झारखंड की चौथी विधानसभा के अध्यक्ष रहे प्रो दिनेश उरांव की गिनती साफ-सुथरे राजनीतिज्ञों में होती है, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में उनकी हार ने उन्हें गुमला की राजनीति में हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है। रिकॉर्ड 38 हजार से अधिक मतों के अंतर से चुनाव हारने के बाद दिनेश उरांव न केवल अज्ञातवास में हैं, बल्कि उनकी हार का खामियाजा भाजपा को भी भुगतना पड़ रहा है। जनजातीय बहुल इस जिले में ऐसा पहली बार हुआ कि विधानसभा चुनाव में उसके हिस्से में एक भी सीट नहीं आयी। ऐसा केवल इसलिए हुआ, क्योंकि प्रो दिनेश उरांव 2014 में चुनाव जीतने के बाद केवल विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका भी निभाते रहे और आम लोगों तथा कार्यकर्ताओं से उनका रिश्ता लगभग खत्म हो गया। गुमला जिले की राजनीति और दिनेश उरांव के पराभव को रेखांकित करती रमेश कुमार पांडेय की खास रिपोर्ट।
ठीक ही कहा गया है कि विनम्रता और मिलनसारिता किसी भी व्यक्ति की सफसला का मूल मंत्र होता है। जो इसको अपनाता है, वह कभी पछताता नहीं है, लेकिन जो इससे भटक जाता है, उसे बाद में अपनी गलती का एहसास होता है। राजनीति का मैदान भी इससे अछूता नहीं है। विनम्रता, सादगी और उच्च विचार के संवाहक रहे झारखंड के गांधी के नाम से पुकारे जाने वाले और विषम परिस्थितियों में जनसंघ का दीया जलाने वाले ललित उरांव की पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर विधान सभा के अध्यक्ष जैसे गरिमामय पद पर पांच साल तक आसीन रहने वाले प्रो दिनेश उरांव का हाल भी ऐसा ही है। फिलहाल अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करने वाले प्रो दिनेश उरांव ने कार्यकर्ताओं और आम जनता से इतनी दूरी बना ली थी कि विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े अंतर से हार का उन्हें सामना करना पड़ा। इस जनजातीय बहुल गुमला जिला के चुनावी इतिहास में अब तक किसी को 38 हजार मतों के के अंतर से पराजय का सामना सामना नहीं करना पड़ा था। दिनेश उरांव के आम जनता से कट जाने का खामियाजा भाजपा को भी भुगतना पड़ा। जिले की एक भी सीट वह जीत नहीं सकी।
विवादों से रहा नाता
भारतीय जनसंघ के दिग्गजों में गिने जानेवाले ललित उरांव के सान्निध्य में राजनीति के माध्यम से जनसेवा का व्रत लेने वाले प्रो दिनेश उरांव शिक्षित राजनेता हैं। वह रांची के एक कॉलेज में प्राध्यापक भी हैं। लेकिन अपने राजनीतिक गुरु जैसा बनना उनके लिए संभव नहीं हो सका। वर्ष 2000 में उन्हें पहली बार विधायक बनने का गौरव मिला था। आम जनता ने उनमें ललित उरांव की छवि देख कर अपना विधायक चुना था। लोगों को उम्मीद थी कि वह अपने गुरु की विरासत को आगे बढ़ायेंगे और ललित उरांव की भांति जनसेवा को ही अपना मूल मंत्र बनायेंगे। मगर हुआ इसका उल्टा। प्रो उरांव में न ललित बाबू की जनसेवा का संकल्प दिखा और न ही संघर्ष का जज्बा। उल्टे विवादों से उनका नाता जुड़ गया। गुमला-रांची सड़क के निर्माण के दौरान एक अभियंता की कथित पिटाई में संलिप्त होने का उन पर आरोप भी लगा था। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ इतना गिर गया था कि भाजपा नेतृत्व ने उन्हें 2005 में दोबारा टिकट देना भी मुनासिब नहीं समझाा। उनकी जगह युवा समीर उरांव को चुनाव में उतारना पड़ा। लंबे राजनीतिक वनवास के बाद भाजपा नेतृत्व ने 2014 में प्रो उरांव को सिसई विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया। कांग्रेस और झामुमो में चुनावी गठबंधन नहीं होने और मतों के बिखराव के मिले लाभ से प्रो उरांव दूसरी बार विधायक बने।
