रांची। पिछले तीन दशक से छत्तीसगढ़ के बाद झारखंड की गिनती देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में होती रही है। कुछ समय पहले तक राज्य में नक्सलियों का खुल्लमखुल्ला तांडव होता था। खासकर चुनाव के समय तो सारी मशीनरी नक्सलियों के सामने घुटने टेक देती थी। लेकिन इस बार फिजां कुछ बदली-बदली सी दिखाई पड़ रही है। एक तरफ जहां नक्सलियों के खौफ की सांसें टूट रही हैं। वहीं पुलिस की पकड़ भी जंगल-जंगल में मजबूत हुई है। इसी कारण नक्सलियों ने भी पैंतरा बदलते हुए बुलेट की जगह बैलेट और जंगल की जगह शहर की राह पकड़ ली है। इतना तो तय है कि झारखंड से नक्सल का खात्मा नहीं हुआ है। जंगल में पुलिस बूटों की आवाज से नक्सली खौफ की सांसें जरूर टूट रही हैं, नक्सली गतिविधियों पर अंकुश लगा है। नक्सली यह मानकर चलने लगे हैं कि साढ़े चार साल में भाजपा सरकार ने उनकी कमर तोड़ दी है। एक बार और कहीं भाजपा की सरकार आ गयी, तो उनकी सांसें हमेशा के लिए थम जायेंगी। शायद यही कारण है कि इस बार बुलेटवालोें ने बैलेट की राह पकड़ना ही उचित समझा और भाजपा के खिलाफ छिप-छिपा कर अभियान चलाने की रणनीति में जुट गये हैं।
जरा छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव पर गौर फरमाइये। जब परिणाम सामने आया, तो सभी स्तब्ध थे। उस परिणाम में रमण सरकार की विफलता तो थी, लेकिन उसमें बड़ी भूमिका थी नक्सलियों की, जिन्होंने अपने प्रभाववाले इलाके में वोट धमाका कर दिया। इसके बाद से नक्सली अब इस राह को चुनना ज्यादा सेफ मान रहे हैं। ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ में लोगों का रातोंरात हृदय परिवर्तन हो गया था। ऐसा भी नहीं था कि रमण सिंह के खिलाफ बगावत हो गयी थी। बल्कि उनके प्रति विपक्ष में भी आदर का भाव था। बावजूद इसके परिणाम चौंकानेवाला था। बाद में जो बातें छन कर आयीं, उसमें नक्सलियों की महत्वपूर्ण भूमिका उजागर हुई। हालांकि झारखंड में नक्सलियों से निबटने को लेकर पुलिस की मुकम्मल तैयारी है, लेकिन भाजपा के लिए नक्सली विचारधारा से निबटना बड़ी चुनौती होगी। यह तो तय है कि नक्सली अभी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस कारण वे पैसे-लेवी पर सेट भी नहीं हो सकते। उनकी सबसे बड़ी चिंता है कि अगर दोबारा भाजपा आयी, तो उन्हें आॅल आउट कर देगी। इसी का परिणाम है कि नक्सलियों का बड़ा समूह बैलेट के सहारे भी परिवर्तन और विरोधी शक्तियों को परास्त करने की तैयारी में जुटा है।
पिछले तीन दशकों में पहली बार ऐसा है, जब चुनाव में नक्सलियों का खौफ नहीं के बराबर दिख रहा है। बुलेट के जरिये चुनावों में जीत-हार तय करने-कराने वाले नक्सलियों ने अब कमोेबेश बैलेट की राह पकड़ ली है। बेशक इसका श्रेय झारखंड की सरकार और पुलिस को जाना चाहिए, जिसने पिछले साढ़े चार साल में नक्सलियों के खिलाफ सुनियोजित तरीके से अभियान चलाकर उन्हें पूरी तरह बैकफुट पर ला दिया है।
हालांकि झारखंड को अभी भी पूरी तरह नक्सलमुक्त कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन इतना जरूर है कि अब नक्सलियों के लिए अपनी मांद से निकलना मुश्किल जरूर हो गया है। लातेहार का बूढ़ा पहाड़ और बोकारो का झुमरा अब भी नक्सलियों की पनाहगाह है, लेकिन पुलिस की चौतरफा और मजबूत घेराबंदी की वजह से उनके खौफ का साम्राज्य एक सीमा तक सिमट गया है। पिछले तीन दशक की चुनाव की बात करें, तो ऐसा एक भी चुनाव नहीं रहा, जो रक्तरंजित न रहा हो। नक्सलियों के खौफ और संगीनों के साये में वोट नहीं पड़े हों। ग्रामीण डरे-सहमे मतदान केंद्र नहीं पहुंचे हों। लेकिन अब तक की स्थिति को देखते हुए यही अंदाजा लगाया जा रहा है कि शायद तीन दशक बाद लोकतंत्र का यह पहला महापर्व हो, जो रक्तरंजित नहीं हो।
नब्बे में हुए लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में पहली बार नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया। बुलेट और बैलेट का खौफ ऐसा था कि कई मतदान केंद्रों पर वोट नहीं डाले जा सके। प्रत्याशी भी प्रचार के लिए नक्सल प्रभावित गांवों में नहीं जा पाये। कई इलाकों में वोटर भी नक्सलियों के खौफ से घरों में ही दुबके रह गये। 1995, 2000, 2004, 2009, 2014 में कम से कम आधा दर्जन सीटों पर हार-जीत तय करने में नक्सलियों की अहम भूमिका रही। चतरा, पलामू, लोहरदगा, खूंटी, चाईबासा, दुमका, गिरिडीह, कोडरमा, पूर्व सिंहभूम और हजारीबाग में जंगल यानी नक्सलियों को मैनेज किये बगैर चुनाव मैदान में डटे रह पाना आसान नहीं रहा।
