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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»बाबरी विध्वंस के गवाह रहे हैं बाबूलाल मरांडी
    स्पेशल रिपोर्ट

    बाबरी विध्वंस के गवाह रहे हैं बाबूलाल मरांडी

    adminBy adminJanuary 19, 2024No Comments16 Mins Read
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    श्री अयोध्या धाम और श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर विशेष शृंखला: 7
    -जब विवादित ढांचा टूटा, तब लग गया कि अब यहां मदिर ही बनेगा
    -दिन-रात, गांव, नगर और टोला में राम मंदिर के प्रचार में लगे थे बाबूलाल
    -घर-घर बताया कि कैसे रामलला के जन्मस्थान पर ताला लगा हुआ है

    देश के पवित्रतम नगर श्री अयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा का दिन जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, करोड़ों सनातनियों का उत्साह बढ़ता जा रहा है। उत्साह, उमंग और उल्लास के इस दौर में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो पूरे राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय रहे और अपनी पूरी क्षमता के साथ इसमें भूमिका निभायी। इन लोगों की यादें आज इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्हें जान कर ही पता चलता है कि इस मंदिर के लिए कितने लोगों ने संघर्ष किया। क्या-क्या त्याग नहीं किया! ऐसे ही कुछ अग्रिम पंक्ति के लोगों में शुमार है झारखंड प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का नाम, जो युवावस्था में ही इस आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गये थे। अब जब राम मंदिर का सपना साकार होनेवाला है और पूरा देश राममय हो चुका है, बाबूलाल मरांडी ने राम मंदिर आंदोलन की अपनी यादों की गठरी को साझा किया। उनकी इस गठरी में समर्पण है, निष्ठा है, संकल्प है और सब कुछ न्योछावर करने का जज्बा है। इस गठरी से निकाल कर बाबूलाल जी ने जो कुछ बताया, उसे सुन कर रोंगटे खड़े हो गये, शरीर में झुरझुरी सी पैदा हो गयी कि राम मंदिर के लिए लोगों ने कितने तरह के और कैसे-कैसे काम किये। यह मंदिर केवल एक मंदिर नहीं, बल्कि उन त्यागों-बलिदानों का जीता-जागता प्रमाण भी है, जिसके उद्घाटन से पूरे देश में एक रोमांच सा पसर गया है। बाबूलाल मरांडी की यादों की इस गठरी को अपने पाठकों के सामने लाने के लिए उनसे विस्तार से बातचीत की आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह ने।

    1980 में ही राम मंदिर आंदोलन में जुड़ गये थे बाबूलाल
    जैसे-जैसे रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का दिन 22 जनवरी नजदीक आ रहा है, अंदर से एक अलग सी ऊर्जा का सृजन हो रहा है। एक ऐसी खुशी, हर्ष और उल्लास का बोध हो रहा है, जिसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। पांच सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद आज भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है। पांच सौ वर्ष पहले बाबर के प्रमुख सेनापति मीरबांकी ने राम मंदिर को ध्वस्त कर बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था। उस दौरान हजारों की संख्या में राम भक्तों के खून से अयोध्या की धरती लाल हुई थी। जब से रामजन्म भूमि पर विवादित ढांचा का निर्माण हुआ, उसके बाद 76 बार युद्ध हुए। असंख्य राम भक्तों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया, लेकिन अब उसका सुखद परिणाम सामने आने वाला है। 22 जनवरी का दिन ऐतिहासिक होने वाला है, जब भगवान राम के बाल स्वरूप रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होगी। मेरे लिए यह दिन बहुत मायनों में विशेष है। आज मेरा मन यह कहते हुए प्रफुल्लित भी है और गर्व की भी अनुभूति हो रही है कि मैं भी राम मंदिर आंदोलन का हिस्सा रहा हूं। 1980 से 90 तक मैं विश्व हिंदू परिषद से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा। वह जो काल खंड रहा, वह एक प्रकार से हिंदू जागरण का काल खंड रहा। जब एकात्मता रथ यात्रा निकली, तब मैं पूरी तरह सक्रिय रूप से उस रथ यात्रा के कार्यक्रमों में शामिल रहा। उन दिनों की याद आज भी मेरे दिलोदिमाग में उसी तरह जीवंत है कि कैसे लोग पूरे उत्साह के साथ इस रथ यात्रा से जुड़े। जन समर्थन इतना कि उसकी भव्यता देखने लायक थी। यह रथ यात्रा हिंदुओं को जागृत करने, एकजुट करने के ध्येय से निकाली गयी थी।

