आसान नहीं है राह, अग्निपरीक्षा अभी बाकी है

पश्चिम बंगाल। की राजधानी कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में शनिवार को उमड़ी भीड़ और तृणणूल कांग्रेस की दीदी ममता बनर्जी की अगुवाई में आयोजित रैली में शामिल नेताओं को लगने लगा है कि पूरे देश में उनके समर्थन में इसी तरह लोग मतदान केंद्रों पर उमड़ेंगे। उनको लगता है कि भाजपा को हराने के लिए यह पर्याप्त है। लेकिन यह एकतरफा है। विपक्षी दलों के तमाम प्रयासों और बैठकों के बावजूद भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने के लिए विपक्षी दलों में एकजुटता ही पर्याप्त नहीं है। अब जबकि संसदीय चुनाव में मात्र तीन महीने का समय ही बच गया है, ऐसे में यह साफ है कि कई राज्यों में आमने-सामने की लड़ाई नहीं होगी। उत्तरप्रदेश, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक सहित कई राज्यों में अब तक मुकाबला त्रिकोणीय ही होने के आसार नजर आ रहे हैं। देश स्तर पर भाजपा को चुनौती देनेवाली कांग्रेस को कुछ राज्यों में गठबंधन के लिए साथी मिल भी सकते हैं, लेकिन कुछ राज्यों में धुंध अभी पूरी तरह साफ नहीं हुई है।

भाजपा और कांग्रेस के लिए यह संसदीय चुनाव, अर्थात मिशन 2019 करो या मरो के समान है। इसलिए दोनों दलों की तरफ से रणनीतियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। जहां तक विपक्ष का सवाल है, तो संसदीय चुनाव में मोदी लहर को बेअसर करने के लिए वह पिछले कई महीने से देश स्तर पर महागठबंधन बनाने की कोशिश में जुटा हुआ है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की शुरू से ख्वाहिश रही है कि राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले महागठबंधन का नेतृत्व उनके हाथ में रहे, लेकिन राज्य स्तर पर जो भी क्षेत्रीय दल मजबूत हों, उसके नेतृत्व में महागठबंधन बनाया जाये। जिन राज्यों में कांग्रेस कमजोर है, वहां वह क्षेत्रीय दल की जूनियर पार्टनर बनने को भी तैयार दिख रही थी, लेकिन मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को मिली जीत ने पार्टी के रुख को थोड़ा बदल दिया है। इससे महागठबंधन को ठोस आकार देने में बाधा आ सकती है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के मौके पर महागठबंधन की तस्वीर साफ होने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इनमें से किसी भी राज्य में विपक्ष एकजुट नहीं हो सका और वहां त्रिकोणीय लड़ाई हुई।

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे क्षेत्रीय दलों के साथ अलग-अलग बातचीत करना पड़ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि क्षेत्रीय दलों की ताकत उनके अपने-अपने राज्यों में एक जैसी नहीं है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले ओड़िशा में बीजू जनता दल अधिक मजबूत है। असम में असम गण परिषद की स्थिति कमजोर है, तो झारखंड में झामुमो अपेक्षाकृत मजबूत स्थिति में है। बिहार में राजद बड़े भाई की भूमिका में है। इन सभी राज्यों के मुद्दे और क्षेत्रीय दलों की आकांक्षाएं भी अलग-अलग हैं।

आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने अब भी महागठबंधन की उम्मीद नहीं छोड़ी है, लेकिन देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में जिस तरह से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन में कांग्रेस को शामिल करने से इनकार कर दिया, उसके बाद अब वहां त्रिकोणीय लड़ाई तय है। दरअसल महागठबंधन के अस्तित्व पर सवाल भी अखिलेश-मायावती के तालमेल के साथ ही उठने शुरू हो गये।
उत्तरप्रदेश, जहां से 80 सांसद चुने जाते हैं, में महागठबंधन की संभावना खटाई में पड़ने के बाद अब इस बात की उम्मीद कम है कि संसदीय चुनाव के जरिये अपेक्षाकृत अधिक मजबूत दिख रहे भाजपा के नेतृत्ववाले राष्टय जनतांत्रिक गठबंधन के खिलाफ सीधी लड़ाई होगी। केवल उत्तरप्रदेश ही नहीं, 21 सीटों वाले ओड़िशा में नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने भी गठबंधन का हिस्सा बनने से साफ मना कर दिया है।

वहां भी त्रिकोणीय लड़ाई होगी। 17 सीटों वाले तेलंगाना में महागठबंधन बनने की न पहले उम्मीद थी और न अब है। वहां भाजपा के खिलाफ सीएसआर राव की तेलंगाना राष्ट समिति और असदुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) साथ हैं, तो कांग्रेस-चंद्रबाबू नायडू दूसरे पाले में हैं। 25 सीटों वाले आंध्रप्रदेश में भी कुछ ऐसी ही तस्वीर है। सात सीटों वाली दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के साथ आने की संभावना लगभग खत्म हो गयी है। भाजपा के खिलाफ ये दोनों पार्टियां अलग-अलग ताल ठोकती नजर आयेंगी। 14 सीट वाले असम में भी राजग के खिलाफ कांग्रेस का क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल नहीं बन पा रहा है। सीटों की संख्या के लिहाज से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल (42 सीट) में भी भाजपा के खिलाफ गठबंधन नहीं हो सका है। ममता अपने साथ किसी भी सूरत में वाम दलों को लेने को तैयार नहीं हैं।

