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    Home»विशेष»झामुमो के सामने कठिन परीक्षा की घड़ी
    विशेष

    झामुमो के सामने कठिन परीक्षा की घड़ी

    shivam kumarBy shivam kumarSeptember 1, 2024No Comments10 Mins Read
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    विशेष
    दो कद्दावर नेताओं के पार्टी छोड़ने के बाद नेतृत्व का लिटमस टेस्ट
    हेमंत की क्षमता पर कोई सवाल नहीं, लेकिन कार्यकर्ता आक्रामक रूप देखना चाहते हैं

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा इन दिनों परीक्षा की घड़ी से गुजर रही है। विधानसभा चुनाव से पहले दो कद्दावर नेताओं, चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम के पार्टी छोड़ने के बाद से अब नेतृत्व के सामने डैमेज कंट्रोल की चुनौती है। वैसे लोकसभा चुनाव से पहले भी झामुमो को बड़े पैमाने पर कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। उस समय हेमंत सोरेन जेल में थे, इसलिए जेएमएम के नेताओं की नाराजगी को ठीक से हैंडल नहीं कर पाने का कारण बताया गया। खैर लोकसभा चुनाव में कई नेताओं के बगावती रुख अख्तियार करने के बाद भी झामुमो की राजनीतिक सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि वह और मजबूत दिखी। अब एन विधानसभा चुनाव के वक्त पार्टी के दो कद्दावर नेताओं ने झामुमो को अलविदा कह दिया है। यह सब उस पार्टी में हो रहा है, जहां शिबू सोरेन का नाम ही काफी है और हेमंत सोरेन के सामने भले ही कोई कुछ भी बोल ले, पार्टी के खिलाफ बोलने से परहेज करता था। कम से कम चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम के बारे में तो कहा ही जा सकता है कि आज भी शिबू सोरेन को लेकर उनके मन में कोई मलाल नहीं है। इन दोनों की चर्चा इसलिए हो रही है, क्योंकि कभी ये दोनों गुरुजी के दायें-बायें हाथ कहे जाते थे। यह सच है कि झामुमो के संस्थापक शिबू सोरेन के फैसलों का विरोध आज तक झामुमो में किसी ने नहीं किया और यही कारण है कि स्थापना के 52 साल बाद भी झामुमो झारखंड में बड़ी राजनीतिक ताकत बनी हुई है।

    गुरुजी की अस्वस्थता और हेमंत सोरेन के पास पार्टी की जिम्मेदारी आने के बाद झामुमो में बहुत कुछ बदला, लेकिन फिर भी बगावत जैसी बात कभी नहीं हुई। लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं। ऐसे में झारखंड की इस सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी के सामने लगातार चुनौतियां मुंह बाये जा रही हैं। वैसे हेमंत सोरेन इस परिस्थिति का गंभीरता से आकलन भी कर रहे होंगे। चुनाव से पहले गुरुजी के करीबी दो कद्दावर नेताओं का जेएमएम से मोह भंग होना पार्टी के लिए कहीं से भी ठीक नहीं है। अब हेमंत सोरेन का अधिकतर समय पार्टी को टूट से बचाने पर जाया होगा और जो गये उनकी वैकल्पिक व्यवस्था करने पर होगा। विधानसभा चुनाव दूर नहीं है। चलिए एक वक्त तो माना जा सकता है, हेमंत अभी भी जेएमएम को मजबूत परिस्थिति में रख सकते हैं, क्योंकि अभी भी झारखंड में जेएमएम को कमजोर करना लोहे के चने चबाने जैसा ही है। लेकिन कांग्रेस जो जेएमएम के कंधे पर लटकी रहती है, उसका क्या होगा। हेमंत सोरेन की पहली प्राथमिकता यह होगी कि वह अब भी जेएमएम को झारखंड में नंबर वन पार्टी बनाये रखें। ऐसी हालत में कांग्रेस का क्या होगा, जिसने साढ़े चार साल तक सिर्फ और सिर्फ सत्ता की राजनीति की है। उसने पार्टी संगठन के विस्तार के लिए एक भी बड़ा कार्यक्रम नहीं किया। लोकसभा चुनाव की बात को छोड़ दें, तो नये प्रदेश अध्यक्ष के आने तक पार्टी के अधिकांश नेता एक दूसरे की टांग खिंचाई में हीं मशगूल रहे। कांग्रेस के अधिकांश मंत्रियों ने एकाध को छोड़ कर इस दरम्यान अपने कद को ही निखारने में अधिकांश समय जाया किया। किसी की यह चिंता नहीं रही कि पार्टी कैसे जन-जन तक पहुंचे। चंपाई सोरेन के भाजपा में शामिल होने और उनके द्वारा कांग्रेस पर करारा प्रहार करने के पीछे कहीं न कहीं भाजपा की यह रणनीति ही है कि वह महागठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस को निशाने पर ले। भाजपा यही चाहती है कि हेमंत सोरेन डैमेज कंट्रोल में उलझे रहें और भाजपा कमजोर कड़ी कांग्रेस की जमीन खिसकाती रहे। अपने मकसद में भाजपा कामयाब हो पाती है या नहीं, यह तो समय के गर्भ में है, लेकिन फिलहाल उसने झामुमो की चिंता बढ़ा दी है। इन सबका क्या असर पड़ेगा चुनाव में, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड में विधानसभा चुनाव की गहमा-गहमी के बीच पाला बदलने का खेल बेहद चर्चा में है। यह खेल झामुमो और भाजपा के बीच हो रहा है, जिसमें फिलहाल भाजपा 2-0 से आगे है। झामुमो के दो कद्दावर नेताओं, चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम ने पार्टी को अलविदा कह दिया है और भाजपा में चले गये हैं। इसके बाद से अब झामुमो के सामने परिस्थितियों को संभालने का बड़ा चैलेंज पैदा हो गया है। हालांकि हेमंत सोरेन अब भी पार्टी के निर्विवाद नेता हैं, और उनकी नेतृत्व क्षमता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इन दोनों पुराने नेताओं ने पार्टी के भीतर की जो स्थितियो बयां की हैे, उससे साफ होता है कि झारखंड की इस सबसे ताकतवर पार्टी के भीतर कुछ तो है, जो नाराजगी की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। एक बड़ा राजनीतिक सवाल, झारखंड के लोगों के दिमाग में रह-रह कर कौंध रहा है कि आखिर राज्य की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के भीतर से विरोध के स्वर मुखर रूप से कैसे और क्यों सुनाई देने लगे हैं। झामुमो झारखंड की ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है, जिसने पिछले पांच दशक से भी अधिक समय से यहां की राजनीति की नुमाइंदगी की है, राज्य पर शासन भी किया है और विपक्ष की भूमिका भी शिद्दत से निभायी है। लेकिन हाल के दिनों में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है कि कभी गुरुजी के सबसे करीब रहे दोनों नेताओं ने अलग रास्ता अख्तियार कर लिया, बावजूद इसके उनके मन में गुरुजी के प्रति आदर कम नहीं हुआ है।

    चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम का झामुमो छोड़ना सामान्य बात नहीं है। ये दोनों पार्टी की पहली कतार के नेता थे। दोनों की पहचान शिबू सोरेन के सबसे विश्वसनीय सहयोगियों के रूप में थी। पार्टी की नीतियां तय करने में दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ऐसे में यदि इन दोनों ने पार्टी छोड़ी है, तो इस पर झामुमो को मंथन करना ही चाहिए।

    हालांकि यह पहली बार नहीं है कि झामुमो के बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ी है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भी झामुमो में अचानक नाराजगी देखी गयी थी। पहले पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन ने परिवार और पार्टी से बगावत कर भाजपा का झंडा थामा था। फिर विशुनपुर के विधायक चमरा लिंडा ने पार्टी के फैसले का विरोध कर लोहरदगा संसदीय सीट से नामांकन दाखिल कर दिया। पार्टी के पूर्व विधायक बसंत लोंगा भी खूंटी सीट से बतौर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे, तो जयप्रकाश वर्मा कोडरमा संसदीय सीट से उतर गये। बोरियो से पार्टी के विधायक लोबिन हेंब्रम भी बागी बने और राजमहल सीट से चुनाव लड़े। यह अलग बात है कि इनमें से किसी को सफलता नहीं मिली, लेकिन किसी भी पार्टी के लिए इसे शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।

    झामुमो में कभी ऐसी स्थिति नहीं आयी
    झामुमो के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब उसकी पहली कतार के दो नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है। लोकसभा चुनाव से पहले इन दो नेताओं की बगावत को चुनावी दांव-पेंच माना जा सकता है, लेकिन चंपाई और लोबिन के पार्टी छोड़ने को महज चुनावी राजनीतिक स्टंट नहीं कहा जा सकता। ये दोनों नेता ऐसे हैं, जिनकी गिनती चुनावी राजनीति से ऊपर होती थी। सीता सोरेन और दूसरे बागी नेताओं के बारे में कहा जा सकता है कि उन्हें चुनावी लाभ की चिंता थी, लेकिन चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम ने जो मुद्दे उठाये हैं, उनसे तो ऐसा नहीं लगता कि वे चुनावी लाभ के लिए दूसरी पार्टी में गये हैं। संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। भले ही दस्तावेज के आधार पर ऐसे मुद्दे सामने नहीं आ रहे, लेकिन इस बात में कुछ तो सच्चाई है कि वहां घुसपैठ हुई है।