    उस वक्त भी कांग्रेस का विरोध चरम पर था
    लेकिन उस वक्त भी कांग्रेस का रवैया वैसा ही था, जैसा आज है। वह हमेशा हिंदू जागरण के विरोध में ही रही है। उस वक्त भी कांग्रेस पार्टी के लोग एकात्मता रथ यात्रा की आलोचना करते थे। कहते थे कि विश्व हिंदू परिषद वाले गंगा जल को बेच रहे हैं। लेकिन लोगों में इस रथ यात्रा को लेकर इतना उत्साह था, श्रद्धा थी कि वह देखते बनता था। ‘गंगा मैया की जय’ के नारों से वातावरण गूंज जाता। कहते-कहते बाबूलाल मरांडी पुरानी यादों में डूब जाते हैं।

    गाय-गंगा और गीता का संदेश लेकर हिंदुओं को जोड़ा, बताया रामलला किस अवस्था हैं
    उस वक्त मैं गिरिडीह के कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था। गिरिडीह कार्यालय का काम मेरे जिम्मे था। उस दौरान हिंदू जागरण में मेरी भूमिका को भी सराहा गया। मैंने काफी मेहनत की थी। वह दौर याद करता हूं तो एक सुकून मिलता है कि मैं भगवान श्रीराम के कार्य में सम्मलित रहा, क्योंकि हम लोग तो उनकी ही सेना हैं। हमें जो मार्गदर्शन प्राप्त होते, वह उनके की प्रताप से प्राप्त होते, भले माध्यम कोई और होता। दिन-रात हम लोग गांव-गांव जाकर हिंदुओं को जोड़ने का काम करते। गाय, गंगा, गीता का संदेश लेकर लोगों के द्वार जाते। जब राम मंदिर आंदोलन चरम पर था, तो हमारी भूमिका बहुत बढ़ गयी थी। उस दौरान कई राम-जानकी रथ यात्रा निकली। झारखंड में भी निकली। मैं संथाल में था। वहां का कार्य मैं देख रहा था।

    राम रथ को लेकर गांव-गांव भम्रण करते थे
    उस दौर में हम रथ को लेकर गांव-गांव भ्रमण करते थे। उस वक्त जिस तरीके से लोग हमारा स्वागत करते, उसकी अनुभूति कल्पना से परे थी। हम लोग कोई बड़े नेता नहीं थे, हम लोग तो विश्व हिंदू परिषद के साधारण कार्यकर्ता थे। रथ यात्रा लेकर अगर हम देर रात 12 बजे, एक बजे भी पहुंचते, तो लोग हमारा इंतजार करते थे। उनकी श्रद्धा देखते ही बनती थी। पूरा गांव एकजुट हो जाता। हम राम का संदेश लेकर निकले थे, राम मंदिर के बारे में बताते। उस दौरान तो सोशल मीडिया का जमाना नहीं था। हमें टास्क मिला था कि घर-घर जाकर राम मंदिर के बारे में बताना है। राम जी की अयोध्या में क्या स्थिति थी, उससे लोगों को जागरूक करना था। अयोध्या में कैसे भगवान राम एक तरह से कैदखाने में हैं, उनके जन्मस्थान पर ताला लगा हुआ है, उससे लोगों को अवगत करवाना था। समझा जा सकता है कि कितने राम भक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी, इससे भारत के कई हिस्सों में लोग अनभिज्ञ थे। जब लोगों को जानकारी प्राप्त होती, तो उनकी आखें खुलतीं, वे रोते और जन जागरण का हिस्सा बनते।

    जब पहली बार रामलला का दर्शन किया बाबूलाल ने और आंखें डबडबा गयीं
    जब मैं अयोध्या गया था, तो भगवान राम के जन्मस्थान के बाहर ताला लगा हुआ था। हमें बाहर से दर्शन करने पड़ते थे। उस दौरान विश्व हिंदू परिषद का प्रशिक्षण शिविर लगा था। उसी में मैंने भाग लिया था और रामलला के दर्शन किये थे। मुझे बड़ा आश्चर्य लगा और बहुत दुख हुआ कि करोड़ों की आस्था वाले राम, भारत देश में, वह भी अयोध्या में कैद हैं। उनके जन्मस्थान पर ताले लगे हैं। बड़ा जी घबराता यह दृश्य देख कर। गुस्सा भी आता, लेकिन पता था भवान राम एक दिन कैद से बाहर जरूर आयेंगे। हमें जो राम का कार्य मिला है, उसे ईमानदारी से करते जाना है। राह कठिन है, लेकिन राम जी की सेना हर कठिन राह को चुनौती के रूप में लेती है और सफल होती है।

