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    Home»Top Story»झारखंड को पसंद नहीं दलबदलू नेता
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    झारखंड को पसंद नहीं दलबदलू नेता

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskJanuary 3, 2020No Comments6 Mins Read
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    राजनीति में पाला बदलना एक सामान्य परिघटना है, पर इसके नतीजे हमेशा समान नहीं रहते। कई बार नेता पाला बदल कर सफलता भी हासिल कर लेते हैं, लेकिन सामान्य तौर पर मौका देखकर दल बदल लेने वाले नेताओं के प्रति लोग अच्छी धारणा नहीं रखते। झारखंड में अभी-अभी संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले पाला बदलकर भाजपा में गये सुखदेव भगत, मनोज यादव और कुणाल षाड़ंगी को शिकस्त खानी पड़ी। कुछ ऐसा ही हाल हुसैनाबाद के विधायक कुशवाहा शिवपूजन मेहता और छतरपुर विधायक राधाकृष्ण किशोर का हुआ। हालांकि पार्टी बदलकर चुनाव लड़ने वाले जेपी पटेल, अकेला यादव और वैद्यनाथ राम के हिस्से जीत आयी। प्रकाश राम को दलबदल करना महंगा पड़ा और वे चुनाव हार गये। विधानसभा चुनाव में दलबदल करनेवाले विधायकों की हार-जीत से जुड़े समीकरणों को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

    दलबदल को राजनीति में कतई अप्रत्याशित नहीं माना जाता, लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि सामान्य तौर पर लोग इसे अच्छी बात नहीं मानते। झारखंड के हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों ने यह दर्शा दिया है कि दलबदलू नेताओं को जनता आम तौर पर पसंद नहीं करती। कांग्रेस से पाला बदलकर भाजपा में गये विधायक मनोज यादव और सुखदेव भगत को जनता ने हरा दिया। भाजपा से टिकट कटने के बाद आजसू में गये छतरपुर विधायक राधाकृष्ण किशोर को भी हार का सामना करना पड़ा। बोरिया से भाजपा विधायक रहे ताला मरांडी का भी यही हाल हुआ। पिछली बार हुसैनाबाद से बसपा के टिकट पर जीते कुशवाहा शिवपूजन मेहता का भी दलबदल करना जनता को पसंद नहीं आया और वे चुनाव हार गये। इनके अलावा कुणाल षाडंÞगी, प्रकाश राम और फूलचंद मंडल के साथ भी जनता ने यही सलूक किया। हालांकि भानु प्रताप शाही और जेपी पटेल अपवाद रहे। ये दोनों अपनी जमीनी पकड़ के कारण सीट बचाने में कामयाब रहे। उधर अकेला यादव तथा समीर मोहंती दल बदलने के बाद भी चुनाव जीतने में सफल रहे। वस्तुत: भानु प्रताप शाही की जीत के पीछे उनका अपना मजबूत जनाधार रहा, वहीं जेपी पटेल को भी टेकलाल महतो की विरासत और उनके अपने जनाधार ने जीत दिलाने में अधिक मदद की। इन दोनों की जीत में पार्टी का फैक्टर बहुत प्रभावी नहीं रहा। अकेला यादव और समीर मोहंती और अमित यादव के साथ उनकी पुरानी पार्टियों ने अन्याय किया था, इसलिए इनके दलबदल को जनता की स्वीकार्यता मिली और ये चुनाव जीतने में सफल रहे। यह कोई पहली बार नहीं है जब जनता ने दलबदल करनेवालों को रिजेक्ट किया है। महाराष्टÑ में पाला बदलनेवाले 16 विधायक चुनाव हार गये, वहीं हरियाणा में नौ को हार का सामना करना पड़ा।

    जनता को नहीं भाया दलबदल
    अपने बेहतर भविष्य की आकांक्षा लिये मनोज यादव, सुखदेव भगत और कुणाल षाडंÞगी और भानु के साथ जेपी पटेल ने भाजपा ज्वाइन किया था। मनोज यादव और कुणाल षाडंÞगी की किस्मत में जनता ने पराजय लिखा और जेपी पटेल और भानु के सिर जीत का सेहरा बांधा। भानु अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा थे और उनके साथ नौजवानों की फौज थी। उनके भाजपा में शामिल होने पर जनता ने रिएक्ट नहीं किया। इसी तरह जेपी के पार्टी से विद्रोह करने के फैसले को जनता ने बुरा नहीं माना। यही वजह है कि पाला बदलने के बाद भी जीत उनके हिस्से आयी। हालांकि वर्ष 2014 के बाद झाविमो के टिकट पर जीते विधायक रणधीर सिंह, अमर बाउरी, आलोक चौरसिया और नवीन जायसवाल के पाला बदलने को जनता की स्वीकृति मिली और वर्ष 2019 का विधानसभा चुनाव जीतने में वे सफल रहे।

