लोकसभा चुनाव परिणाम में हार का आंकड़ा भले ही महागठबंधन के विधायकों सरीखा न हो, लेकिन सत्ता पक्ष के भी कुछ दिग्गज ऐसे हैं, जिनके विधानसभा क्षेत्र में भाजपा पीछे रह गयी। विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव के सिसई विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस को अधिक वोट मिले। इसी संसदीय क्षेत्र के गुमला विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के प्रत्याशी सुदर्शन भगत काफी मतों से पिछड़े। खूंटी विधानसभा के विधायक और रघुवर सरकार में मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के किसी काम नहीं आये। यहां से अर्जुन मुंडा करीब 21 हजार वोट से पिछड़ गये। इसी संसदीय क्षेत्र में सिमडेगा विधानसभा में विधायक विमला प्रधान भी अर्जुन मुंडा की मदद नहीं कर सकीं। यही वजह रही कि मुंडा मुश्किल से चुनाव जीते। उन्हें उन क्षेत्रों खरसावां और तमाड़ से बंपर लीड मिली, जहां भाजपा के विधायक नहीं हैं।
राजमहल में भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी भी चुनाव में काम नहीं आये। उनके बोर में तो पहले से ही यह कयास था कि वह किसी भी समय झामुमो का दामन थाम सकते हैं। उन्होंने टिकट बंटवारे के समय झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन से मुलाकता भी की थी। और तो और भाजपा के राजमहल प्रत्याशी हेमलाल मुर्मू अपनी ही विधानसभा सीट बरहेट में बढ़त नहीं बना सके। इसी तरह चाईबासा से लोकसभा प्रत्याशी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ अपने विधानसभा क्षेत्र चक्रधरपुर में ही पिछड़ गये। यह सच है कि भाजपा में लोकसभा चुनाव की जीत को लेकर जश्न है, लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि इन दिग्गजों को मिली हार की भरपाई कौन करेगा! जिन विधानसभा सीटों पर भाजपा को हार मिली है, वहां से हारनेवाले नेता अपने को पार्टी का दबंग चेहरा मानते हैं। पार्टी में नीति निर्धारक की भूमिका में रहते हैं।
भाजपा को सबसे करारा झटका लगा है खूंटी विधायक और रघुवर सरकार में मुख्यमंत्री के बाद सबसे ताकतवर मंत्री की भूमिका में काम करनेवाले नीलकंठ सिंह मुंडा से। खूंटी से 2014 के चुनाव में भाजपा ने अच्छी बढ़त बनायी थी। राज्य में सरकार बनने के बाद खूंटी में कई योजनाएं गयीं। वहां ग्रामीण इलाकों में सड़कों का जाल बिछा। देश का पहला सोलर ऊर्जा से संचालित होनेवाला कोर्ट खूंटी में बना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया। रक्षा शक्ति विश्वविद्यालय खुला। ग्रामीण विकास की योजनाओं में इस इलाके को प्राथमिकता दी गयी। सब कुछ होने के बाद भी यहां लोकसभा चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है। भाजपा खूंटी में 21 हजार वोटों से कांग्रेस से पीछे रही, जो सबसे ज्यादा भाजपा प्रत्याशी अर्जुन मुंडा की जीत में बाधक बन रही थी। आखिर इसकी जिम्मेवारी किसी पर बनती है तो वह नीलकंठ सिंह मुंडा हैं। अंदरखाने से अब तो यह आरोप भी लग रहा है कि अपने भाई और कांग्रेस प्रत्याशी कालीचरण मुंडा के पक्ष में नीलकंठ ने खुल कर काम किया। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो पार्टी की समीक्षा के बाद ही पता चलेगा, लेकिन भाजपा में इस बात की चर्चा खूब है कि कहीं न कहीं नीलकंठ पर पार्टी प्रत्याशी से ज्यादा भाई का प्रेम हावी रहा। सिमडेगा से भाजपा के टिकट पर लगातार दो बार से बिमला प्रधान विधायक हैं। सिमडेगा में कमल खिलाने के एवज में उन्हें पिछली सरकार में मंत्री बनाया गया था। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में उनकी नहीं चली। जबकि इस विधानसभा में भी सरकार का फोकस रहा है। यहां से भाजपा प्रत्याशी अर्जुन मुंडा को कांग्रेस प्रत्याशी कालीचरण मुंडा से पांच हजार वोट कम मिला।
