वंशवाद को लेकर भले पार्टियां एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करती हों, लेकिन हकीकत यह है कि फिल्मी सितारों के बच्चों को जैसे विरासत में फिल्में मिलती हैं, उसी तरह राजनेताओं के बच्चों को राजनीति ही सुहाती है। झारखंड के सियासी इतिहास के अगर पन्ने पलटें, तो पता चलता है कि झारखंड में अब तक कैसे राज ‘पुत्रों’ ने ना सिर्फ पिता का हाथ पकड़ राजनीति का ककहरा सीखा, बल्कि वे मंत्री-मुख्यमंत्री तक बने। इसे राजनीतिक विरासत कहें या पूर्वजों की राह पर चलने की परंपरा, 19 साल पहले अस्तित्व में आये झारखंड की राजनीति में वंशवाद की बगिया खूब चहचहा रही है। एक पीढ़ी ने सत्ता का सुख भोग लिया, लेकिन वह अपनी सीट अपने राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की बजाय अपने बेटे या बेटी को सौंपना चाहती है। झारखंड में सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में कमोबेश ऐसे उदाहरण हैं, जहां पिता अपनी राजनीतिक कमान सौंपने को नयी पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं।
पिता से सीखा राजनीति का ककहरा
झारखंड की क्षेत्रीय राजनीति में सबसे बड़ा दल है झारखंड मुक्ति मोर्चा। मोर्चा के शीर्ष नेतृत्व पर परिवारवाद का आरोप विरोधी लगाते हैं। इसकी वजह भी है। झारखंड मुक्ति मोर्चा की कमान शिबू सोरेन के पास है। उनके उत्तराधिकारी के तौर पर हेमंत सोरेन ने कामकाज मजबूती से संभाल लिया है। शिबू सोरेन के छोटे पुत्र बसंत सोरेन संगठन की युवा इकाई का काम देखते हैं। इसके बाद रघुनंदन मंडल, रमेश सिंह मुंडा और विदेश सिंह की मृत्यु के बाद अमित मंडल, विकास मुंडा और बिट्टू सिंह ने भी पिता की विरासत को बखूबी संभाला है। इधर, दिनेश षाड़ंगी के पुत्र कुणाल षाड़ंगी भी पिता की तरह ही जनता का विश्वास जीतने में सफल रहे हैं। जेपी पटेल भी इसी कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं।
योगेंद्र साव : पत्नी निर्मला देवी को बड़कागांव से विधायक बनवाया। अब बेटी अंबा प्रसाद को भी राजनीति में लाये, लेकिन लोकसभा चुनाव में कामयाबी नहीं मिल पायी, अब विधानसभा चुनाव में बेटी के लिए टिकट की जुगत में हैं।
गीताश्री उरांव: सिसई से विधायक रही हैं। पति अरूण उरांव भी कांग्रेस के टिकट पर लड़ना चाहते हैं। दोनों के पूर्वज कांग्रेस से जुड़े रहे हैं। कार्तिक उरांव और बंदी उरांव कांग्रेस के नेता थे।
फुरकान अंसारी: कांग्रेस के पूर्व सांसद फुरकान अंसारी अपने पुत्र डॉ इरफान अंसारी को उत्तराधिकारी के तौर पर आगे बढ़ा चुके हैं।
धीरज साहू: शिवप्रसाद साहू कांग्रेस के सांसद थे। शिव प्रसाद साहू के भाई धीरज प्रसाद साहू लोकसभा में प्रवेश नहीं कर पाये, तो राज्यसभा पहुंचे गये। दूसरी तरफ उसी परिवार से गोपाल प्रसाद साहू भी चुनाव के समय मैदान में उतरते रहे हैं।
आलमगीर आलम : बेटा तनवीर आलम और खुद के लिए पाकुड़ से टिकट चाहते हैं।
तिलकधारी सिंह: कोडरमा से पूर्व सांसद रहे तिलकधारी सिंह भी उम्र की दुहाई देते हुए अपने पुत्र को उत्तराधिकारी के तौर पर आगे बढ़ाने की मंशा रखते हैं। बेटे धनंजय सिंह के लिए कोडरमा सीट मांग रहे हैं।
निएल तिर्की : बेटा विशाल तिर्की के लिए सिमडेगा सीट से टिकट पाना चाहते हैं।
यशवंत सिन्हा : भाजपा की राजनीति से यशवंत सिन्हा का भले ही मोह भंग हो गया हो, लेकिन उन्होंने अपनी विरासत अपने पुत्र जयंत सिन्हा को सौंपी। जयंत सिन्हा भाजपा की राजनीति में पैठ बना चुके हैं।
कुंती सिंह: झरिया के भाजपा विधायक संजीव सिंह एक राजनीतिक परिवार में पैदा हुए और अपनी राजनीतिक पहचान बनायी। उनके पिता सूर्यदेव सिंह एकीकृत बिहार में विधायक थे और तत्कालीन समाजवादी राजनीति में उनका अलग स्थान था। संजीव की मां कुंती सिंह भी झारखंड विधानसभा की सदस्य थीं। पिछले चुनाव में कुंती सिंह ने अपने पुत्र के लिए झरिया सीट छोड़ दी और संजीव सिंह ने अपनी मां की राजनीतिक विरासत को अच्छी तरह संभाल लिया।
राजेंद्र प्रसाद सिंह: पूर्व मंत्री और कद्दावर ट्रेड यूनियन नेता राजेंद्र प्रसाद सिंह के दोनों पुत्र कुमार जयमंगल उर्फ अनूप सिंह और कुमार गौरव सक्रिय राजनीति में हैं। कुमार गौरव युवा कांग्रेस की झारखंड प्रदेश इकाई के अध्यक्ष भी रहे। राजेंद्र प्रसाद सिंह भी टिकट की दावेदारी करनेवालों में शुमार हैं। बढ़ती उम्र अगर टिकट में बाधक बनी, तो उत्तराधिकारी के रूप में पुत्र अनूप सिंह मैदान में उतरने को तैयार हैं।
शिबू सोरेन: हेमंत-बसंत के साथ ही शिबू सोरेन अब पुत्री अंजलि सोरेन को भी सक्रिय राजनीति में लाना चाहते हैं। लोकसभा चुनाव में उन्हें झारखंड मुक्ति मोर्चा की ओर मयूरभंज लोकसभा क्षेत्र से खड़ा भी किया था।
झारखंड की सियासत ने विरासत की छांव को आगे बढ़ने का खूब मौका दिया है। समय-समय पर विरासत की राजनीति को नयी पौध ने खून-पसीना बहाकर खूब सींचा भी है। जनता का विश्वास भी जीता है। इस बार भी विधानसभा चुनाव में विरासत की छांव के कई रंग दिखेंगे। अब देखना दिलचस्प होगा कि कितने राज ‘पुत्र’ इस लिटमस टेस्ट में पास हो पाते हैं।