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    Home»विशेष»कहानी कारगिल फतह के सुपर हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा की
    विशेष

    कहानी कारगिल फतह के सुपर हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा की

    azad sipahiBy azad sipahiAugust 24, 2021No Comments13 Mins Read
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    अदम्य साहस: सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहराया था परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विक्रम बत्रा ने

    26 जुलाई 1999 का दिन भला कोई भारतीय कैसे भूल सकता है। यह दिन तो पाकिस्तान भी कभी नहीं भूलेगा, जब भारतीय रणबांकुरों ने पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ते हुए कारगिल की पहाड़ियों पर तिरंगा लहराया था। जम्मू-कश्मीर के कारगिल जिले की ऊंची चोटियों पर पाकिस्तानी सैनिकों और घुसपैठियों को मुंहतोड़ जवाब देने में जुटे भारतीय जांबाजों के सामने कई तरह की मुश्किलें थीं। पाकिस्तानी सैनिक 17 हजार फीट ऊंची पहाड़ियों पर अभेद्य बंकर बना कर बैठे थे। लेकिन हमारे जवानों ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया और जांबाजी से युद्ध लड़ते हुए दुश्मनों को खदेड़ दिया। स्थानीय चरवाहों के जरिये घुसपैठ की जानकारी मिलने पर भारतीय सेना ने 3 मई 1999 को आॅपरेशन विजय की शुरूआत की थी। उस वक़्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था: हम शांति चाहते हैं, ये तो दुनिया ने देखा, अब दुनिया ये देखेगी कि हम शांति की रक्षा के लिए अपनी शक्ति का भी प्रदर्शन कर सकते हैं।

    कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर करीब 60 दिनों तक चले इस युद्ध में भारतीय सेना के जज्बे के सामने पाकिस्तानी सैनिकों ने घुटने टेक दिये। वे वहां से खदेड़े गये। हालांकि इस युद्ध में भारत के 562 जवान शहीद हुए और 1363 जवान घायल हुए थे। वहीं पकिस्तान के लगभग 1200 सैनिकों की इस जंग में मौत हुई। 26 जुलाई 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस युद्ध में भारत की जीत का ऐलान किया था। तब से हर साल 26 जुलाई को भारत विजय दिवस के रूप में मनाता है। इसी कारगिल युद्ध के दौरान अपने अदम्य साहस का परिचय देनेवाले नायकों में से एक नायक थे कैप्टन विक्रम बत्रा। आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह परमवीर चक्र से सुशोभित कैप्टन विक्रम बत्रा के 25 साल की जीवन यात्रा की कहानी आपके सामने रख रहे हैं, जिन्होंने मात्र तीन वर्ष से भी कम समय की अपनी सर्विस के दौरान वह कारनामा कर दिखाया, जिससे वह हमेशा के लिए अमर हो गये।

    कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम गिरधारी लाल बत्रा, जो एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल थे और माता का नाम कमल कांता बत्रा। वह स्कूल में शिक्षक थीं। कैप्टन विक्रम बत्रा दो भाई और दो बहन थे। दोनों भाई जुड़वा थे। दूसरे भाई का नाम विशाल है। विक्रम बत्रा विशाल से 14 मिनट बड़े थे। कैप्टन विक्रम बत्रा की दो बहनें, जिनका नाम सीमा और नूतन है। विक्रम और विशाल दोनों भाइयों ने आर्मी में जाने का सपना साथ में देखा था। विक्रम बत्रा का रुझान टेबल टेनिस खेल की तरफ भी बहुत था। उन्होंने 1990 में टेबल टेनिस खेल में अपने स्कूल का नेशनल लेवल पर प्रतिनिधित्व भी किया था। मार्शल आर्ट्स का भी उन्हें बहुत शौक था। वह ग्रीन बेल्ट थे। विक्रम बत्रा बचपन से ही यारों के यार थे। उनमें शुरू से ही लीड करने की आदत थी। कभी भी कुछ हो, वह तुरंत आगे बढ़-चढ़ कर हर कार्य में भाग लिया करते थे। वह बहिर्मुखी स्वभाव के थे मतलब हर चीज मुंह पर बोल दिया करते थे। वह बहुत ही जिंदादिल इंसान थे। 1988 में एक बहुत ही चर्चित सीरियल आया करता था, जिसका नाम था परमवीर चक्र। इसी सीरियल से प्रभावित होकर विक्रम और विशाल दोनों ने आर्मी में जाने का मन बना लिया। उन्हें आर्मी की लाइफ स्टाइल बहुत प्रभावित कर रही थी, क्योंकि उन्हें लगा कि यह कुछ अलग है। विक्रम बत्रा और उनके भाई ने केंद्रीय विद्यालय पालमपुर में आठवीं कक्षा में एडमिशन लिया। वह विद्यालय सेना की छावनी के बीचोंबीच था। उनकी आंखों के सामने हमेशा सैनिक ही दिखाई पड़ते थे। आर्मी की बाइक्स, गाड़ियां, हर तरफ उनकी आंखों के सामने सेना से जुड़ा रंग ही दिखाई पड़ता था। उन पांच-छह सालों के दौरान जो भी उनके दोस्त भी बने, वे आर्मी से जुड़े जवानों के बच्चे ही थे। उन्हें वहीं से लगने लगा कि आर्मी में उनका भविष्य बहुत अच्छा रहेगा। बहुत अच्छा करियर बन सकता है। फिर स्कूली शिक्षा के बाद विक्रम बत्रा ने ग्रेजुएशन के लिए डीएवी कॉलेज सेक्टर 10 चंडीगढ़ में दाखिला लिया। फिर वहीं से डिफेंस में जाने के लिए तैयारी भी शुरू हुई। दोनों भाइयों ने एक साथ डिफेंस का पहला रिटेन एग्जाम क्लियर किया। विक्रम बत्रा ने पहले ही प्रयास में अपना इंटरव्यू भी निकाल लिया। उनका इंटरव्यू इलाहाबाद सेंटर में हुआ था, लेकिन उनके भाई विशाल इंटरव्यू नहीं निकाल पाये। विक्रम के इंटरव्यू निकालते ही ये दिल मांगे मोर वाली उनकी लाइफ छलांगें मारने लगीं। आर्मी लाइफ की उनकी शुरूआत अब हो चुकी थी। जून 1996 में विक्रम ने इंडियन मिलिट्री अकादमी देहरादून में प्रवेश किया। डेढ़ साल की ट्रेनिंग के बाद 6 दिसंबर 1997 को विक्रम बत्रा को 13 बटालियन जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स के लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना में कमीशन किया गया।

