झारखंड राज्य अस्तित्व में आया। संथाल परगना की भूमि राजनीतिक रूप से का उर्वरक रही है। झारखंड निर्माण के बाद यहां से तीन-तीन मुख्यमंत्री हुए। इनमें बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के नाम शामिल हैं। संथाल परगना में लोकसभा की तीन और विधानसभा की 18 सीटें हैं। कहते हैं कि झारखंड ही नहीं, देश भर के आदिवासियों की पहचान इसी इलाके से है, इसलिए राजनीतिक दृष्टिकोण से संथाल परगना बेहद महत्वपूर्ण है।

    क्यों खास हैं संथाल की ये तीन लोकसभा सीटें
    संथाल परगना को झामुमो का गढ़ कहा जाता है, हालांकि हाल के वर्षों में भाजपा ने इस धारणा को तोड़ा है। पार्टी ने गोड्डा सीट को अपना गढ़ बना लिया है, तो पिछली बार दुमका सीट पर भी शिबू सोरेन को पटखनी दे दी थी। चूंकि संथाल परगना से ही झारखंड की सत्ता का रास्ता गुजरता है, तो जाहिर है कि सभी दलों के शीर्ष नेतृत्व की निगाहें इस इलाके पर हैं। आदिवासी राजनीति के केंद्र के रूप में चर्चित संथाल परगना एक तरफ झामुमो-कांग्रेस के लिए गढ़ बचाने की चुनौती है, तो भाजपा के लिए इस मजबूत किलेबंदी को ध्वस्त करने का सुनहरा अवसर, क्योंकि इस बार चुनावी परिदृश्य में संथाल के दो सबसे बड़े आदिवासी चेहरे, शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन नहीं हैं।

    झारखंड की राजनीति में संथाल की भूमिका अहम क्यों
    झारखंड की राजनीति में संथाल परगना की भूमिका काफी अहम मानी जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सबसे बड़े सोरेन परिवार के सभी सदस्य यहां की राजनीति करते हैं। 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाने के बाद शिबू सोरेन ने दुमका को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। दुमका संसदीय सीट से शिबू ने आठ बार जीत दर्ज की। उनके तीनों बेटे स्वर्गीय दुर्गा सोरेन, पूर्व सीएम हेमंत सोरेन, सबसे छोटे बेटे बसंत सोरेन, बड़ी बहू सीता सोरेन संताल परगना से ही चुनाव लड़ती है। 2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो को सबसे बड़ी पार्टी बनाने के साथ सत्ता में लाने का काम संथाल परगना ने ही किया था। यहां की 18 विधानसभा सीटों में से 50 प्रतिशत यानी 9 सीटों पर झामुमो जीती थी। इंडिया गठबंधन की सहयोगी कांग्रेस ने यहां चार (प्रदीप यादव के शामिल होने के बाद पांच) सीटें जीती थी।

    झामुमो ने मजबूत की है किलेबंदी
    पिछले लोकसभा चुनाव में अपने गढ़ के दरकने के बाद झामुमो ने हेमंत सोरेन के नेतृत्व में अपना पैर दोबारा जमाया और इसका नतीजा महज छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में सामने आया, जब पार्टी को 18 में से नौ सीटें मिल गयीं, जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस ने चार सीटें जीत लीं। संथाल परगना में मिली इस ऐतिहासिक सफलता ने झामुमो नेतृत्व और खास कर हेमंत सोरेन को अपनी राजनीतिक रणनीति पर दोबारा विचार करने पर मजबूर कर दिया। विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद हेमंत सोरेन ने संथाल की किलेबंदी पर अधिक ध्यान दिया। उन्होंने कैबिनेट में तीन स्थान के अलावा स्पीकर भी संथाल से बनाया।

    भाजपा के लिए चुनौती भी और अवसर भी
    संथाल परगना की झामुमो ने जिस तरह किलेबंदी की है, उससे भाजपा के लिए चुनौती बड़ी हो गयी है। संथाल परगना में आदिवासियों की बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में करने के लिए भाजपा लंबे समय से कोशिश कर रही है। उसकी कोशिशें लोकसभा चुनाव में सफल होती दिखने लगी थीं। लेकिन हेमंत ने इसे पूरी तरह बदल दिया। अब संथाल में भाजपा की वापसी की राह बेहद कठिन हो गयी है। लेकिन इसके साथ ही उसके लिए इस किले को ध्वस्त करने का अवसर भी है, क्योंकि इस बार बाबूलाल मरांडी के रूप में उसके पास बड़ा आदिवासी चेहरा है, जबकि शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन परिदृश्य में नहीं हैं। इतना ही नहीं, संथाल परगना में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा माने जानेवाले आलमगीर आलम टेंडर कमीशन घोटाले के आरोप में जेल में बंद हैं। ऐसे में भाजपा के लिए रास्ता लगातार आसान होता नजर आ रहा है।

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