सियासत में विरासत के प्रचलन का प्रमाण इतिहास के पुराने से पुराने किस्सों में दर्ज है। राजा का बेटा राजा की तर्ज पर मंत्री का बेटा मंत्री का फार्मूला लगभग हर पार्टी में दिख जाता है। मौजूदा राजनीति के दौर में एक पीढ़ी बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी है। धीरे-धीरे वह अपनी राजनीतिक विरासत अपनी नयी पीढ़ी को सौंप रही है। नयी पीढ़ी के सामने चुनौतियां नये तरीकों की भी आनेवाली हैं। उन्हें पिता द्वारा सौंपा गया जनता का विश्वास भी कायम रखना है और बदले हुए दौर में आधुनिकता के साथ खुद को स्थापित भी करना है। झारखंड में भी विरासत की छांव में सियासत खूब फलती-फूलती रही है। इस विधानसभा चुनाव में इसका नजारा देखने को मिलेगा। झारखंड के इतिहास के पन्ने को पलटें तो विरासत की सियासत के कई उदाहरण मिल जायेंगे। इतना ही नहीं, विरासत की सियासत को भी झारखंड के राज ‘पुत्रों’ ने बखूबी संभाला भी है। झारखंड में विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक फिजां बदलने लगी है। आबोहवा में विरासत की सियासत के रंग घुलने लगे हैं। आइये ऐसे कुछ वरिष्ठ नेताओं और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के बारे में जानते हैं कि वे अपने पिता की दी हुई वैचारिक राजनीति को आगे ले जाने में कितना कामयाब हुए हैं। अपनी पिता की राजनीति से कितने प्रभावित हुए और खुद की पहचान बनाने में कितने कामयाब रहे। इस रिपोर्ट में राजीव यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि झारखंड की राजनीति को संभालने के लिए कैसे विरासत की पौध दस्तक रही है।