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    Home»लाइफस्टाइल»ब्लॉग»दब कर जीनेवाले लोग
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    दब कर जीनेवाले लोग

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीJanuary 2, 2017No Comments4 Mins Read
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    राहुल पांडेय : मैं असुरक्षित हूं। अंग्रेजी में इसी डायलॉग के साथ प्रसिद्ध अभिनेता लियोनार्डो डिकैप्रियो की फिल्म द एवियेटर शुरू होती है जिसकी कहानी में अभिनेता कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न पहुंच जाए, असुरक्षा के बोझ तले दबते-दबते अंतत: उसका दिमाग हिल ही जाता है। फिल्म की शुरूआत में उसे असुरक्षा का बोध उसकी मां की तरफ से मिलता है। आमतौर पर हमें हमारी असुरक्षा का बोध मां-बाप से मिलना शुरू होता है जो रोजमर्रा के जीवन में अपने साथ काम करने वाले कर्मियों और दोस्तों से भी बार बार मिलता रहता है। अपने मन में तो वह हमारे भले के लिए बार बार हमें असुरक्षित महसूस कराते रहते हैं, लेकिन अक्सर कई लोगों पर इसका विपरीत असर पड़ने लगता है। हॉस्टल में मेरे सामने वाले कमरे में केरल से आया जॉर्ज रहता था। उसे हर वक्त असुरक्षा का खौफ परेशान करता रहता था। मैं उससे बात किया करता था, लेकिन उसके मूड का कभी कुछ पता नहीं रहता था कि वह कब मारपीट करने लग जाये।

    पूरे हॉस्टल में मैं, कनार्टक से आया एंथनी परेरिया और असम से आया ध्रुबा ज्योति सैकिया ही उससे बात किया करते थे तो सिर्फ इसलिए कि वह खुद को अकेला या असुरक्षित महसूस न करे। हम उसकी असुरक्षा का वह बोध नहीं हटा पाये और हॉस्टल के अंतिम दिनों में एक रात उसे आखिरकार दौरा पड़ ही गया। बड़ी मुश्किल से हमने उसे बांधा और एंबुलेंस बुलाकर अस्पताल में भर्ती कराया। इस घटना के तकरीबन नौ साल बाद अचानक उसका फोन मेरे पास आया। वह केरल के अपने गांव में शिफ्ट हो चुका था। बहुत ज्यादा बात नहीं हुई, उसने मेरा हाल चाल लिया। मैंने उससे सिर्फ इतना पूछा कि क्या अब खुश हो? वह फोन पर ही खिलखिला उठा। असुरक्षा की भावना एक बार अगर घर कर जाती है तो जाती नहीं, अलबत्ता कहीं दब जाती है। उसकी खिलखिलाहट में भी मुझे वह दबी हुई असुरक्षा सुनाई दे रही थी।

    इस एक घटना ने मेरे सुरक्षा और असुरक्षा के सारे बोध पर सवालिया निशान खड़ा कर रखा है और अक्सर मैं सोचता हूं कि जॉर्ज के मामले में मुझसे गलती कहां हुई थी? अपने साइकायट्रिस्ट दोस्तों से हुई बातचीत में मैंने पाया कि पहली बात यह कि हमें किसी को भी यह बोध नहीं देना चाहिए। अक्सर लोग उसका वह मतलब नहीं निकालते हैं, जो हम उन्हें देना चाहते हैं। जैसे मैं जॉर्ज को सुरक्षित होने की बात कहता और वह और भी ज्यादा डर जाता। साइकायट्रिस्ट ने मुझे बताया इसी तरह से अगर किसी को यह कहते हैं कि वह असुरक्षित है तो वह जरूर कोई बंबास्टिक कारनामा कर सकता है क्योंकि असुरक्षित कोई भी नहीं रहना चाहता। डरकर भी कोई नहीं रह सकता।
    अगर किसी को कहते हैं कि वह सुरक्षित है तो ठीक उसी वक्त कहीं न कहीं उसके अंदर-बाहर फैली असुरक्षा की भी सूचना दे रहे होते हैं। जॉर्ज के बाद भी मैं लगातार ऐसे लोगों से मिलता रहा जो भारी असुरक्षा के बोध तले खुद को दबाए रहते हैं और एक दबी हुई जिंदगी छूटती सांस की तरह जीते चले जाते हैं। जॉर्ज के बारे में अपने साइकायट्रिस्ट दोस्तों से जो मेरी बहस हुई, उसका अंत इसी बात पर हुआ कि जैसे ही मुझे किसी में यह लगने लगे कि वह खुद को असुरक्षित समझता है या व्यापक सुरक्षाबोध के किसी खांचे में रहता है, उससे दूर रहूं। दोनों ही तरह के लोग कहीं न कहीं नुकसान पहुंचाते हैं और सिर्फ इसलिए क्योंकि इस तरह के बोध उनकी मानसिक समस्याएं हैं। मैं तो खैर ऐसे लोगों से दूर भागने लगा हूं, दुख बस यही है कि उन्हें जहां से भागना होता है, वह वहां से कभी नहीं भागते।

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