    1 जून, 1999 को अपनी यूनिट के साथ लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा ने दुश्मन सेना के खिलाफ मोर्चा संभाला। प्रारंभिक तैनाती के साथ लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा ने हम्प और रॉक नाब की चोटियों पर कब्जा जमा कर दुश्मन सेना को मार गिराया था। प्वॉइंट 5140 को कब्जा करने की जिम्मेदारी दी गयी थी लेफ्टिनेंट कर्नल योगेश कुमार जोशी को। इसके बाद पहाड़ पर अलग- अलग दिशा से चढ़ाई करने के लिए जवानों की दो टुकड़ी बनायी गयी। एक टुकड़ी का नेतृत्व लेफ्टिनेंट संजीव सिंह जामवाल कर रहे थे और दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा। लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा का युद्ध के दौरान कोड नेम था शेरशाह। दोनों लेफ्टिनेंट से कहा गया कि अगर वे मिशन को सफलतापूर्वक हासिल करते हैं, तब वह जीत का क्या सिग्नल देंगे। तब लेफ्टिनेंट संजीव ने कहा कि वह कहेंगे ओ या या या और लेफ्टिनेंट बत्रा ने कहा, वह कहेंगे ये दिल मांगे मोर। दोनों लेफ्टिनेंटों को श्रीनगर-लेह मार्ग के बेहद करीब स्थिति पॉइंट 5140 को दुश्मन सेना से मुक्त करवा कर भारतीय ध्वज फहराने की जिम्मेदारी दी गयी। विक्रम बत्रा उस वक़्त डेल्टा कंपनी के कमांडेंट थे और उनके नेतृत्व में उनकी टीम पॉइंट 5140 को हासिल करने के लिए 19 जून 1999 की रात को चढ़ाई पर निकल पड़ी। इस टारगेट को हासिल करने का मतलब था पाकिस्तानी सेना के मनोबल को नेस्तनाबूद कर देना। कैप्टन विक्रम बत्रा और उनकी टीम ने अपने अद्भुत युद्ध कौशल और बहादुरी का परिचय देते हुए 20 जून 1999 की सुबह करीब 3:30 बजे इस प्वाइंट पर कब्जा जमा लिया था। वहां पर पाकिस्तानी सेना से गोली बम के बीच विक्रम बत्रा ने दो दो हाथ भी किये और कइओं को मार गिराया। यह युद्ध नीति के हिसाब से भारत की सबसे बड़ी जीत थी, क्योंकि ये कारगिल का सबसे ऊंचा पॉइंट था। चढ़ाई सीधी थी और यहीं ऊपर छिपे बैठे घुसपैठिए सैनिकों पर डायरेक्ट हमला कर गोलियां और बम बरसा रहे थे। कैप्टन बत्रा ने पाकिस्तानियों के बंकरों को उड़ाकर तिरंगा फहराते हुए उस वक़्त के कर्नल जोशी, जिन्होंने उन्हें मिशन पर भेजा था, अपना जीत का सिग्नल देते हुए कैप्टन बत्रा ने जीत का कोड बोला था- ये दिल मांगे मोर। यह दुर्गम क्षेत्र मात्र एक चोटी ही नहीं थी, यह करोड़ों देशवासियों के सम्मान की चोटी थी। उनका रेडियो से विजयी उद्घोष ‘ये दिल मांगे मोर….जैसे ही देशवासियों को सुनाई दिया, हर एक भारतीय की नसों में ऐसा जज्बा भर गया कि हर एक की जुबान ये दिल मांगे मोर… ही कह रही थी।  24 साल के विक्रम ने उस वक़्त जब कहा था कि ये दिल मांगे मोर, तब बहुत से लोगों को हैरानी हुई थी कि इतनी छोटी सी उम्र में इतना बड़ा स्टेटमेंट कोई कैसे दे सकता था। शायद कैप्टन बत्रा की जिंदगी जीने का यही फलसफा था। लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा की इस सफलता के इनाम के तौर पर सेना मुख्यालय ने उनकी पदोन्नति कर तत्काल प्रभाव से कैप्टन बना दिया था।