बात स्पीकर दिनेश उरांव की विधानसभा सिसई की करते हैं। दूसरी बार दिनेश उरांव यहां से विधायक बने हैं। इन्हें स्पीकर जैसा सम्मानित पद दिया गया। बीच के दिनों में इनकी नजर राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी थी। लोकसभा चुनाव में अपने विधानसभा से पार्टी प्रत्याशी को जीत नहीं दिला सके। यहां भाजपा प्रत्याशी सुदर्शन भगत को कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत से 10 हजार के करीब वोट कम मिला।
इनके बगल में गुमला विधानसभा है। यहां से भी भाजपा के ही विधायक शिवशंकर उरांव हैं। लोकसभा चुनाव में गुमला में कमल नहीं खिला सके। भाजपा को यहां सात हजार से ज्यादा वोट से कांग्रेस ने मात दी। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी अपने तेवर के लिए जाने जाते हैं। लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं मिलने पर पार्टी के निर्णय पर भी आंखें तरेरी थीं। झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन से इसी दौरान मिलकर पार्टी पर दवाब बनाने का भी काम किया था। लोकसभा चुनाव में बोरियो विधानसभा में भाजपा को झामुमो से 11 हजार वोट कम मिला। ताला अपनी सीट नहीं बचा सके। राजमहल से भाजपा प्रत्याशी हेमलाल मुर्मू अपनी विधानसभा बरहेट में ही 13 हजार से ज्यादा वोट से झामुमो प्रत्याशी विजय हांसदा से पिछड़ गये। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ लोकसभा चुनाव तो हारे ही अपने विधानसभा क्षेत्र चक्रधरपुर में भी गीता के सामने नहीं टिक सके। कांग्रेस प्रत्याशी गीता कोड़ा ने इन्हें चक्रधरपुर में तीन हजार वोट के अंतर से हराया। अब सवाल यह उठता है कि जब सभी सीटों पर भाजपा को बढ़त मिली, विपक्ष के कब्जेवाली 20 विधानसभा सीटों पर भगवा लहराया तो भाजपा के इन दिग्गजों ने अपनी सीट क्यों गंवाई। सवाल यह भी उठता है कि जब प्रदेश अध्यक्ष, स्पीकर, सरकार के मंत्री और भाजपा कोर कमिटी के सदस्य ही अपनी सीट नहीं बचा पाते हैं तो अन्य कार्यकर्ताओं पर पार्टी कैसे शिकंजा कसेगी। यहां इस बात की चर्चा जरूरी है कि पिछले एक वर्ष से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अमित शाह, राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल रांची प्रवास में इस बात की ताकीद कर चुके हैं कि लोकसभा चुनाव का परिणाम ही विधायकों के भाग्य का फैसला करेगा और चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास ने साफ तौर पर एलान कर दिया था कि विधानसभा चुनाव हारनेवाले विधायकों को दुबारा टिकट देने पर पार्टी विचार नहीं करेगी तो क्या अब पार्टी ऐसे विधायकों पर निर्णय लेगी। यह समझा जाये कि छह महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने लोकसभा चुनाव में 75 पार वाले सांसदों का टिकट काटा, उसी तरह से विधानसभा चुनाव में अपने क्षेत्र में जीत नहीं दिलानेवाले विधायकों का टिकट काटेंगे। जानकारी के अनुसार केंद्र सरकार के गठन के बाद भाजपा की लोकसभा चुनाव को लेकर समीक्षा बैठक होगी और इन तमाम मुद्दों पर चर्चा भी होगी। देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा ऐसे विधायकों पर क्या निर्णय लेती है।
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