    क्यों हो रहा है विरोध
    झामुमो के भीतर इतने बड़े पैमाने पर हो रहा विरोध कहीं न कहीं पार्टी की मौजूदा रणनीतियों को लेकर है। पार्टी के सबसे सम्मानित नेता शिबू सोरेन अस्वस्थता की वजह से सक्रिय नहीं हैं। उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन पार्टी पर अपनी मजबूत पकड़ तो बनाये हुए हैं, लेकिन सरकार में जिम्मेदारी संभालने के कारण और झारखंड की शासन व्यवस्था के बोझ के कारण कभी-कभी वह शासन-प्रशासन के खिलाफ आक्रामक तेवर नहीं अपना पाते, जिसकी उम्मीद जनता करती है। गायबथान की घटना के बाद पाकुड़े के केकेएम कॉलेज के हॉस्टल में पुलिस ने जिस तरह से छात्रों की पिटाई की, उससे निश्चित रूप से झामुमो की छवि पर असर पड़ा है। अगर छात्रावास के छात्र भाजपा के समर्थक होते, तो उसका उतना असर नहीं होता, जितना उस घटना के बाद आदिवासी छात्रों में हुआ। चूंकि शासन चलाने के लिए पुलिस-प्रशासन का सहयोग जरूरी होता है, शायद इसी कारण पाकुड़ की पुलिस पर कड़ा एक्शन नहीं हो पाया। उस मामले में झामुमो रक्षात्मक रहा। जाहिर है, जब तक हेमंत सोरेन 2019 वाले तेवर में नहीं आयेंगे, झामुमो की छवि पर असर पड़ेगा, क्योंकि झामुमो के समर्थक आंदोलनकारी हैं। उनको इस बात से ज्यादा लेना देना नहीं कि शासन चलाते वक्त कुछ नरम रुख भी अख्तियार करना पड़ता है। वे तो हर हर हक और अधिकार लड़ कर लेना चाहते हैं। पुलिस के गलत कामों के खिलाफ आंदोलन करना झामुमो कार्यकर्ताओं के रग-रग में समाया रहा है। सच भी यही है कि शासन-प्रशासन के खिलाफ आंदोलन करके ही झामुमो झारखंड में शीर्ष पर पहुंचा है।

    बेहद रोमांचक है झामुमो का इतिहास
    बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि झारखंड मुक्ति मोर्चा का नाम 1971 में बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़नेवाली मुक्ति वाहिनी की तर्ज पर रखा गया था। वह दौर संथाल परगना में सूदखोरों और महाजनों के खिलाफ चल रहे जनांदोलन का था। इसके नायक शिबू सोरेन थे। तब अलग झारखंड राज्य की मांग झारखंड पार्टी कर रही थी। शिबू सोरेन ने 1967 में बिहार प्रोग्रेसिव हूल झारखंड पार्टी बनायी, लेकिन अलग झारखंड राज्य के लिए उनका संघर्ष 2 फरवरी, 1972 को उस समय शुरू हुआ, जब विनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिल कर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी। साथ में थे निर्मल महतो और टेकलाल महतो।

    झामुमो का घोषित लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ झारखंड और यहां के आदिवासियों की मुक्ति है। झामुमो जब अस्तित्व में आया, तब इसे संथालों की पार्टी कहा जाता था, लेकिन समय के साथ इसने खुद को सभी आदिवासी जनजातियों का प्रतिनिधि बना लिया। झामुमो और खास कर शिबू सोरेन हमेशा झारखंड के निर्विवाद नेता रहे। इसलिए वह राष्ट्रीय पार्टियों की आंख की किरकिरी बने रहे। कांग्रेस और भाजपा ने हमेशा झामुमो को अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल किया। सहयोगियों का अलगाव, बढ़ती उम्र और बड़े बेटे दुर्गा सोरेन के असामयिक निधन ने गुरुजी को भीतर से कमजोर कर दिया, लेकिन वह परिस्थितियों से जूझते रहे। अंतत: उन्होंने अपने दूसरे पुत्र हेमंत सोरेन को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने झामुमो को नयी ऊंचाइयां दीं। पार्टी झारखंड में लगातार मजबूत होती गयी और हेमंत के नेतृत्व में पहली बार इसने कांग्रेस और राजद के साथ मिल कर स्पष्ट बहुमत हासिल किया। कई बार परिस्थितियां विपरीत हुईं, लेकिन इससे झामुमो का तेवर नरम नहीं पड़ा।

    झामुमो की गतिविधियों पर नजर रखनेवालों का कहना है कि दरअसल हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद पार्टी की आक्रामकता कम हो गयी है। पहले शिबू सोरेन और बाद में हेमंत सोरेन ने पार्टी को एक परिवार के सदस्य के रूप में चलाया। झामुमो के किसी नेता या कार्यकर्ता को गुरुजी या हेमंत से मिलने के लिए समय लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल गयी हैं। नेताओं का यह कनेक्ट किन्हीं कारणों से कम हो गया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि हेमंत सोरेन अब झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। उनके लिए झारखंड पहले है और पार्टी उसके बाद। लेकिन ऐसे कितने लोग हैं, जो इन बारीक बातों को समझेंगे। वे तो हेमंत सोरेन को उसी पुरानेवाले फार्म में देखना चाहते हैं।

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    shivam kumar

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