राजनीति बेहद अनिश्चितता का पर्याय है। यहां कब किसका सितारा बुलंद होगा और कब कौन हाशिये पर चला जायेगा, कहा नहीं जा सकता। झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। वह झारखंड की सियासत में एक धूमकेतु की तरह उभरे और देखते-देखते सत्ता शीर्ष तक जा पहुंचे, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में पराजित होने के बाद वह न केवल झारखंड की राजनीति से, बल्कि भाजपा संगठन के भीतर भी हाशिये पर धकेल दिये गये। इन पांच सालों में वह भाजपा के लगभग तमाम बड़े कार्यक्रमों से दूर रखे गये, हालांकि उनकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई। इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें खूंटी लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया, जो कड़िया मुंडा का अभेद्य किला था। आम लोगों के साथ अपने गहरे जुड़ाव और लोकप्रियता के बलबूते पर अर्जुन मुंडा ने यह किला बरकरार रखा और सांसद बने। चुनाव के दौरान उनकी राह में बहुत से रोड़े अटकाये गये, लेकिन उन्होंने इन तमाम अवरोधों को पराजित किया। फिर उन्हें केंद्र में मंत्री भी बनाया गया, लेकिन झारखंड की राजनीति से उन्हें दूर ही रखा गया है। जो शख्स कभी पूरे झारखंड में भाजपा का सबसे कुशल रणनीतिकार माना जाता था, वह आज दिल्ली में अपने मंत्रालय के कमरे से बाहर निकल कर अपने संसदीय क्षेत्र तक सिमट कर रह गया है। यह अर्जुन मुंडा जैसी शख्सियत के लिए अन्यायपूर्ण तो है ही, भाजपा के लिए भी अहितकारी है, क्योंकि झारखंड में जनाधार वापस पाने में भाजपा के लिए अर्जुन मुंंडा जितने मददगार हो सकते हैं, शायद कोई दूसरा नेता नहीं हो सकता। नये साल में अर्जुन मुंडा के सामने झारखंड की राजनीति में वापस आने का चैलेंज है। उनके सामने व्याप्त चुनौतियों और उनकी संभावित रणनीति पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
देश भर में सबसे कम उम्र में किसी राज्य का मुख्यमंत्री बननेवाले और कभी झारखंड में भाजपा के सबसे दमदार नेता के रूप में ख्याति हासिल करनेवाले अर्जुन मुंडा आज राज्य की राजनीति में कहीं गुम से हो गये हैं। अपने राजनीतिक कौशल और समझ की बदौलत तीन बार मुख्यमंत्री का पद संभालनेवाले अर्जुन मुंडा आज सांसद और केंद्रीय मंत्री जरूर हैं, लेकिन झारखंड की राजनीति में उनकी कोई भूमिका पिछले छह साल से नजर नहीं आयी है।
2014 के विधानसभा चुनाव में खरसावां सीट से पराजित होने के बाद से ही अर्जुन मुंडा राजनीति के हाशिये पर धकेल दिये गये। भाजपा ने हालांकि उस चुनाव के बाद सरकार बनायी, लेकिन अर्जुन मुंडा को पूरे पांच साल तक अलग-थलग रखा गया। तब कहा जाने लगा था कि अर्जुन मुंडा की पारी खत्म हो गयी है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें खूंटी संसदीय सीट से मैदान में उतारा। उन्हें टिकट देना भाजपा की मजबूरी थी, क्योंकि पार्टी के दिग्गज कड़िया मुंडा को उम्र के कारण प्रत्याशी नहीं बनाया जा सकता था और उनके उत्तराधिकारी के रूप में भाजपा के पास अर्जुन मुंडा के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
अर्जुन मुंडा ने पार्टी आलाकमान के भरोसे को कायम रखा और पार्टी के एक खेमे के असहयोग के बावजूद चुनाव जीतने में सफल रहे। यह तथ्य सार्वजनिक है कि अर्जुन मुंडा के रास्ते में भाजपा के कई बड़े नेता लगातार रोड़े अटकाते रहे। यहां तक कि पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को खूंटी जाने से भी मना कर दिया गया था। इसके बावजूद अर्जुन मुंडा ने जीत हासिल की और बाद में केंद्रीय कैबिनेट में शामिल हुए। सांसद के रूप में अपनी तीसरी पारी में उनका डेढ़ साल का कार्यकाल कुल मिला कर संतोषजनक ही कहा जायेगा। लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि कभी झारखंड में भाजपा के सबसे कुशल रणनीतिकार को प्रदेश की राजनीति से पूरी तरह काट दिया गया है।
अर्जुन मुंडा पिछले चार दशक से राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन झामुमो से शुरू किया और झारखंड की पहली कैबिनेट में समाज कल्याण मंत्री बने। बाद में बाबूलाल मरांडी की सरकार गिरने के बाद वह सीएम बनाये गये और तब से लेकर 2014 के विधानसभा चुनाव तक वह राज्य की राजनीति के केंद्र में रहे। लेकिन 2014 में चुनाव हारने के बाद से ही उनका कैरियर ढलान पर आ गया।
अर्जुन मुंडा कभी एक समुदाय या जातीय समूह के नेता नहीं रहे। उनकी लोकप्रियता और जनाधार के पीछे उनकी यही समझदारी है। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने झारखंड में हमेशा भाजपा के किले को न केवल सुरक्षित रखा, बल्कि झारखंड को विकास के रास्ते पर आगे ले जाने में अपनी कुशलता का परिचय भी दिया। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि आज उसी अर्जुन मुंडा को उनके मंत्रालय के दफ्तर के अलावा खूंटी संसदीय क्षेत्र तक सीमित कर दिया गया है। दिसंबर, 2019 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा उनकी नेतृत्व क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर सकी, क्योंकि उस वक्त पार्टी के नेता अति आत्मविश्वास से लबरेज थे। जब चुनाव परिणाम सामने आया, तब उनकी आंखें खुलीं। लेकिन इस पराजय के बावजूद अर्जुन मुंडा को संगठन में कोई भूमिका नहीं दी गयी है। इसका परिणाम यह हुआ कि आज उनकी पहचान पार्टी में ही सिमट रही है और इसका खामियाजा भाजपा को सबसे अधिक उठाना पड़ेगा।
अर्जुन मुंडा के बारे में कहा जाता है कि वह हमेशा दूर की राजनीति करते हैं। वह मानते हैं कि एक दिन उनका भी समय आयेगा और तब वह एक बार फिर झारखंड की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभायेंगे। वह उस समय के इंतजार में हैं, क्योंकि जल्दबाजी में वह कोई कदम नहीं उठाते। नये साल में उनके सामने खुद को झारखंड की राजनीति में वापस लाने का चैलेंज है। इसके साथ भाजपा के लिए भी उनकी क्षमता का उपयोग करने का यह मुफीद समय है, क्योंकि अर्जुन मुंडा के पास वह सब पूंजी है, जिसकी बदौलत वह पार्टी को उसकी खोयी प्रतिष्ठा वापस दिला सकते हैं। ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि इस साल अर्जुन मुंडा का राजनीतिक वनवास खत्म होगा और वह एक बार फिर झारखंड की राजनीति में अपनी धमाकेदार वापसी से राज्य के सियासी माहौल को गरमायेंगे। यदि ऐसा हुआ, तो फिर झारखंड की राजनीति में दिलचस्प मोड़ आयेगा।