बिहार विधानसभा का चुनाव बेहद दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील माने जानेवाले हिंदी पट्टी के इस प्रमुख राज्य का चुनाव अब राष्ट्रीय दलों के बीच नहीं होकर जदयू और राजद के बीच का हो गया है, जिसमें एक तरफ की कमान 15 साल से सीएम रहे नीतीश कुमार हैं, तो दूसरी तरफ के सेनापति बिहार की सत्ता पर 15 साल तक काबिज रहे लालू-राबड़ी के पुत्र तेजस्वी यादव हैं। इन दोनों नेताओं की टक्कर में रोमांचक मोड़ इसलिए आया है, क्योंकि बिहार में जातीय राजनीति के दो कद्दावर नेता, लोजपा के चिराग पासवान और विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी इन दोनों के मुकाबिल हो गये हैं। सहनी का तेजस्वी से मोहभंग हो गया है, जबकि चिराग ने नीतीश का साथ छोड़ दिया है। इन दो नेताओं के अलग-अलग चुनाव मैदान में उतरने का सबसे अधिक लाभ भाजपा और उसके बाद कांग्रेस को होगा। इसलिए ये दोनों राष्ट्रीय दल इस चुनाव में सुरक्षित माने जा रहे हैं। चिराग पासवान का नीतीश से अलग होना भाजपा की दूरगामी राजनीति के लिए बेहद लाभदायक माना जा रहा है, क्योंकि उसके पास एक आॅटोमेटिक ‘प्लान बी’ आ गया है, जबकि सहनी का राजद के खिलाफ जाना कांग्रेस को थोड़ी मजबूती देगा। बिहार के इस दिलचस्प चुनावी परिदृश्य का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
चिराग पासवान ने आखिर बिहार में अलग रास्ता अख्तियार कर ही लिया। बिहार चुनाव में उन्होंने नीतीश कुमार का नेतृत्व मानने से इनकार करते हुए जदयू और लोजपा के बीच वैचारिक मतभेद को रेखांकित किया। इसके साथ ही उन्होंने राज्य की 142 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। चिराग की इस घोषणा ने बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनाव के पूरे परिदृश्य को रोमांचक मोड़ दे दिया है। इससे पहले विपक्ष के महागठबंधन से मुकेश सहनी की वीआइपी भी अलग हो चुकी है। सहनी ने राज्य की सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी उतारने की घोषणा की है। इन दोनों नेताओं के एलान के बाद अब यह साफ हो गया है कि बिहार में मुकाबला अब सीधा तो नहीं होगा।
इन दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों के एलान के बाद यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण हो गया है कि आखिर इससे लाभ किसको होगा। इस सवाल का जवाब तलाशना असंभव नहीं, तो कठिन जरूर है। जातीय समीकरणों पर लड़े जानेवाले बिहार चुनाव में चिराग पासवान और मुकेश सहनी का महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि ये अपने-अपने समुदाय के बड़े चेहरे माने जाते हैं। चिराग जिस दलित समुदाय से आते हैं, उसके करीब सात फीसदी मतदाता हैं और कम से कम 30 सीटों पर वे परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं। सहनी का मछुआरा समुदाय भी राज्य की दो दर्जन सीटों पर खासा प्रभाव रखता है। इसलिए माना जा सकता है कि यदि ये दोनों चुनाव जीत नहीं सके, तो नीतीश और तेजस्वी का खेल बिगाड़ जरूर सकते हैं। हालांकि नीतीश ने महादलित समुदाय के जीतन राम मांझी को दोबारा अपने साथ लाकर इस समुदाय को साधने की कोशिश जरूर की है, लेकिन रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और कोसी सीमांचल के दो कद्दावर नेताओं, जन अधिकार पार्टी के पप्पू यादव और उस इलाके में सवर्णों के नेता आनंद मोहन का साथ नहीं मिलने का असर अंतिम परिणाम पर जरूर पड़ेगा। कुशवाहा ने इस चुनाव में बसपा से हाथ मिलाया है। राज्य की कम से कम 20 सीटों पर बसपा का प्रभाव है। यहां दलित समुदाय का हरिजन वोट मायावती की पार्टी को शिफ्ट होता रहा है। मुकेश सहनी को भले ही चुनाव में अब तक कमाल दिखाने का मौका नहीं मिला है, लेकिन उनकी पार्टी ने सहनी मतदाताओं के एक हिस्से में अपनी पैठ जरूर बना ली है। बिहार की जो चुनावी तस्वीर अब उभरी है, उनमें कई समीकरण शुमार हो गये हैं। इनका सीधा नुकसान जदयू और राजद, दोनों को होता दिख रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि पप्पू यादव का एमवाइ समीकरण, उपेंद्र कुशवाहा का ओबीसी-दलित समीकरण, मुकेश सहनी का इबीसी समीकरण और जीतन राम मांझी का महादलित समीकरण किसी न किसी रूप में सत्ता के दोनों दावेदारों को कमजोर करेगा।
इसके साथ ही यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर चिराग और सहनी का जदयू और नीतीश से मोहभंग क्यों हुआ। दरअसल इन दलों के पिछले प्रदर्शन और हैसियत से बड़ी मांग के कारण गठबंधन के नेतृत्व करनेवाले दलों से तालमेल नहीं बैठ पाया। पहले महागठबंधन में शामिल जीतन राम मांझी, मुकेश सहनी और उपेंद्र कुशवाहा न केवल ज्यादा सीटें चाहते थे, बल्कि खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी बनाना चाहते थे। इसी तरह चिराग भी कई मांगों के साथ खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने की मांग कर रहे थे। वहीं जन अधिकार पार्टी के मुखिया पप्पू यादव महागठबंधन से 50 सीटों के साथ मुख्यमंत्री पद देने की मांग कर रहे थे। इन दलों की मांगों को पूरा करना न तो नीतीश के लिए संभव था और न ही तेजस्वी के लिए। इसलिए इनका साथ एक-एक कर छूटता गया।
हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों में सबसे अधिक ताकतवर चिराग पासवान ही हैं और जहां तक चुनावी सफलता की बात है, तो वह इसे लोकसभा चुनाव में साबित भी कर चुके हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि वह नीतीश के लिए बाधा बनते हैं या फिर भाजपा की मदद से सत्ता का वरण करते हैं। चिराग ने ‘बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट’ के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है। उनके अकेले लड़ने का नुकसान जहां नीतीश को होगा, वहीं भाजपा के पास उनके रूप में तुरुप का पत्ता बने रहेंगे। भाजपा को भविष्य में यदि कभी नीतीश से खतरा हुआ, तो उस स्थिति में चिराग की झोपड़ी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बन सकेगी। लोजपा ने साफ किया है कि वह भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार नहीं देगी। अगर ऐसा हुआ, तो इसका साफ मतलब होगा कि लोजपा और भाजपा में आपसी सहमति बन गयी है। ऐसे में जदयू निशाने पर होगा। इसी तरह सहनी जहां राजद का खेल बिगाड़ सकते हैं, वहीं कांग्रेस के सफर को आसान बना सकते हैं, क्योंकि मछुआरा समुदाय भंवर से निकलने के लिए हाथ का सहारा ले, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
इस तरह बिहार का चुनावी परिदृश्य रोमांचक हो गया है। 28 अक्टूबर और तीन तथा सात नवंबर को होनेवाले मतदान का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो अभी तय नहीं है, लेकिन कोरोना काल का यह चुनाव आनेवाले वर्षों की सियासी तस्वीर का रंग जरूर तय करेगा।
बिहार के रण में क्षेत्रीय क्षत्रपों की हुंकार
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