    इस बार उछल-कूद की संभावना ही जनता ने खत्म कर दी
    वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में जनता ने ऐसा मैंडेट दिया, जिसमें उछल-कूद की संभावना एक हद तक खत्म हो गयी। झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबंधन को जनता ने 47 सीटों पर विजय दिला दी। झारखंड में सरकार बनाने के लिए 41 विधायक ही किसी दल या दलों के समूह के लिए आवश्यक हैं। ऐसे में महागठबंधन विधायकों की संख्या के मामले में कंफर्टेबल पोजिशन में है। इस स्थिति के बाद बाबूलाल मरांडी ने अपनी पार्टी का समर्थन महागठबंधन को दे दिया। इससे स्थिति और बेहतर हो गयी और हेमंत सोरेन एक मजबूत महागठबंधन के सर्वमान्य नेता बनकर उभरे। झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य रखा था और इस दल में पाला बदलकर कई नेता गये, पर सबके हिस्से जीत नहीं आयी।

    काम नहीं आयी दूसरे दलों से नेता आयात करने की रणनीति
    झारखंड में 65 प्लस का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा ने दूसरे दलों के विधायकों और मजबूत नेताओं को लाकर अपना लक्ष्य पूरा करना चाहा, पर पार्टी की यह रणनीति कामयाब नहीं हुई। 23 अक्टूबर को प्रदेश भाजपा कार्यालय में आयोजित महामिलन समारोह में विपक्ष के पांच विधायकों ने भाजपा का दामन थामा था। इनमें सुखदेव भगत, कुणाल षाडंगी, जेपी पटेल, भानु प्रताप शाही और मनोज यादव इस सोच के साथ भाजपा में आये थे कि मोदी लहर में वे चुनावी नैया पार कर जायेंगे, पर जहां भानु और जेपी के हिस्से में जीत आयी, वहीं मनोज यादव, कुणाल षाडंÞगी और सुखदेव भगत को हार कर सामना करना पड़ा। वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में मनोज यादव लगभग सात हजार वोटों के अंतर से जीते थे। इस बार लगभग 12 हजार वोटों से वह अकेला यादव के हाथों हारे। इसी तरह दलबदल करनेवाले जानकी यादव को अमित यादव ने निर्दलीय खड़े होकर हराया। सिंदरी विधायक फूलचंद मंडल को भी दल बदलना महंगा पड़ा और वे चुनाव हार गये।

    अवसरवादी नेता पसंद नहीं
    झारखंड की राजनीति के जानकारों का कहना है कि अवसरवादी और सत्ता को ही राजनीति का साध्य माननेवाले नेताओं को जनता पसंद नहीं करती। यही वजह है कि महाराष्टÑ और हरियाणा में दलबदल करने वाले विधायकों को जनता ने रिजेक्ट कर दिया, तो झारखंड में भी अधिकतर दलबदल करनेवाले विधायक रिजेक्ट ही हुए। बसपा से आजसू में गये कुशवाहा शिवपूजन मेहता को जनता ने हरा दिया और छतरपुर विधायक राधाकृष्ण किशोर के साथ भी जनता ने यही किया। ताला मरांडी का भाजपा से झामुमो में जाना भी जनता को नहीं भाया और वे हार गये। बहरागोड़ा से जीत हासिल करनेवाले समीर मोहंती ने दल बदलने से पहले बहरागोड़ा में अभियान चलाया और जनता की राय जानी। भवनाथपुर में भानु के साथ भाजपा का संगठन पूरी तरह नहीं था और उन्होंने अपनी लड़ाई अधिकांशत: अपने दम पर ही लड़ी और जीत उनके हाथ आयी। दूसरे दलों के जिन विधायकों ने भाजपा का दामन थामा, उनसे एक भूल यह हुई कि वे मोदी लहर के भरोसे रह गये, जो इस बार नहीं चली। यदि मोदी लहर चली होती, तो नतीजा कुछ दूसरा होता। इस बार जनता ने स्थानीय मुद्दों पर वोट डाला और झारखंड में झामुमो, कांग्रेस और राजद गठबंधन की आंधी चली। और इस आंधी में भाजपा के पांव उखड़ गये।
    झारखंड में दलबदल करने के मामले में एक तथ्य यह है कि झारखंड बनने के बाद 58 नेताओं ने दल बदले और इनमें से 50 फीसदी भाजपा में गये और 17 फीसदी झामुमो में। वहीं सिर्फ सात फीसदी ने कांग्रेस पर भरोसा किया। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार के चुनावी नतीजों से दल बदलने वाले नेताओं सबक लेंगे।

    Jharkhand does not like defective leaders
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