    राम मंदिर का शिला ले जानेवाले ड्राइवर ने जब बाबूलाल से गांजा और चिलम मांगी
    देखिए, हिंदुओं का यह संघर्ष 1528 में ही शुरू हो गया था, जब मीरबांकी ने अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान पर ​बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। इस लंबे संघर्ष में 9 नवंबर की तारीख बेहद महत्वपूर्ण है। इसके दो विशेष कारण हैं। पहला 9 नवंबर 1989 को अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास हुआ, दूसरा 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट का वह ऐतिहासिक निर्णय आया, जिसने अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। शिला पूजन के दौरान भी मैंने प्रत्यक्ष भूमिका निभायी। वह दौर भी क्या दौर था। बिहार में श्रीराम अंकित शिला बनी थी। उस शिला को लेकर हमें अयोध्या जाना था। मेरे साथ एक हरि जी थे, जो प्रचारक थे गोड्डा जिला के। हम दोनों लोग एक बड़े ट्रक में शिलाओं को लेकर अपने निर्धारित स्थान की ओर बढ़ चले। हम गोड्डा से साहिबगंज की ओर बढ़े। सड़क भी बहुत खराब थी। एक समय ऐसा आया कि ड्राइवर ने ट्रक चलाने से मना कर दिया। रात के 10 बजे थे। ड्राइवर ने कहा कि सड़क कहां है, आप जबरदस्ती जंगल की ओर गाड़ी ले जा रहे हैं। मैं नहीं जाऊंगा। मैंने ड्राइवर को कहा कि भैया ऐसा है, हम लोग इतनी शिला लेकर जा रहे हैं। कहीं कोई हमला कर देगा, तो मुश्किल हो जायेगी। लेकिन ड्राइवर जो था, वह समझने को तैयार नहीं था। कह रहा था कि नहीं, यहां कोई रोड ही नहीं है। बात ड्राइवर की सही भी थी। वास्तव में रोड नजर नहीं आ रहा था। मतलब रास्ता था, पिच गायब थी। ड्राइवर स्टीयरिंग छोड़ कर बैठ गया कि नहीं भैया हम नहीं जायेंगे। हम लोगों ने भी ड्राइवर साहब को मनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हाथ जोड़े कि भाई चलो, यहां रुकना सही नहीं है। पता चला तुम भी मारे गये और हम लोगों को मरवा दोगे। भय तो था, इतनी रात थी और सुनसान मार्ग था। अंत मेंं ड्राइवर माना। लेकिन एक शर्त रखी कि थोड़ा सा गांजा पिला दीजिये, तो जायेंगे। हम तो ठहरे विश्व हिंदू परिषद के प्रचारक। पता ही नहीं था कि यह सब कहां मिलता है। और तो और, जंगल में कैसे इसके लिए चिलम की व्यवस्था करवायें। गनीमत से जहां पर गाड़ी रुकी थी, वहां से तीन किलोमीटर की दूरी पर एक ठाकुर गुमटी थी। मैंने गोड्डा जिला के प्रचारक हरिजी की ओर देखा। पूछा क्या किया जाये। कहां मिलेगा। शिला भी लेकर जाना जरूरी है। कैसे होगा। अब तो ड्राइवर साहब के लिए व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। तब हरिजी बढ़ चले ड्राइवर के लिए चिलम-गांजा ढूंढ़ने। बड़ी मशक्कत के बाद व्यवस्था हुई। फिर ड्राइवर ने चिलम से दो-तीन शॉट मारा और ट्रक चलाने के लिए तैयार हुआ। उसके बाद हम लोग आखिरकार साहिबगंज पहुंचे। उस शिला को हमें गांव-गांव पहुंचाना था। फिर शिला को पूजित कर के अयोध्या भेजने का कार्य हमें मिला था। इस मुहिम में प्रत्यक्ष तौर पर मैं जुड़ा रहा।
    चप्पा-चप्पा था बंद, नाव के रास्ते समर्थकों को पहुंचा दिया मसानजोर गेस्ट हाउस, जहां आडवाणी जी को गिरफ्तार कर रखा गया
    1990 में लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का एक संकल्प लेकर गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए 25 सितंबर को रथयात्रा की शुरूआत की। तय किया गया कि 30 अक्टूबर तक रथयात्रा अयोध्या पहुंचेगी। सोमनाथ से दिल्ली होते हुए रथयात्रा बिहार में प्रवेश कर गयी। धनबाद, रांची, हजारीबाग होते हुए पटना पहुंची। पटना का गांधी मैदान आडवाणी को सुनने के लिए आये करीब तीन लाख लोगों का गवाह बना। ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनायेंगे’ के नारे खूब लगे। उसके बाद 22 अक्टूबर 1990 को रथयात्रा समस्तीपुर जिले में पहुंची थी। उस समय मैं भाजपा में आ चुका था। मैं दुमका में रहा करता था। संघ कार्यालय में मैं रहा करता था, चूंकि उस समय वहां भाजपा का आॅफिस नहीं था। 22 अक्टूबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी हाजीपुर के रास्ते रथयात्रा को लेकर कोठिया होते हुए समस्तीपुर जिले में प्रवेश कर रहे थे। इसी कोठिया में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी को लेकर प्रशासन ने योजना बनायी थी। लेकिन रथयात्रा के साथ राम भक्तों की भीड़ ‘जय श्री राम’ के नारों के साथ आगे बढ़ रही थी। जगह-जगह लोग रथ पर फूलों की बरसात कर रहे थे। यह देख प्रशासन ने लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करने की रणनीति बदल दी। इसके बाद रथयात्रा धीरे-धीरे समस्तीपुर पहुंच गयी। इसके अगले दिन यानी 23 अक्टूबर को लालकृष्ण आडवाणी पटेल मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित करनेवाले थे। 22 अक्टूबर को लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा के साथ समस्तीपुर स्थित सर्किट हाउस करीब रात के 11 बजे पहुंचे थे। प्रशासन ने उन्हें कमरा नंबर सात एलॉट किया था। उसमें लालकृष्ण आडवाणी आराम करने चले गये। लालकृष्ण आडवाणी के समस्तीपुर पहुंचते ही पूरे जिले को प्रशासन ने हाइ अलर्ट कर दिया था।

