Close Menu
Azad SipahiAzad Sipahi
    Facebook X (Twitter) YouTube WhatsApp
    Tuesday, May 20
    • Jharkhand Top News
    • Azad Sipahi Digital
    • रांची
    • हाई-टेक्नो
      • विज्ञान
      • गैजेट्स
      • मोबाइल
      • ऑटोमुविट
    • राज्य
      • झारखंड
      • बिहार
      • उत्तर प्रदेश
    • रोचक पोस्ट
    • स्पेशल रिपोर्ट
    • e-Paper
    • Top Story
    • DMCA
    Facebook X (Twitter) Instagram
    Azad SipahiAzad Sipahi
    • होम
    • झारखंड
      • कोडरमा
      • खलारी
      • खूंटी
      • गढ़वा
      • गिरिडीह
      • गुमला
      • गोड्डा
      • चतरा
      • चाईबासा
      • जमशेदपुर
      • जामताड़ा
      • दुमका
      • देवघर
      • धनबाद
      • पलामू
      • पाकुर
      • बोकारो
      • रांची
      • रामगढ़
      • लातेहार
      • लोहरदगा
      • सरायकेला-खरसावाँ
      • साहिबगंज
      • सिमडेगा
      • हजारीबाग
    • विशेष
    • बिहार
    • उत्तर प्रदेश
    • देश
    • दुनिया
    • राजनीति
    • राज्य
      • मध्य प्रदेश
    • स्पोर्ट्स
      • हॉकी
      • क्रिकेट
      • टेनिस
      • फुटबॉल
      • अन्य खेल
    • YouTube
    • ई-पेपर
    Azad SipahiAzad Sipahi
    Home»Jharkhand Top News»लोकतंत्र के मंदिरों की खत्म होती पवित्रता
    Jharkhand Top News

    लोकतंत्र के मंदिरों की खत्म होती पवित्रता

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskSeptember 23, 2020No Comments5 Mins Read
    Facebook Twitter WhatsApp Telegram Pinterest LinkedIn Tumblr Email
    Share
    Facebook Twitter WhatsApp Telegram LinkedIn Pinterest Email

    झारखंड की पांचवीं विधानसभा के पहले मानसून सत्र के अंतिम दिन 22 सितंबर को जो कुछ हुआ, वह दो दिन पहले राज्यसभा में हुई घटना से बहुत अलग नहीं था। इन दोनों घटनाओं ने भारत की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है। यह सवाल उठ रहा है कि आखिर संसद और विधानसभा के भीतर सदस्य ऐसा आचरण क्यों कर रहे हैं। क्या संसदीय लोकतंत्र के मंदिर कही जानेवाली इन संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता खत्म हो रही है या फिर इनके सदस्यों के मन में इनकी मर्यादा को लेकर कोई भाव नहीं बच गया है। राज्यसभा में विपक्ष के जिस आचरण को गलत करार देते हुए लानत-मलानत की जाती है, वही आचरण झारखंड विधानसभा में दोहराया जाता है और सदस्य चुपचाप इसे देखते रहते हैं। संसद या विधानसभा में चुन कर आनेवाले लोग समाज को रास्ता दिखानेवाले होते हैं। उन पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी होती है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इसे लेकर कोई भी राजनीतिक दल संजीदा नहीं है। क्या भारत की राजनीति का इतना अधिक पतन हो गया है, यह सवाल आज सभी की जुबान पर है। संसद और विधानसभा के भीतर ऐसा आचरण कर हम कौन सी विरासत का निर्माण कर रहे हैं, इस पर गंभीरता से सोचना होगा। झारखंड विधानसभा में हुई घटना की पृष्ठभूमि में लोकतंत्र के मंदिरों की कम होती पवित्रता पर आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

