1947 में मिली आजादी के बाद से ही भारत में विकास की अवधारणा को राजनीति से जोड़ दिया गया। तब से लेकर आज तक किसी इलाके के विकास की पूरी जिम्मेवारी राजनीतिक नेताओं के कंधों पर ही है। यह एक हद तक सही भी है, क्योंकि इलाके के विकास के लिए आवाज उठाने की क्षमता और ताकत राजनीतिक लोगों में ही होती है। यदि किसी इलाके के राजनीतिक लोग वहां के विकास के लिए आवाज नहीं उठाते हैं, तो वह इलाका पिछड़ता जाता है। झारखंड के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार पलामू प्रमंडल की पीड़ा यही है। इस प्रमंडल की मिट्टी में पैदा होकर कई लोग देश और प्रदेश स्तर के नेता तो बन गये, लेकिन उन्होंने अपनी माटी का कर्ज चुकाने पर कभी ध्यान नहीं दिया। पलामू की पीड़ा इसका पिछड़ापन ही नहीं है, बल्कि इसे अपने बेटों की उपेक्षा का दर्द साल रहा है। आजादी के बाद से यदि गिना जाये, तो पलामू की कई राजनीतिक हस्तियां देश-प्रदेश की सियासत में अपना सिक्का जमा चुकी हैं, लेकिन उन सभी ने कभी पलामू के विकास की चिंता नहीं की। पलामू के पिछड़ेपन का यह एक प्रमुख कारण रहा। सूखा, अनावृष्टि और नक्सलवाद जैसी समस्याओं से जूझते हुए पलामू की इसी पीड़ा का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के मेदिनीनगर ब्यूरो प्रमुख जयकांत शुक्ला की खास रिपोर्ट।

पलामू का नाम सुनते ही ऐसे इलाके की तस्वीर उभरती है, जिसके माथे पर आजादी के 73 साल बाद भी पिछड़ेपन का कलंक चस्पां है और जहां विकास नाम की चीज गायब है। एक जनवरी, 1892 को अस्तित्व में आये पलामू की विडंबना है कि इस इलाके को जहां प्रकृति की उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता है, वहीं मानवीय उपेक्षा की पीड़ा भी इसके सीने में कहीं अधिक गहरी है। करीब 20 लाख की आबादी और तीन जिलों, मेदिनीनगर, गढ़वा तथा लातेहार को मिला कर बनाये गये पलामू प्रमंडल की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां की प्रति व्यक्ति आय झारखंड के औसत के मुकाबले करीब नौ हजार रुपये कम है। झारखंड की प्रति व्यक्ति आय जहां 63 हजार 754 रुपये प्रति वर्ष है, वहीं पलामू में यह 54 हजार 883 रुपये है। अपनी गोद में 970 किस्म की वनस्पतियों को समेटनेवाली पलामू की धरती आज भी विकास के लिए तरस रही है।
ऐसे में बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर पलामू विकास की दौड़ में पिछड़ क्यों रहा है। इसका जवाब तलाशना अधिक मुश्किल नहीं है। पलामू के पिछड़ेपन का बड़ा कारण यह है कि इसे अपनों की ही उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। भारत के राजनीतिक इतिहास में पलामू की धरती का बहुत बड़ा योगदान रहा है। देश और प्रदेश के एक से एक बड़े नेता यहां पैदा हुए, जिन्होंने अपने काम से खूब नाम कमाया, लेकिन अफसोस इस बात का है कि इन नेताओं ने कभी अपनी मिट्टी की तरफ ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस के दिग्गज भीष्म नारायण सिंह से लेकर झारखंड के वर्तमान वित्त मंत्री डॉ रामेश्वर उरांव तक पलामू की धरती पर पैदा हुए। दिग्गज राजनीतिज्ञ इंदर सिंह नामधारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय, भाजपा के वरिष्ठ नेता सीपी सिंह और गिरिनाथ सिंह जैसे राजनेताओं से यह फेहरिस्त भरी पड़ी है। लेकिन इतने राजनेताओं की जन्मभूमि यदि आज भी पिछड़ी है, तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।
