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    Home»Breaking News»हर बार हार का यही फसाना, हर बार विपक्ष खोज लेता है नया बहाना
    Breaking News

    हर बार हार का यही फसाना, हर बार विपक्ष खोज लेता है नया बहाना

    azad sipahiBy azad sipahiMarch 13, 2022No Comments6 Mins Read
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    यूपी समेत पांच राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित हो गये हैं और इससे एक बार फिर साबित हो गया है कि ‘ब्रांड मोदी’ का जादू दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मानस पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो गया है। लेकिन इस चुनाव परिणाम ने कांग्रेस के जिस पराभव और समाजवादी पार्टी-बसपा के जिस खोखलेपन को उजागर किया है, वह अगले कई दिनों तक गहन विश्लेषण का विषय बना रहेगा। इन चुनाव परिणामों के बाद पिछले आठ साल से भारत में होनेवाले लगभग हरेक चुनाव परिणाम के विश्लेषण के दौरान गढ़ी जानेवाली कहानी और हारनेवाली पार्टियों की बहानेबाजी बेहद रोचक और उनके अंदरूनी खोखलेपन की कहानी को खुद-ब-खुद जनता के सामने रख देती है। भाजपा, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का गौरव हासिल है, और दूसरी पार्टियों में यही बुनियादी फर्क है कि यह पार्टी चुनावी सफलताओं पर घमंड नहीं करती है और हार पर अरण्य रोदन से भी बचती है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, बिहार और बंगाल के चुनावों के बाद भाजपा का यह चरित्र सामने आया था, लेकिन वहीं दूसरी पार्टियां कभी इवीएम, तो कभी जातीय समीकरण, कभी प्रशासनिक चूक, तो कभी बागियों को अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। 140 करोड़ लोगों का यह देश आज राजनीति के जिस आक्रामक दौर से गुजर रहा है, उसमें इस तरह की बहानेबाजी के लिए कोई जगह नहीं बची है और पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से यह बात भी साबित हो गयी है। इसलिए विपक्षी पार्टियों को बहाने खोजने की बजाय अपने भीतर की कमजोरी को दूर करने की कोशिश में जुटना चाहिए। इन चुनाव परिणामों के बाद विपक्षी दलों की बहानेबाजी पर आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह की खास रिपोर्ट।

    एक अनाम शायर ने लिखा है
    इस दौरे सियासत का, इतना सा फसाना है
    बस्ती भी जलानी है, मातम भी मनाना है
    यानी आज की सियासत में सब कुछ जायज है। जैसे कहा जाता है कि प्यार और युद्ध में सब कुछ जायज माना जाता है। पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से यही साफ हो गया है कि आक्रामक राजनीति के इस दौर में अब बहानेबाजी के लिए कोई जगह नहीं बची है। इस बाबत एक घटना बरबस सामने आती है, जब सातवें दौर के प्रचार अभियान के दौरान एक उम्मीदवार मुख्तार अंसारी के पुत्र अब्बास अंसारी मंच से खड़े-खड़े एलान कर रहे थे, मैंने नेताजी से बात कर ली है। 10 तारीख आने दीजिए। यहां जो लोग हैं, उनका एक महीने तक कोई ट्रांसफर नहीं होगा। पहले उनसे अब तक का सारा हिसाब लिया जायेगा, फिर कहीं भेजा जायेगा। यह एक बयान नहीं, उस अहंकार की आहट थी, जिससे जनतंत्र के बहाने हिसाब चुकाने की बू आती थी। जैसा कि उसी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बेहद ईमानदारी से कहा, हमें दूसरों की कमजोरियां चुनने का शौक है। अपनी खासियत पैदा करने का वक्त ही नहीं मिलता। इसलिए हमें दोष मत दीजिए। आखिर जीत-हार तो समीकरण से ही होती है। क्यों बाकी बातों में वक्त खर्च किया जाये। उन्होंने ही दूसरी ईमानदारी पेश करते हुए कहा, आज की नैतिकता यह है कि दूसरों की अनैतिकता को कितना बड़ा पेश किया जाये। झूठ-सच तो हवा से बनता है। हम हवा बनाने में लगे हैं। आप तर्क और सिद्धांत गढ़ते रहिए।

    यह इस बात की पुष्टि करने के लिए काफी था कि विपक्षी पार्टियां मोदी-विरोध और जाति-समीकरण के नाम पर शोर के अलावा अपने किसी तरीके में बदलाव के लिए तैयार नहीं हैं। वे अपने भ्रम के परदे में अपनी तस्वीर देखती हैं, उस पर रीझती हैं और हर एक हार पर एक नयी कहानी गढ़ कर खुद को बहला लेना चाहती हैं।