    कैप्टन विक्रम बत्रा इस मिशन के बाद रुके नहीं। उनके जेहन में कहीं न कहीं ये चल रहा था कि मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है। अभी तो युद्ध चल ही रहा है। विक्रम बत्रा प्वॉइंट 5140 का मिशन पूरा कर नीचे की ओर अपने बेस कैंप में आये थे, जहां पर उनका एक हफ्ते का रेस्ट था। उसके बाद 5 जुलाई 1999 को विक्रम बत्रा को दूसरा मिशन दिया गया। वह मिशन था प्वॉइंट 4875 को हासिल करना। यह प्वॉइंट कारगिल युद्ध में बहुत ही महत्वपूर्ण था, क्योंकि इस प्वॉइंट से श्रीनगर लेह हाइवे बहुत ही साफ दिखाई पड़ता था। ये प्वॉइंट बहुत ही खतरनाक और कठिन था। विक्रम बत्रा प्वॉइंट 4875 के लिए चल दिये, जो समुद्र तल से 17 हजार फीट की ऊंचाई पर था। इस प्वॉइंट पर कब्जा जमाना भारतीय सेना के लिए स्ट्रैटिजीकली बहुत ही अहम था। 5 जुलाई को विक्रम बत्रा अपनी टीम के साथ इस पॉइंट की ओर बढ़े। 6 जुलाई की रात पाकिस्तानी सेना और भारतीय सेना में क्रॉस फायरिंग चल रही है। बम के गोले भी फेंके जा रहे थे। पाकिस्तानी सेना पहाड़ के ऊपरी हिस्से में थी और पहाड़ सीधा था, जिससे पाकिस्तानी सेना संख्या दिखाई नहीं पड़ रही थी। तभी विक्रम के जूनियर, जिनका नाम था नवीन नागप्पा, पूरे अटैकिंग मोड में थे और बहुत ही शानदार तरीके से दुश्मनों पर प्रहार कर रहे थे। तभी कोई शेल नवीन नागप्पा के पैर के पास आ गिरा और वह बुरी तरह से घायल हो गये। विक्रम बत्रा को जब पता चला कि नवीन बुरी तरह से घायल हो चुके हैं, तब उन्होंने जान पर खेल कर अपने सहयोगी नवीन को अपने कब्जेवाली बंकर की ओर लाये। विक्रम बत्रा के साथ एक और उनके सहयोगी थे। उन्होंने उन्हें आगाह किया कि पाकिस्तानी सेना ताबड़तोड़ गोलीबारी कर रही है। हमें थोड़ा सावधान रहने की जरूरत है। लेकिन विक्रम बत्रा उस वक़्त क्लियर थे कि अगर हम अभी इस पॉइंट को खाली नहीं करा पाये, तब यह पॉइंट हमारे हाथ से निकल सकता है। विक्रम बत्रा ने अपने साथी जवान को कहा कि आप परिवारवाले हैं। आप यहीं रुकिये मैं देखता हूं। उसके बाद कैप्टन विक्रम बत्रा फायरिंग करते बाहर की ओर निकले। पाकिस्तानी सेना ऊपर की ओर थी। वहां तक पहुंचने के लिए विक्रम बत्रा को कूद कर जाना था। उन्होंने वैसा ही किया। वह झोंक के पक्के थे, निकल गये तो निकल गये। उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों पर हमला कर कई पाकिस्तानी सैनिकों को हाथ से ही प्रहार कर मार गिराया। ठीक उनके नजदीक एक ओर बंकर था, वहां से एक गोली निकली और विक्रम बत्रा के सीने से आ टकरायी। विक्रम वहीं जमीन पर गिर गये, लेकिन उन्होंने फायरिंग करना नहीं छोड़ा। फिर दूसरी ओर से एक और गोली विक्रम के पेट को चीरते निकल गयी और कैप्टन विक्रम बत्रा वहीं शहीद हो गये। लेकिन उन्होंने दुश्मनो को नुकसान तो पहुंचा ही दिया था। जब साथी जवानों को पता चला कि उनके कमांडर विक्रम बत्रा नहीं रहे, तब बाकी अन्य सीनियर आॅफिसर्स ने रणनीति के तहत अगले एक दिन के अंदर ही पॉइंट 4875 पर हमला बोल दिया और 13 जम्मू और कश्मीर राइफल्स ने अपना तिरंगा प्वॉइंट 4875 पर लहरा दिया। 7 जुलाई 1999 को कैप्टन विक्रम बत्रा शहीद हुए और उन्हें 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
    विक्रम बत्रा के कमांडिंग आॅफिसर, कारगिल की जंग में यादगार जीत हासिल करनेवाली बटालियन 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स के सीओ कर्नल जोशी के पास आज भारतीय सेना की नॉर्दर्न कमांड की जिम्मेदारी है। अब वह मेजर जनरल जोशी हैं। 21 साल के बाद उन्होंने सुखोई पर सवार होकर आसमान से टाइगर हिल की उस चोटी पर फूल बरसाये, जिसे आज बत्रा टॉप के नाम से जाना जाता है।

