राजनीति के बारे में बहुत पुरानी कहावत है कि इसमें न कोई स्थायी दोस्त होता है और न कोई स्थायी दुश्मन। परिस्थितियों के हिसाब से नफा-नुकसान तौल कर राजनीतिक रिश्ता बनता-बिगड़ता है। झारखंड में तो यह हिसाब-किताब और भी तेजी से बदलता रहा है। यही कारण है कि एक साल पहले लोकसभा चुनाव में जिस भाजपा ने आजसू के लिए अपनी सीटिंग सीट गिरिडीह छोड़ दी थी, उसी के साथ छह माह बाद विधानसभा चुनाव में रिश्ते तार-तार हो गये और दोनों अलग-अलग चुनाव लड़े। विधानसभा चुनाव के बाद हाल में संपन्न राज्यसभा चुनाव में दोनों पार्टियां फिर एक साथ आ गयीं और आजसू ने भाजपा का साथ दिया। अब एक बार फिर दोनों का रिश्ता दिखनेवाला है। यह रिश्ता दिखेगा बेरमो के चुनाव मैदान में, जहां अगले कुछ दिनों में विधानसभा का उप चुनाव होने वाला है। गिरिडीह संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाला बेरमो विधानसभा क्षेत्र पिछले चुनाव में कांग्रेस के हिस्से में गया था और यहां से कांग्रेस के दिग्गज राजेंद्र प्रसाद सिंह चुनाव जीते थे। हाल ही में उनके निधन के कारण यह सीट खाली हुई है। इस सीट पर होनेवाले चुनाव के परिणाम का सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा, इसके बावजूद राजनीतिक दृष्टि से यह उपचुनाव नये समीकरण और नयी परिस्थितियां पैदा करेगा। बेरमो में सबसे बड़ा राजनीतिक समीकरण भाजपा और आजसू के रिश्ते को लेकर तय होगा। कोयलांचल के चुनावी मैदान में इन दोनों पार्टियों के रिश्ते को मजबूती मिलेगी या फिर दोनों एक बार फिर अलग होंगे, इन संभावनाओं पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने कहा था कि राजनीति भी बड़ी अजीब चीज है। यह तमाम तरह की अनिश्चितताओं से भरा एक ऐसा रंगमंच है, जिसमें कलाकारों की भूमिकाएं कभी-कभी इतनी तेजी से बदलती हैं कि लोग भ्रमित हो जाते हैं। झारखंड के संदर्भ में यह कथन बिल्कुल सटीक बैठता है। पिछले दो दशक में विधानसभा के चार चुनाव का अनुभव हासिल करने के बावजूद झारखंड में आज तक लोग यह समझ नहीं पाये हैं कि कौन किसके साथ है और कौन किसके खिलाफ। लोकसभा चुनाव में भाजपा और आजसू साथ होते हैं, तो विधानसभा चुनाव में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में उतर जाते हैं। फिर राज्यसभा में दोनों साथ हो जाते हैं और अब, जब विधानसभा का उपचुनाव होना है, दोनों पार्टियां एक बार फिर अलग-अलग लड़ने के लिए बाहें चढ़ा रही हैं।
हम बात कर रहे हैं बेरमो विधानसभा सीट की, जहां से विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज राजेंद्र प्रसाद सिंह 25 हजार से अधिक वोटों से जीते थे। उनके निधन के कारण यह सीट खाली हो गयी है और अगले कुछ महीनों में यहां उपचुनाव होना है। बेरमो सीट कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा की है, तो भाजपा और आजसू के लिए भी यह बेहद महत्वपूर्ण है।
दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव में बेरमो में त्रिकोणीय मुकाबला हुआ था, जिसमें राजेंद्र प्रसाद सिंह ने भाजपा के योगेश्वर महतो बाटुल को 25 हजार 172 मतों के अंतर से हराया था। कांग्रेस प्रत्याशी को 88 हजार 945 वोट मिले थे, जबकि भाजपा के खाते में 63 हजार 773 वोट ही आये थे। यहां से आजसू ने काशीनाथ सिंह को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन वह महज 16 हजार 546 वोट ही पा सके। इस चुनाव से करीब छह महीने पहले लोकसभा का चुनाव हुआ था, जिसमें गिरिडीह से आजसू प्रत्याशी चंद्रप्रकाश चौधरी को बेरमो विधानसभा क्षेत्र से एक लाख 12 हजार 971 वोट मिले थे और उन्होंने झामुमो प्रत्याशी जगरनाथ महतो पर 42 हजार 449 वोटों की बढ़त हासिल की थी।
भाजपा और आजसू के बीच लोकसभा चुनाव में तालमेल हुआ था, लेकिन विधानसभा चुनाव में दोनों के बीच तल्खी पैदा हो गयी थी। राज्यसभा चुनाव में दोनों के बीच की दूरियां खत्म हो चुकी हैं और झारखंड विधानसभा में एनडीए एक बार फिर एकजुट हो गयी है। लेकिन बेरमो में होनेवाला उपचुनाव इस एकजुटता की अग्नि परीक्षा लेगा। दोनों ही पार्टियां इस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं और अपनी-अपनी दावेदारी जता रही हैं। भाजपा के नेताओं का कहना है कि बेरमो में उनकी दावेदारी इसलिए स्वाभाविक तौर पर बनती है, क्योंकि 2005 और 2014 में यह सीट भाजपा ने जीती थी। आजसू ने पहली बार 2019 में यहां से चुनाव लड़ा और महज 16 हजार वोट ही ला सकी। दूसरी तरफ आजसू का कहना है कि लोकसभा चुनाव के समय उसके प्रत्याशी को बेरमो से सबसे अधिक वोट मिले थे और विधानसभा चुनाव में यदि भाजपा उम्मीदवार नहीं देती, तो यह सीट आजसू के पास आ सकती थी। इसलिए इस बार यहां से आजसू को मौका दिया जाना चाहिए। भाजपा के नेताओं का यह भी कहना है कि बेरमो के बारे में अभी कुछ तय नहीं हुआ है। उचित समय पर सही फैसला किया जायेगा।
इन दावों-प्रतिदावों के साथ ही यह तय हो गया है कि भाजपा और आजसू के बीच राज्यसभा चुनाव में सुधर गये रिश्ते बेरमो में क्या मोड़ लेते हैं। कुल तीन लाख छह हजार से कुछ अधिक वोटरों वाले बेरमो विधानसभा क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा कोयलांचल है। कोयला खदानों और वाशरियों के अलावा बिजली घर होने के कारण यहां श्रमिक मतदाताओं की संख्या निर्णायक है। इसलिए यहां श्रमिकों से जुड़े उम्मीदवार ही चुनाव जीतते हैं। उपचुनाव में यदि भाजपा और आजसू के बीच तालमेल हो जाता है और दोनों पार्टियां एकजुट होकर चुनाव मैदान में उतरती हैं, तो यह राज्य की राजनीति में नये अध्याय की शुरुआत होगी। लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ, तो झारखंड में एनडीए का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।
उधर बेरमो को लेकर कांग्रेस एक तरह से निश्चिंत नजर आ रही है। दिवंगत राजेंद्र प्रसाद सिंह के राजनीतिक उत्तराधिकारी कुमार जयमंगल सिंह उर्फ अनूप सिंह को टिकट मिलना लगभग तय हो चुका है। अब देखना यह है कि वह अपने पिता की राजनीतिक विरासत को सीधे मुकाबले में बचाते हैं या फिर उन्हें भी अपने पिता की तरह त्रिकोणीय मुकाबले की चुनौती से पार पाना होगा।
कुल मिला कर बेरमो उपचुनाव कई तरह के राजनीतिक समीकरण तय करेगा और उन समीकरणों से झारखंड की राजनीति की दिशा-दशा भी बहुत हद तक निर्धारित होगी। इसलिए महज एक उपचुनाव को राजनीतिक दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण और संवेदनशील कहा जा रहा है।