पलामू के पिछड़ेपन का आलम यह है कि कृषि प्रधान इलाका होने के बावजूद यहां आज तक किसी ने भी सिंचाई और दूसरी आधारभूत सुविधाओं की तरफ ध्यान नहीं दिया। यहां सिंचाई परियोजनाओं के नाम पर या तो केवल वोट बटोरे गये या फिर राजनीतिक रोटियां सेकी गयीं। मंडल और कनहर डैम जैसी बड़ी सिंचाई परियोजनाएं कब पूरी होंगी, इसका कोई अंदाजा किसी को नहीं है। बटाने, अन्नराज और अमानत की सिंचाई परियोजनाएं रुक-रुक कर चल रही हैं। लेकिन दुखद यह है कि इनके बारे में कोई बात नहीं करता। इलाके से होकर गुजरनेवाले एनएच 75 की हालत यह है कि इसका अस्तित्व ही गायब हो रहा है। बिजली के लिए पलामू के लोगों को आज भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ रहा है।
जहां तक पलामू में औद्योगिक विकास और शिक्षा व्यवस्था का सवाल है, तो इन दोनों मोर्चों पर भी यहां की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। पलामू में किसी भी सरकार ने कोई उद्योग स्थापित करने का कभी प्रयास नहीं किया। जपला का सीमेंट कारखाना इसी उपेक्षा के कारण दम तोड़ चुका है। रेहला स्थित आदित्य बिरला ग्रुप की केमिकल फैक्टरी ही पलामू की औद्योगिक गतिविधि का एक मात्र केंद्र है। शिक्षा के क्षेत्र में भी पलामू की कमोबेश यही स्थिति है। एक विश्वविद्यालय की स्थापना जरूर की गयी है, लेकिन यहां आधारभूत संरचनाओं की भारी कमी है। हाल के दिनों में एक सरकारी मेडिकल कॉलेज भी खोला गया है, लेकिन वहां भी कमियों का अंबार लगा है। निजी क्षेत्र का एक इंजीनियरिंग कॉलेज और रामचंद्र चंद्रवंशी यूनिवर्सिर्टी और मेडिकल कॉलेज जरूर काम कर रहा है। सड़क और बिजली जैसी आवश्यक सुविधाओं के अभाव में यहां का जनजीवन आज भी प्राचीन काल जैसा ही है।
आर्थिक गतिविधियों के अभाव में पलामू प्रमंडल के विकास की गाड़ी रुकी पड़ी है। लेकिन इसके बेटों की चुप्पी का दर्द पलामू की धरती को अधिक है। पलामू में पैदा हुए इन राजनेताओं ने यदि अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने के लिए थोड़ा भी प्रयास किया होता, तो पलामू के किसान हर साल अनावृष्टि का दर्द झेलने के लिए मजबूर नहीं होते। इलाके में विकास की गतिविधियां नहीं हुईं, तो स्वाभाविक रूप से असंतोष फैला। फिर जमींदारों के शोषण से त्रस्त भोले-भाले लोगों में विद्रोह की भावना भरने लगी, तो स्थिति थोड़ी और खराब हुई। इस असंतोष को नक्सली संगठनों ने खूब भुनाया और इसका परिणाम यह हुआ कि यहां नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमा लीं। अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों ने नक्सली संगठनों को खूब खाद-पानी मुहैया कराया। पिछड़ेपन के कारण पलामू आज जो दर्द झेल रहा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसका निदान सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक उपायों से ही हो सकता है। पलामू को जरूरत अपने बेटों की है। ये नेता यदि थोड़ा-थोड़ा प्रयास भी कर लें, तो फिर अकूत हरियाली वाला पलामू देश और झारखंड के विकास में बड़ी भूमिका निभा सकता है। इसके लिए जरूरत इच्छा शक्ति की है। नये साल में उम्मीद की जानी चाहिए कि पलामू के विकास की इबारत जरूरत लिखी जायेगी।

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