    जब कमरा नंबर सात में आडवाणी को तत्कालीन डीआइजी रामेश्वर उरांव ने किया था गिरफ्तार
    रात के अंधेरे में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के लिए लगाये गये तत्कालीन डीआइजी रामेश्वर उरांव और डीएम आरके सिंह कमरा नंबर सात में पहुंचे। दरवाजे को खटखटाने से गहरी नींद में सो रहे आडवाणी जी की नींद टूट जाती है। जब वह दरवाजा खोलते हैं, तो दोनों अधिकारी उन्हें गिरफ्तार होने की जानकारी देते हैं। इस पर लालकृष्ण आडवाणी हंसते हुए कहते हैं, विनाश काले विपरीत बुद्धि। 23 अक्टूबर की सुबह एक हेलीकॉप्टर पटेल मैदान में उतरा। उसके बाद लालकृष्ण आडवाणी को एक काले रंग की एंबेसडर में बैठा कर सर्किट हाउस से पटेल मैदान के लिए ले जाया गया। तब तक आडवाणी जी की गिरफ्तारी की खबर फैल गयी थी। आडवाणी जी को जब गिरफ्तार करके मसानजोर लाया गया, तब दुमका के जितने भी बड़े नेता थे, सुबह-सुबह पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। एक मैं ही बचा था। मैं संगठन मंत्री था। जब तक आडवाणी जी मसानजोर में नजरबंद रहे, तब तक हम लोगों ने आंदोलन किया। सत्याग्रह किया। रोज गिरफ्तारी होती। वह समय बहुत ही स्ट्रगल वाला था। रोज लोगों को इकठ्ठा करना, आंदोलन करना। शुरू में लोगों को डर लगता था, लेकिन बाद में माहौल कुछ ऐसा बना कि लोग इस अभियान में जोर-शोर से भाग लेने लगे। वहां एक कॉलेज का लॉज था। वहां मेरी अच्छी जान-पहचान थी। मैं जाता रहता था। मैंने कॉलेज के लड़कों से बात की। कहा कि देखो गिरफ्तारियां तो हो रही हैं। लेकिन जहां आडवाणी जी हैं, वहां जाकर गिरफ्तारी देनी है। प्रशासन हर जगह मुस्तैद। चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। कैसे जाया जाये। फिर मैंने कहा कि नाव से जाओ। यही एक रास्ता है। मुझे लगा कि पुलिस का ध्यान इस रास्ते पर नहीं होगा। इसलिए यह प्लान बनाया। उसके बाद नाव ठीक की गयी। नाव से ठीक जहां आडवाणी जी को रखा गया था, उस गेस्ट हाउस के नीचे समर्थक पहुंच गये। उसके बाद सभी गेस्ट हाउस में घुसे, जिंदाबाद के नारे लगे, उसके बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