    बात पंजाब की करते हैं। जब दो महीने पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा लिख दिया था, तभी साफ हो गया था कि कांग्रेस ने सिद्धू को सिर चढ़ा कर कितनी बड़ी गलती की है। मगर कांग्रेस का अपना नशा है। वह स्वयं को नष्ट करने के अपने उपाय खोजती है। दूसरे संभावनाशील राज्य उत्तराखंड में हरीश रावत ने कुछ वक्त पहले ही ट्वीट किया था कि कांग्रेस के भीतर वह कितना फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं। पंजाब और उत्तराखंड, दोनों जगहों पर कांग्रेस के नेता एक-दूसरे से ही संघर्ष में लगे थे। कहना बेकार है कि यूपी में मुस्लिम-यादव और जाट-मुस्लिम की बाट जोहते विपक्ष ने इसके विनाशकारी प्रभाव की कोई परवाह नहीं की। ’10 तारीख से निजाम बदल रहा है’ कह कर चेतावनियां जारी करने से निजाम नहीं बदलता। पिछले आठ सालों में अगर भाजपा ने अपना वोट प्रतिशत 40 तक छू लिया है, तो यह साफ है कि वह ध्रुवीकरण के ‘विपक्षी दांव’ की उलट लाभार्थी रही है।

    इन चुनाव परिणामों से यह भी साफ हो गया है कि भाजपा पुरानी ‘बनिया पार्टी’ नहीं रही, बल्कि दलितों और पिछड़ों के बीच उसने अपनी जगह खोज ली है। वे लोग, जो जातियों की ठेकेदारी से हर चुनाव में मोल-भाव करते रहे हैं, वे भी स्तब्ध रह गये हैं। एक वोट बैंक, जो अति दलितों-अति पिछड़ों का है, वह दिशा बदल रहा है। राशन, गैस और सुरक्षा जैसी बातें उसमें उतर गयी हैं। धारा 370, पुलवामा, राम मंदिर, तीन तलाक, काशी विश्वनाथ धाम, आदिशंकर रामानुजाचार्य, ये सब केक पर लगी ‘आइसिंग’ है। जिस समीकरण को हर पार्टी साधती रही है, उसी समीकरण को भाजपा भी साध रही है, वरना मणिपुर और गोवा न होते। इस साधन-सिद्धि की मोदी शैली ने योगी के प्रतीक को राजनीति के मुहावरे में बदल दिया है।

    अब रहे केजरीवाल, तो वे ‘हारों के सहारे’ हैं। जहां-जहां कांग्रेस ने ‘वैक्यूम’, ‘खला’ या ‘खाई’ छोड़ी है, वहां वे हनुमान चालीसा और भविष्य के संतोष के रूप में चलायमान हैं। जब आदमी सब प्रयोगों से हताश हो जाता है, तो वह नीति-सिद्धांत नहीं पूछता। वह नहीं पूछता कि आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी? वह विचारधारा से ज्यादा, परेशानहाल लोगों के प्रत्युत्तर पर चिपक जाता है। यह चिपका हुआ स्टिकर एक धीरज, एक आशा, एक गहरी सांस के लिए कभी-कभी काफी होता है। यह बेजार लोगों के परचम में बदल जाता है।

    कांग्रेस ने जिस कदर अपने तरीकों से अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं तथा मतदाताओं, दोनों को निराश किया है, उसमें कोई अन्य जगह तलाश ले, तो आश्चर्य ही क्या? ये चुनाव नतीजे सर्वाधिक महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि वे सिखाते हैं कि सिर्फ ट्विटर-फेसबुक पर ‘भेड़िया आया-भेड़िया आया’ चिल्लाना ही अंतिम सत्य नहीं है। चुनी हुई चीजों को अपने एजेंडे के हिसाब से प्रस्तुत कर देना ही सफलता की गारंटी नहीं है। सचमुच भीतर झांकना होता है और जनतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल सभी तत्वों को साधना भी होता है। ‘रणनीति की जीत’ या ‘झूठ की जीत’ या ‘सच की हार’ कहकर यदि अभी भी प्रतिपक्ष छुट्टी मनाने चला जायेगा, तो जवाब कहां से आयेगा, यह अब गंभीरता से सोचने का वक्त आ गया है।

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