नक्सलियों को मुंहमांगी रकम देने और उन्हें मैनेज करने का आरोप कई राजनीतिक दलों और नेताओं पर लगा। इसका स्टिंग आॅपरेशन तक हुआ। मीडिया में भी नेता और नक्सली गठजोड़ की खबरें खूब छपती रहीं। एक वक्त नेताओं को शायद ऐसा लगने लगा कि नक्सलियों को मैनेज किये बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता है।
वहीं दूसरी ओर चुनाव बहिष्कार, वोट देने पर छह इंच छोटा कर देने की धमकी, चुनावों के दौरान बारूदी सुरंग विस्फोट, मतदान पार्टियों पर हमले, उम्मीदवारों के प्रचार वाहन जलाने, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं की पिटाई, पुलिस पर हमले जैसी घटनाएं आम रहीं। नक्सलियों का मनोबल इतना बढ़ गया कि उन्होंने पाकुड़ के तत्कालीन एसपी अमरजीत बलिहार समेत पांच पुलिसकर्मियों को दो जुलाई 2013 कोे मौत के घाट उतार दिया।
एसपी अमरजीत बलिहार दुमका में डीआइजी की बैठक से लौट रहे थे। काठीकुंड थाना क्षेत्र के आमतल्ला गांव के पास नक्सलियों ने घात लगा कर एसपी के वाहन पर हमला किया था। पहले विस्फोट किया, जिससे वाहन क्षतिग्रस्त हो गया। इसके बाद एसपी और अन्य पुलिसकर्मियों ने गाड़ी से उतर कर सड़क किनारे झाड़ी में मोरचा लिया, लेकिन नक्सलियों ने घेर कर अंधाधुंध फायरिंग की, जिसमें एसपी समेत पांच पुलिसकर्मी शहीद हो गये थे। इससे पहले नक्सलियों ने लोहरदगा के एसपी अजय सिंह को भी पेशरार में मार दिया था। साल 2000 में झारखंड में ऐसा पहली बार हुआ कि नक्सलियों ने किसी आइपीएस को हमला कर मार दिया हो। अक्टूबर में नक्सलियों ने झारखंड के लोहरदगा जिले के एसपी अजय कुमार सिंह की हत्या कर दी थी, लेकिन तब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था।
तब 1995 बैच के आइपीएस अजय कुमार अपने बेखौफ तेवरों के लिए मशहूर थे और वह बिहार के पहले ऐसे आइपीएस अधिकारी थे, जो वर्दी में नक्सलवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए। इन घटनाओं का असर आम जनता पर भी पड़ा। इसके बाद चुनाव के दौरान मतदाताओं को और भी डराने-धमकाने की घटनाएं आम हो गयीं। चुनाव बहिष्कार की बात नहीं मानने पर टंडवा में पहला वोट डालने वाले जसीमुद्दीन अंसारी का नक्सलियों ने हाथ तक काट दिया गया था। ऐसी कई घटनाएं हुई थीं।
इसके बाद नक्सली कमांडरों ने बैलेट की लड़ाई की ओर रुख किया। इनमें कामेश्वर बैठा, पौलुस सुरीन, गणेश गंझू आदि नाम शामिल हैं। इतना ही नहीं, नक्सलियों के परिवार के लोगों ने भी झारखंड में राजनीति की राह पकड़ी। कुछ को सफलताएं भी मिलीं।
नोटबंदी ने तोड़ी नक्सलियों की कमर 80 करोड़ बर्बादभाजपा की सरकार बनते ही नक्सलियों के सफाये के लिए दोतरफा अभियान शुरू हो गया। एक तरफ सुरक्षा बलों ने घेराबंदी अभियान शुरू किया, तो दूसरी ओर सरकार ने सरेंडर की आकर्षक पॉलिसी बनायी। इसके बाद नक्सलियों ने यह मान लिया कि अगर सरेंडर नहीं किया, तो मारे जायेंगे। सरेंडर किया, तो सरकार राशि भी देगी और सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार भी मिलेगा। वहीं दूसरी ओर इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी कर दी। इससे नक्सलियों की मानो कमर ही टूट गयी। खुफिया सूचनाओं के अनुसार उनके कम से कम अस्सी करोड़ रुपये केंद्र सरकार के इस निर्णय के चलते बर्बाद हो गये। नक्सलियों का लगभग पूरा का पूरा अर्थतंत्र बर्बाद हो गया। इस कारण बौखलाहट में नक्सली कथित विचारधारा की लड़ाई छोड़कर नकदी लूटने की फिराक में लग गये, लेकिन सरकार ने उनकी किसी भी साजिश को नाकाम करने के लिए पुख्ता तैयारी कर रखी थी। खुफिया अध्ययन के अनुसार चार साल पूर्व नक्सलियों की राज्य में लेवी की प्रति वर्ष कमाई लगभग 140 करोड़ रुपये थी, जो पिछले कुछ वर्षों में सुरक्षाबलों की कार्रवाई और विकास कार्यों के चलते घटकर काफी कम हो गयी। उनमें से अब तो कुछ दाने-दाने को मोहताज हैं। यही कारण है कि उन्होंने समय को भांपते हुए चोला बदल लिया है और वोट की चोट से भाजपा को सबक सिखाना चाहते हैं।