    झारखंड की पांचवीं विधानसभा का पहला मानसून सत्र 22 सितंबर को समाप्त हो गया, लेकिन सत्र के अंतिम दिन सदन के भीतर जो कुछ हुआ, वह शर्मसार करनेवाला था। आसन की अवज्ञा और उसके साथ अनावश्यक सवाल-जवाब करते देखना-सुनना वाकई दुखदायी थी। फिर विपक्ष के एक विधायक को मार्शल की मदद से बाहर निकाले जाने की घटना का गवाह भी सदन बना। विधानसभा में विपक्ष का यह आचरण दो दिन पहले राज्यसभा में विपक्ष द्वारा किये गये व्यवहार की बरबस याद दिला गया।
    विधानसभा का मानसून सत्र तो खत्म हो गया, लेकिन इसने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। यह सवाल है कि क्या संसद और विधानसभाओं में विपक्ष का काम केवल हंगामा करना और आसन के साथ उलझने का रह गया है। क्या भारतीय राजनीति से रचनात्मक और सकारात्मक जैसे शब्द विलुप्त हो गये हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है और इसके जवाब के लिए तमाम राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करने की जरूरत है। राज्यसभा में विपक्ष के जिस आचरण की पूरे देश ने भर्त्सना की, उसी तरह का आचरण झारखंड में भी विपक्ष करे, तो इसकी भी भर्त्सना की जानी चाहिए। यह तो बड़ी अजीब सी बात है कि जो बात दिल्ली में गलत होती है, उसे झारखंड में सही ठहराया जाये।
    दरअसल, संसद और विधानसभाओं के भीतर मर्यादाओं की सीमाएं कई बार टूटती रही हैं। इन पर कभी किसी ने गंभीरता से नहीं सोचा। इसलिए अब ऐसी घटनाएं बार-बार होने लगी हैं। सदन के भीतर जूते-चप्पल और माइक तोड़ कर हथियार के रूप में उनका इस्तेमाल नयी बात नहीं है, लेकिन ऐसी घटनाओं से भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचा, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। 1952 से लेकर अब तक ऐसी अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं। हर घटना के बाद जहां राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करना चाहिए था, वहां ऐसे आचरण के बचाव में दल आ जाते हैं।
    लोकतंत्र के मंदिर कही जानेवाली इन संवैधानिक संस्थाओं के प्रत्येक सदस्य को यह बात समझ लेनी चाहिए कि उनका हर आचरण देश, राज्य और समाज के लिए एक नजीर होता है। वे केवल निर्वाचित जन प्रतिनिधि नहीं होते, बल्कि उनकी भूमिका इससे कहीं अधिक ऊपर होती है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सदन के भीतर जनहित के मुद्दों पर सार्थक बहस करेंगे, सत्ता पक्ष के साथ सकारात्मक विवाद कर ऐसी नीतियां बनायेंगे, जिन पर चल कर देश और समाज आगे बढ़ सके। सरकार की नीतियों का रचनात्मक विरोध करेंगे और उनमें व्याप्त खामियों को दूर कराने में सक्रिय भूमिका निभायेंगे। लेकिन इस शानदार अवधारणा को तोड़ने में सबसे आगे यही सांसद और विधायक नजर आ रहे हैं। हंगामा और अशिष्ट आचरण के कारण सदन की कार्यवाही में व्यवधान डालना विपक्ष का एकमात्र हथियार रह गया है।
    यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था के पतनशील होने का संकेत है। सांसदों-विधायकों से उम्मीद की जाती है कि वे विषय का अध्ययन करेंगे और पूरी तैयारी के साथ चर्चा में शामिल होंगे। लेकिन ऐसा कम ही देखने को मिलता है। इसलिए संसद या विधानसभा की कार्यवाही अब औपचारिकता मात्र रह गयी है। मीडिया में भी वे सुर्खियां तब बटोरती हैं, जब कुछ असामान्य होता है। यह खतरनाक स्थिति है। संसद और विधानसभाओं जैसी संस्थाओं की मर्यादा की रक्षा करने का सबसे बड़ा दायित्व उनके सदस्यों का होता है। इसका ध्यान उन्हें हमेशा रखना चाहिए। राजनीति तो उस सदन तक पहुंचने की एक सीढ़ी मात्र है। सांसदों-विधायकों को ध्यान रखना चाहिए कि उनका कोई भी आचरण समाज पर कितना विपरीत असर डाल सकता है। तो इसका विकल्प क्या हो सकता है। यदि सभी राजनीतिक दल अपने लिए मर्यादा की एक सीमा निर्धारित कर लें और सदन के भीतर के आचरण को लेकर एक नियम तैयार कर लें, तो इस समस्या से आसानी से छुटकारा मिल सकता है। किसी भी सांसद या विधायक के लिए वह नियम अनिवार्य और आवश्यक रूप से लागू हो, तभी सदन के भीतर की ऐसी घटनाओं से निजात मिल सकती है। अब समय आ गया है, जब सभी राजनीतिक दलों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए। इसमें एक दिन की भी देरी का मतलब भारत की शानदार संसदीय परंपराओं को तोड़ने के बराबर होगा। खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहनेवाला 130 करोड़ लोगों का यह देश अपने लोकतंत्र के मंदिरों की पवित्रता खत्म होने की इजाजत कतई नहीं दे सकता, क्योंकि उसने लाखों कुर्बानियां देकर इन मंदिरों का निर्माण किया है। यदि राजनीतिक दल इस बारे में नहीं सोचेंगे, तो फिर लोकतंत्र की सबसे बड़ी अदालत, यानी जनमत उन्हें या तो ऐसा करने पर मजबूर करेगी या फिर उन्हें राजनीति के हाशिये पर धकेल देगी। इस बात में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

    The sanctity of the temples of democracy ends
    Share. Facebook Twitter WhatsApp Telegram Pinterest LinkedIn Tumblr Email
    Previous Articleदीपिका-सारा-श्रद्धा के बाद ड्रग्स नेट में एक और बड़ी एक्ट्रेस
    Next Article नीतीश की तारीफें करते नहीं थक रहे मोदी
    azad sipahi desk

      Related Posts

      शराब घोटाले में तत्कालीन उत्पाद सचिव विनय चौबे व संयुक्त आयुक्त गजेंद्र सिंह अरेस्ट

      May 20, 2025

      आदिवासी विरोधी सरकार की टीएससी बैठक में जाने का कोई औचित्य नहीं : बाबूलाल मरांडी

      May 20, 2025

      जेपीएससी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर भर्ती के लिए इंटरव्यू 22 से

      May 20, 2025
      Add A Comment

      Comments are closed.

      Recent Posts
      • शराब घोटाले में तत्कालीन उत्पाद सचिव विनय चौबे व संयुक्त आयुक्त गजेंद्र सिंह अरेस्ट
      • आदिवासी विरोधी सरकार की टीएससी बैठक में जाने का कोई औचित्य नहीं : बाबूलाल मरांडी
      • जेपीएससी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर भर्ती के लिए इंटरव्यू 22 से
      • नये खेल प्रशिक्षकों की बहाली प्रक्रिया जल्द, प्राथमिक सूची तैयार
      • यूपीए सरकार ने 2014 में सरना धर्म कोड को किया था खारिज : प्रतुल शाह देव
      Read ePaper

      City Edition

      Follow up on twitter
      Tweets by azad_sipahi
      Facebook X (Twitter) Instagram Pinterest
      © 2025 AzadSipahi. Designed by Microvalley Infotech Pvt Ltd.

      Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.

      Go to mobile version