भाग्योदय
वर्ष 2014 के विधान सभा चुनाव का परिणाम भाजपा के लिए सुखद रहा। रघुवर दास के नेतृत्व में गठित सरकार ने जब कार्यभार संभाला, तो दिनेश उरांव की शैक्षणिक योग्यता को ध्यान में रखकर भाजपा ने उन्हें विधानसभा अध्यक्ष का पद दिया, जिसे प्रो दिनेश उरांव और सिसई विधानसभा क्षेत्र का भग्योदय समझा गया। वाकई में विधानसभा अध्यक्ष होने के नाते प्रो उरांव ने विकास के क्षेत्र में क्रांति पैदा कर दी, जिसकी अपेक्षा शायद ही किसी ने की हो। नदियों को पार कर घर आने-जाने की समस्याओं से निजात दिलाने के लिए डेढ़ दर्जन उच्च स्तरीय पुलों और विधानसभा क्षेत्र की सभी प्रमुख सड़कों का निर्माण कराकर विकास की आधारभूत संरचना उपलब्ध कराने का रिकॉर्ड उन्होंने अपने नाम करा लिया। इतना ही नहीं, उग्रवाद और नक्सलवाद से परेशान जनता को सुरक्षा प्रदान करने के लिए पूसो, करंज और कुरकुरा में थाना की स्थापना करवाना उनकी शानदार उपलब्धियां मानी जाती हैं। इसके अलावा बीएन जालान कॉलेज में एमए की पढ़ाई शुरू करवाना और पेयजल और अन्य सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराने जैसी उपलब्धियां भी उनके खाते में दर्ज हुईं। लेकिन इतना काम करने के बावजूद प्रो उरांव आम लोगों और कार्यकर्ताओं से कटे रहे। हमेशा सुरक्षा घेरे में रहने के कारण वह लोगों से संवाद भी नहीं करते थे। कहते हैं कि इतिहास रचने के दौरान इतिहास बदलने के बीज अंकुरित होते हैं। विकास के प्रति दीवानगी ने उन्हें संवेदकों और अधिकारियों के नजदीक ला दिया, मगर जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं से दूरी बढ़ गयी। विधानसभा अध्यक्ष की सुरक्षा के नाम पर अधिकारियों और उनके सुरक्षा गार्डों ने कार्यकर्ताओं को उनके सामने फटकने ही नहीं दिया। दूरी बढ़ती गयी और जनाधार दरकता रहा। पद का रौब और व्यस्तता के नाम पर प्रो उरांव अपनी और अपनी पार्टी की मूल पूंजी को लगातार खोते गये। जनता और कार्यकर्ताओं से बढ़ती दूरी का उन्हें तब तक एहसास नहीं हुआ, जब तक 2019 के विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार नहीं बन गये। वह बतौर उम्मीदवार भी जनता के बीच सुरक्षा घेरे में ही पहुंचने लगे। भाग्योदय का सूर्य चुनाव में अस्त हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि पार्टी नेतृत्व का विश्वास भी एक बारगी डोल गया।
करना होगा इंतजार
प्रो दिनेश उरांव के लिए पैदा राजनीतिक चुनौतियों को भविष्य में अवसर में बदलना आसान नहीं होगा। उन्हें लंबा इंतजार करना होगा। साथ ही कड़ी मेहनत भी करनी होगी। राजनीति के जानकार और विश्लेषकों की मानें, तो उन्हें कम से कम आधा दर्जन मोर्चों पर एक साथ जूझना होगा। इसमें पार्टी का खोया विश्वास पाना सबसे अहम है। इसके अलावा कार्यकर्ताओं के बीच पहुंचना और उनका विश्वास प्रो उरांव को अर्जित करना होगा। उनकी राजनीतिक वापसी तब तक संभव नहीं दिखती, जब तक वह अपने वर्तमान प्रतिद्वंद्वी की खामियों को जन-जन तक नहीं पहुंचाते। इसके अलावा अपने अधूरे कार्यों को पूरा कराने के लिए जनता का विश्वास अर्जित करना और जनता और कार्यकर्ताओं से दूरी नहीं बढ़ाने का संकल्प लेना भी उनके लिए बेहद जरूरी है। प्रो उरांव को अब सीधे सड़क पर उतर कर सरकार की विफलताओं के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार होना होगा। इसके साथ अपने राजनीतिक गुरु ललित उरांव से मिले उपदेशों को अक्षरश: अमल में लाना भी उनके लिए जरूरी है।