कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए लागू किये गये तीन कानूनों के खिलाफ किसानों का 10 दिन पुराना आंदोलन लगातार बढ़ता जा रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार के साथ पांच दौर की बातचीत का कोई परिणाम नहीं निकला है और पंजाब से शुरू हुई आंदोलन की आग देश के दूसरे हिस्सों में फैल गयी है। राजधानी दिल्ली को घेर कर बैठे किसान अब मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गये हैं। पिछले साढ़े छह साल से केंद्र की सत्ता पर बैठी भाजपा के किसी फैसले के खिलाफ पहली बार इस स्तर का आंदोलन हो रहा है और इसकी तपिश अब सत्ता शीर्ष तक महसूस की जाने लगी है। केंद्र सरकार की तमाम गंभीरताओं के बावजूद भाजपा के कुछ बयानवीर नेताओं के कारण समस्या और गहरी हो रही है। ये बयानवीर नेता कभी इस आंदोलन को पंजाब के सिखों का आंदोलन करार देते हैं, तो कभी खालिस्तानियों और राष्ट्रविरोधी बताने लगते हैं। इससे खाई चौड़ी हो रही है। भाजपा को समझना होगा कि प्रकाश सिंह बादल और सुखदेव सिंह ढींढसा सरीखे अकाली नेताओं ने भी किसानों का समर्थन किया है, जो कभी भाजपा के विश्वस्त सहयोगी थे। कृषि कानूनों के मुद्दे पर पहले ही भाजपा अलग-थलग पड़ चुकी है और अकाली दल समेत एनडीए के अधिकांश सहयोगी इसका साथ छोड़ चुके हैं। ऐसे में इस तरह के बयानों से भाजपा को ही नुकसान उठाना पड़ सकता है। किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में भाजपा के सामने उभरी नयी चुनौतियों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
पिछले साढ़े छह साल से देश पर राज कर रही भाजपा के लिए 10 दिन पुराना किसान आंदोलन अब दु:स्वप्न बन गया है। कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए दो महीने पहले लागू किये गये कानूनों के खिलाफ पंजाब से शुरू हुआ किसानों का आंदोलन अब देश के दूसरे हिस्सों में फैल गया है और 2019 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कॅरियर की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
पिछले 10 दिन से दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसान किसी भी सूरत में पीछे हटने को तैयार नहीं हैं और सरकार के साथ पांच दौर की बातचीत के बाद भी आंदोलन लगातार जारी है। किसानों की एक ही मांग है कि इन तीनों कानूनों को रद्द किया जाये।
सियासी तौर पर किसान आंदोलन के कारण भाजपा अलग-थलग पड़ती जा रही है। इसका सबसे प्रमुख कारण पार्टी के बयानवीर नेता हैं। किसानों के दिल्ली कूच करने और बाद में उनके आंदोलन के खिलाफ इन नेताओं ने जिस तरह की बयानबाजी की, उससे मामला उलझता चला गया। भाजपा के इन नेताओं ने इस आंदोलन की व्यापकता और इसके असर को भांपने में भारी भूल कर दी है। पहले पार्टी ने इस आंदोलन को महज पंजाब का आंदोलन समझ लिया और उसे लगा कि वह इसे खत्म करा देगी। हरियाणा में चूंकि भाजपा की सरकार है, इसलिए पार्टी नेताओं को पूरा भरोसा था कि वहां के किसान इस आंदोलन में शामिल नहीं होंगे। यूपी के किसानों के बारे में भी उसकी यही राय बनी और यह बड़ी चूक साबित हो रही है। दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसान अब राज्यों और समुदाय की सीमाओं को तोड़ चुके हैं। वे सभी एकजुट हो गये हैं, जिसमें पंजाब के किसान हैं, तो तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश से भी किसानों का जत्था शामिल हो गया है। हिंदी पट्टी के साथ-साथ देश के दूसरे हिस्सों के किसानों की इसमें सक्रिय भागीदारी हो गयी है।
भाजपा से दूसरी चूक अपने बयानवीर नेताओं पर लगाम नहीं लगाने के कारण हुई। किसानों के आंदोलन को खालिस्तान और देशद्रोहियों का आंदोलन बताने की खूब कोशिश हुई। कभी उसे शाहीनबाग के आंदोलन से जोड़ा गया, तो कभी उसे राष्ट्रीय अस्मिता को नुकसान पहुंचानेवाला बता दिया गया। ऐसा करते समय भाजपा के ये बयानवीर नेता और उनके समर्थक यह भूल गये कि इस आंदोलन को उस अकाली दल का भी समर्थन मिल रहा है, जिसके नेता प्रकाश सिंह बादल की इज्जत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करते हैं।
सुखदेव सिंह ढींढसा जैसे नेता भी इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं और राकेश सिंह टिकैत जैसे किसान नेता आंदोलन को लेकर सड़कों पर हैं। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि भारतीय सेना के जांबाज सिपाहियों के माता-पिता भी किसान हैं और पंजाब के किसानों की संतानें दुनिया भर में फैली हुई हैं। इसलिए यदि किसान सड़कों पर उतरता है, तो उसकी अनुगूंज दुनिया भर में सुनाई देगी।
भाजपा और केंद्र सरकार से तीसरी और अंतिम चूक यह हुई कि उसने इस आंदोलन की व्यापकता को नहीं समझा। सरकार और पार्टी को यह समझा दिया गया कि यह महज एक सियासी आंदोलन है और विपक्ष की ओर से शुरू किया गया है।
लेकिन हकीकत इसके विपरीत थी। यह आंदोलन केवल किसानों का है और किसी भी राजनीतिक दल का इसमें हस्तक्षेप नहीं हो रहा है। किसान अब तक इसे गैर-राजनीतिक आंदोलन बनाये रखने में सफल रहे हैं और राजनीतिक दल केवल समर्थक की ही भूमिका में नजर आ रहे हैं। भाजपा सियासी रूप से अब भी देश की सबसे लोकप्रिय पार्टी है और उसके पास बहुमत है, इस बात में किसी को संदेह नहीं है। लेकिन इस बहुमत के आधार पर वह एकजुट किसानों को अपने साथ मिला लेगी, इस बात की संभावना लगातार कम होती जा रही है।
मोदी सरकार के साढ़े छह साल के कार्यकाल के किसी भी बड़े फैसले के खिलाफ इतना बड़ा आंदोलन नहीं हुआ था। मोदी सरकार को अब तक ऐसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा था। नोटबंदी, जीएसटी, धारा 370 और सीएए-एनआरसी जैसे बड़े फैसलों के खिलाफ भी इतना बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। इसलिए भाजपा के भीतर बेचैनी स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के तमाम बड़े नेता इस पेंच को सुलझाने में लगे हुए हैं, लेकिन मामला कुछ बयानवीर नेताओं के कारण उलझ रहा है। इसलिए भाजपा को ऐसे नेताओं पर तत्काल लगाम लगाने की जरूरत है, ताकि किसानों के साथ उसकी बढ़ती दूरी को कम किया जा सके। यह काम केवल भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ही कर सकता है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो किसान आंदोलन से पार्टी को बड़ा सियासी नुकसान उठाना पड़ सकता है।