वहां कांग्रेस को अभी तय करना बाकी है कि वह तृणमूल कांग्रेस के साथ रिश्ता रखे या वाम दलों के साथ। शनिवार की रैली में तमाम विपक्षी दलों के नेताओं की मौजूदगी से हालांकि संशय के बादल छंटे हैं, लेकिन तालमेल के सवाल पर कई पेंच अभी बाकी हैं। इसी तरह 11 सीट वाले छत्तीसगढ़ में भी गठबंधन के लिए कांग्रेस ने दरवाजे बंद कर दिये हैं। 20 सीटों वाले केरल में भी वाम मोर्चा और कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे का अलग-अलग पालों में रहना तय है। त्रिकोणीय लड़ाई वाले इन नौ राज्यों में लोकसभा सीटों की कुल संख्या 237 है। इस तरह लोकसभा की कुल 543 सीटों के करीब 44 प्रतिशत पर महागठबंधन जैसी कोई तसवीर बनने की गुंजाइश नहीं है।

अब बात करते हैं, उन राज्यों की, जहां महागठबंधन की संभावना तो बन रही है, लेकिन स्थिति पूरी तरह साफ नहीं है। सीटों की संख्या के लिहाज से दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र (48 सीट) में फिलहाल तो भाजपा-शिवसेना गठबंधन और कांग्रेस-राष्टवादी कांग्रेस पार्टी गठबंधन के बीच सीधे मुकाबले की संभावना दिखाई पड़ रही है, लेकिन शिवसेना और भाजपा के बीच पैदा हुई तल्खी से सीधे मुकाबले के आसार कम ही दिखाई दे रहे हैं। शिवसेना ने कांग्रेस-राकांपा गठबंधन में अपनी जगह तलाश ली है, लेकिन कांग्रेस ने धुर हिंदूवादी पार्टी को साथ लेने से मना कर दिया है। ऐसे में वहां शिवसेना और राकांपा एक साथ आ जायें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। उस स्थिति में भी वहां त्रिकोणीय संघर्ष के ही आसार हैं। 28 सीटों वाले कर्नाटक में इस वक्त भाजपा के मुकाबले कांग्रेस और जनता दल सेक्यूलर गठबंधन सरकार में है। वैसे तो स्वाभाविक तौर पर लोकसभा चुनाव में यहां भाजपा की लड़ाई इस गठबंधन से दिखती है, लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह से गठबंधन के दोनों घटकों में ठनी हुई है, उसमें किसी भी अनहोनी से इनकार नहीं किया जा सकता।

विधानसभा चुनाव में बसपा यहां जद-एस के साथ गठबंधन में थी। कांग्रेस के साथ गठबंधन में उसके जाने का सवाल नहीं। वह यहां अलग चुनाव लड़ेगी। छह सीटों वाले जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा के खिलाफ कांग्रेस-पीडीपी-नेशनल कांफ्रेंस के बीच तालमेल की संभावना कम ही है। पीडीपी को लेकर जिस तरह की नाराजगी घाटी में है, उसमें कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस दोनों ही उससे दूरी बना कर चलना चाहती हैं। 39 सीट वाले तमिलनाडु में बहुकोणीय लड़ाई की उम्मीद दिख रही है। इस तरह से इन चार राज्यों की 121 सीटों को लेकर भी अभी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।

अभी तक बिहार और झारखंड ही दो ऐसे राज्य हैं, जहां सीधी लड़ाई की जमीन लगभग तैयार हो गयी है। बिहार में राजग के खिलाफ कांग्रेस समेत सभी प्रमुख विपक्षी दल एकजुट हो गये हैं। वहां नेतृत्व की भूमिका में राष्टय जनता दल है। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में महागठबंधन का ऐलान हो चुका है। लोकसभा चुनाव में इस महागठबंधन की कमान कांग्रेस के हाथ में रहेगी, जबकि इसी साल के आखिर में होनेवाले विधानसभा चुनाव में कमान झामुमो के हेमंत सोरेन के हाथों में चली जायेगी। इन दोनों राज्यों में कुल 54 संसदीय सीटें हैं। बिहार में 40 और झारखंड में 14। उधर 26 सीटों वाले गुजरात में मुख्य तौर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है। यहां पर अन्य राज्यों की तरह कोई मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है। 29 सीट वाले मध्यप्रदेश और 25 सीट वाले राजस्थान में भी क्षेत्रीय दल नहीं हैं। इसलिए वहां भी सीधी लड़ाई ही होगी। इसका सीधा मतलब यह है कि कुल 134 सीटों पर सीधी लड़ाई के आसार दिख रहे हैं।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि संसदीय चुनाव में भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए विपक्ष का गेमप्लान कितना कारगर होता है। लेकिन अब तक की स्थिति से यह साफ हो गया है कि भाजपा को भेदने के लिए विपक्षी तीन एक म्यान में रहने का दावा कर रहे हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि एक साथ इतने तीर कैसे एक म्यान में अंट पायेंगे, वहीं देश पर 2025 तक शासन करने का दावा करनेवाली भाजपा की राह भी आसान नहीं है। यहां नरेंद्र मोदी अभिमन्यु की तरह हैं, जिन्हें चुनावी चक्रव्यूह में घेरने के लिए विपक्ष योद्धा मैदान में उतर चुके हैं। अब देखना यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में मोदी उस चक्रव्यूह को भेद कर बाहर निकल पाते हैं या नहीं।

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