बिहार विधानसभा के चुनाव के पहले चरण के मतदान के ठीक पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लालू यादव-राबड़ी देवी के खिलाफ जो टिप्पणी की है, उसे राजनीतिक हलकों में आश्चर्य से देखा जा रहा है। नीतीश कुमार देश के एक गंभीर राजनेता माने जाते हैं और उन्हें राजनीति का चाणक्य भी कहा जाता है। नीतीश कुमार आम तौर पर अपने विरोधियों के लिए सस्ती टिप्पणी नहीं करते हैं। लेकिन अपने राज्य के इस चुनाव में वह जिस चक्रव्यूह में फंस गये हैं, उससे निकलने की जद्दोजहद ने उन्हें इस तरह की टिप्पणी के लिए मजबूर कर दिया है। इस विधानसभा चुनाव में यह पहला मौका नहीं है, जब नीतीश कुमार का चिड़चिड़ापन सार्वजनिक हुआ है। इससे पहले कम से कम तीन बार चुनावी सभाओं में अपने खिलाफ नारेबाजी कर रहे लोगों पर वह बुरी तरह झल्ला चुके हैं। नीतीश ने तो यहां तक कह दिया कि वोट नहीं देना है, तो मत दो, लेकिन बाधा मत बनो। लगातार चौथी बार सत्ता हासिल करने के लिए चुनाव मैदान में उतरे एक राजनेता के लिए इस तरह की भाषा राजनीतिक हलकों में यह सवाल पैदा करती है कि क्या यह व्यवहार आत्मविश्वास डोलने का संकेत है। नीतीश की यह भाषा न केवल उनके और जदयू के लिए, बल्कि भाजपा की राह को भी मुश्किल बना सकती है। नीतीश के बदले सुर के कारणों और संभावित असर का आकलन करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
बिहार में विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के ठीक पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के परिवार के बारे में जो टिप्पणी की है, उसे राजनीतिक हलकों में अच्छी नजरों से नहीं देखा जा रहा है। नीतीश कुमार को चुनौती दे रहे लालू के पुत्र तेजस्वी यादव ने जरूर इसका जवाब दिया है, लेकिन अब यह साफ हो गया है कि इस तरह की टिप्पणी कर नीतीश कुमार खुद ही विवादों में घिर गये हैं। दरअसल नीतीश कुमार को अब लगने लगा है कि उनकी राह दिनों-दिन कुछ ज्यादा ही कठिन होती जा रही है।
वह समझ गये हैं कि लगातार चौथी बार बिहार की सत्ता हासिल करने का रिकॉर्ड बनाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
नीतीश कुमार को नजदीक से जाननेवाले कहते हैं कि वह इस तरह की चुनौतियों का सामना करने के अभ्यस्त नहीं हैं और दबाव में वह टूटने लगते हैं। नीतीश कुमार ने अब तक सारे काम अपनी मर्जी से किया-कराया है। भाजपा के साथ सीटों का बंटवारा हो या फिर जदयू उम्मीदवारों के नाम पर मुहर लगाने की बात हो, मुश्किलें तो आती रहीं, लेकिन नीतीश आगे बढ़ते रहे। लेकिन मतदान का दिन नजदीक आने के साथ ही नीतीश कुमार चौतरफा घिरे हुए नजर आने लगे हैं। इसके कारण उनकी झल्लाहट और चिड़चिड़ापन बाहर आने लगा है। वह समझ गये हैं कि उनकी स्थिति 2015 जैसी तो अब कतई नहीं है। इसलिए एक गंभीर राजनेता का चिड़चिड़ा स्वभाव लोगों के सामने आने लगा है। इसलिए वह अपने विरोध में होनेवाली किसी भी गतिविधि को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान शायद ही कोई नेता यह कहने की हिम्मत जुटा सकता है कि ‘चुप रहिये… आप जिस पार्टी से आये हैं, उसका बुरा हाल होने वाला है। वोट नहीं देना है, तो मत दीजिये, लेकिन शांत रहिये।
बिहार की राजनीति को जाननेवाले समझ रहे हैं कि नीतीश कुमार अपना धैर्य क्यों खो रहे हैं। दो युवा नेताओं, तेजस्वी यादव और चिराग पासवान की चुनौतियों से घिरे नीतीश के लिए अब आरोपों का जवाब देना मुश्किल हो रहा है। लगातार 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे नेता के लिए विरोधियों पर सवाल उठाना उचित नहीं माना जाता। इसलिए नीतीश की तरकश में यह तीर पहले से ही कम है। उनकी सरकार के कामकाज को लोगों ने देखा है, तो सवाल उठना स्वाभाविक ही है।
नीतीश को जाननेवाले कहते हैं कि वह अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसलिए अपने विरोधियों को वह अक्सर कटु भाषा में जवाब देते हैं। लेकिन नीतीश यह भूल रहे हैं कि उनकी कड़वी बातों का जवाब आखिर में जनता ही देगी।
नीतीश कुमार यह भी भूल रहे हैं कि यह 2015 नहीं है, जब उनका मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से हुआ था। आज जो उन्हें तेजस्वी यादव और चिराग पासवान जैसे नौसिखियों से जूझना पड़ रहा है। तमाम विरोधों के बावजूद लालू और रामविलास के साथ उनकी तल्खी ऐसी नहीं थी। 2015 में एजेंडा नीतीश सेट कर रहे थे और जवाब भाजपा को देना पड़ रहा था। लेकिन इस बार इस मोर्चे पर नीतीश पिछड़ते नजर आ रहे हैं।
नीतीश कुमार को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह एक शानदार रिकॉर्ड के मुहाने पर खड़े हैं। लगातार चार बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड हिंदी पट्टी के किसी भी राज्य में अब तक कोई नहीं बना सका।
पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और गुजरात को छोड़ दें, तो अब तक कोई भी नेता का ट्रैक रिकॉर्ड इतना शानदार नहीं रहा। मध्यप्रदेश में बेशक शिवराज सिंह चौहान भाजपा की चौथी सरकार चला रहे हैं, मगर उन्हें चुनावी जनादेश नहीं मिला था। बिहार में नीतीश से पहले लालू-राबड़ी की राजद सरकार ने 1990 से 2005 तक लगातार तीन जीत हासिल की, लेकिन चौथी पारी के जनादेश से वे बहुत पीछे रह गये।
ऐसे में नीतीश कुमार के बिगड़े बोल उनकी चुनावी संभावनाओं को ही खतरे में डाल रही है। यहां यह भी ध्यान देने लायक बात है कि नीतीश केवल जदयू के नेता नहीं हैं, बल्कि उनके कंधे पर एनडीए की जिम्मेवारी भी है। ऐसे में उनका हर कदम भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर भी असर डालेगा। भाजपा अब तक नीतीश के साथ मजबूती से खड़ी है, हालांकि राजनीतिक दांव-पेंच और चुनाव बाद के संभावित समीकरणों पर भी चर्चा होने लगी है। इसलिए नीतीश को अब हर कदम फूंक-फूंक कर रखना चाहिए, क्योंकि चुनाव मैदान का निर्णायक जनमत ही होता है। नीतीश खुद एक आंदोलन की उपज हैं और वह यह बात अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए लोग उनसे बेहतर भाषा और व्यवहार की उम्मीद करते हैं।