    कैप्टन विक्रम बत्रा और डिंपल की प्रेम कहानी
    विक्रम बत्रा और डिंपल चीमा की मुलाकात पहली बार पंजाब यूनिवर्सिटी में हुई थी। वे दोनों एमए की पढाई कर रहे थे। लेकिन दोनों ने पढ़ाई पूरी नहीं की। डिंपल कहती हैं कि ये किस्मत ही थी, जिसने दोनों को मिलाया था और दोनों एक दूसरे के अभिन्न हिस्सा बन गये। डिंपल जब भी दोनों के रिश्तों को लेकर घबराती थीं, विक्रम उनसे कहते टेक केयर टू गेट व्हाट यू लाइक, और यू विल बी फोर्स्ड टू लाइक व्हाट यू गेट। मतलब उसे हासिल करने की चिंता करो, जो तुम्हे पसंद है नहीं तो जबरदस्ती उसे पसंद करना पड़ेगा, जो तुम्हे नहीं चाहिए। उनकी कही गयी उस बात का आज भी डिंपल पालन करती हैं।

    डिंपल चीमा और विक्रम बत्रा अकसर मनसा देवी मंदिर और गुरुद्वारा नाडा साहिब जाते रहते थे। एक बार जब दोनों गुरुद्वारा की परिक्रमा कर रहे थे, उस वक़्त विक्रम डिंपल के पीछे चल रहे थे। उन्होंने डिंपल के दुपट्टे को पकड़ा हुआ था। परिक्रमा खत्म होने के बाद विक्रम ने डिंपल को कहा, बधाई हो मिसेस बत्रा। डिंपल को प्यारी सी मुस्कान देते विक्रम ने कहा था कि तुम्हें याद है यह चौथी बार हम परिक्रमा कर रहे हैं। एक और मशहूर किस्सा है। डिंपल ने विक्रम को कहा था कि वह उनसे शादी करना चाहती हैं, क्योंकि उनके मन में असुरक्षा का भाव उत्पन्न हो रहा था। तभी बिना कुछ कहे विक्रम ने अपने पर्स से ब्लेड निकाल अपनी उंगली को हल्का काट, खून से डिंपल की मांग भर दी थी। इसके बाद डिंपल उन्हें कहती थीं कि वे पूरा फिल्मी हैं।

    डिंपल बताती हैं कि विक्रम एक ऐसे इंसान थे, जो हमेशा कुछ न कुछ करते ही रहते थे। कभी शांत नहीं बैठते। अगर वह कोई रेस्टोरेंट जाते और खाना के आने का इंतजार करते तो टेबल पर उंगलियों की थाप देते रहते। रोकने से फिर पैर हिलाने लगते और अगर घूर कर उन्हें देखती, तब वह पानी पीने लगते, मानो सदियों से प्यासे हों। डिंपल कहती हैं कि उनकी इसी आदत को याद करते वह सोचती हैं कि जब वह कारगिल युद्ध पर गये होंगे, तब उनके दिमाग में क्या चल रहा होगा। वह बिल्कुल बचैन होंगे कि कब वह युद्ध करने जायें। कब अपने मिशन को पूरा करें। दोनों ने फैसला किया था कि कारगिल युद्ध के बाद दोनों शादी कर लेंगे। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में शहीद हो गये। उसके बाद डिंपल चीमा ने शादी नहीं की और उनको याद करते अपनी जिंदगी गुजार रही हैं। डिंपल कहती हैं अपने चार साल के रिलेशनशिप में मुझे जिंदगी भर की यादें मिल गयीं। आज भी एक दिन भी ऐसा नहीं है, जब मैं उनसे जुड़ा महसूस नहीं करती हूं। मुझे बहुत गर्व होता है जब लोग विक्रम की उपलब्धि के बारे में बात करते हैं। लेकिन दिल के किसी कोने में अफसोस भी होता है कि वह अपनी उपलब्धि को देखने के लिए जीवित होते। अपनी शौर्य गाथा को सुनने के लिए जीवित होते कि कैसे आज वह भारत के नौजवानों के प्रेरणा हैं। मैं दिल से जानती हूं कि हम कभी न कभी जरूर मिलेंगे, बस ये कुछ समय की बात है।

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