    मेरे सामने ही टूटा था विवादित ढांचा, विश्वास हो गया, अब यहां बनेगा तो राम मंदिर ही
    6 दिसंबर 1992 को जब विवादित ढांचे को तोड़ा गया, उस वक्त मैं वहीं मौजूद था। उस वक्त लालकृष्ण अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और भी कई साधु-संत भी मौजूद थे। भीड़ बहुत थी। जब लोगों ने ढांचा तोड़ना शुरू किया, तब मंच से आडवाणी जी, जोशी जी ने लोगों को समझाना शुरू किया, लेकिन माहौल ऐसा बना कि कौन मानेगा। उसके बाद ढांचा टूटा। पांच-छह घंटे लगे टूटने में। मैंने यह सब अपनी आंखों से देखा। जब ढांचा टूट रहा था, तब मुझे लगा कि कहीं उसका मलबा लोगों के ऊपर ही नहीं गिर जाये, या जब ढांचा ढहे, तो लोगों को कहीं नुकसान न हो जाये। लेकिन भगवान राम की कृपा थी। किसी को कुछ हुआ नहीं। जब ढांचा टूटा, तब लगा कि इस स्थान पर बनेगा तो राम मंदिर ही बनेगा। मेरा यही मानना है कि अगर उस दिन कार सेवकों ने वह विवादित ढांचा तोड़ा नहीं होता, तो आज राम मंदिर बनने में और समय लग जाता। ढांचा टूटा, तो मैंने कहा कि चलो एक काम तो पूरा हुआ। अब मंदिर बनाना बाकी है। वह भी किसी दिन बन ही जायेगा। सुकून मिला कि जिस काम में हम लोग दिन-रात लगे हुए थे, वह अब सार्थक रूप लेने लगा था। उस दिन हर हिंदू के दिल में एक उत्साह था, जज्बा था। मेरे अंदर भी वही उत्साह और जज्बा था। हम लोग जब इस अभियान से जुड़े थे, तब कहते थे कि ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का’। ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनायेंगे’। जब ढांचा टूटा, तो उसके बाद हम लोग वहां से चले गये। सबको कहा गया कि आप लोग अपने-अपने घर चले जाइये। हम लोग काफी संख्या में झारखंड से गये थे। झारखंड ही नहीं, पूरे देश से लोग वहां गये थे। मैं संथाल में रहता था, वहीं से गया था।

    मुलायम सिंह की चुनौती को स्वीकारा था रामभक्तों ने
    बाबूलाल मरांडी कहते हैं। जब राम मंदिर का आंदोलन चरम पर था, उस समय उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। मुलायम सिंह ने यह मुनानी पिटवा दी थी कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। उन्होंने चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा बल लगा दिये थे। किसी को भी आने-जाने की इजाजत नहीं थी। रामभक्तों ने इसे चुनौती के रूप में लिया और मुलायम सिंह सरकार के प्रशासन की आंखों में धूल झोंक कर वे पहुंचे गये विवादित स्थल पर और फहरा दिया भगवा झंडा।
    आदिवासी परिवारों ने भी राम मंदिर निर्माण के लिए 500-500 रुपये का सहयोग दिया
    22 जनवरी के दिन जब रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होगी, उस दिन करोड़ों सनातनियों का सपना पूरा होगा। जब मैं राम मंदिर आंदोलन से जुड़ा था, मंदिर के बारे में बताया करता था, तब लोगों को लगता नहीं था कि राम मंदिर का निर्माण हो पायेगा। वह बड़ा ही कठिन दौर था। मेरे जैसे व्यक्ति के मन में भी कभी-कभी यह भय सताता कि क्या सच में राम मंदिर का सपना साकार हो पायेगा। लेकिन मेरा यही मानना था कि जब राम के काम में कूद पड़े हैं, तब पूरी निष्ठा के साथ कार्य में लग जाओ। भगवान राम स्वयं मार्ग प्रशस्त करेंगे। आज अयोध्या में जब भव्य राम मंदिर का निर्माण हो रहा है, तब मुझे वह दौर याद आता है कि कितनी तपस्या की गयी है यह दिन लाने के लिए। 1990 का गोलीकांड, राम भक्तों का बलिदान, अयोध्या की गलियां लाल, सरयू नदी का विद्रूप दृश्य, कोठारी बंधुओं का बलिदान, क्या नहीं देखा है अयोध्या ने। 500 सालों के लंबे इंतजार के बाद आज रामलला को उनका स्थान मिलने जा रहा है। मुझे गर्व होता है कि मैं भी राम मंदिर अभियान का एक छोटा सा हिस्सा रहा हूं। मेरा मन झूम रहा है। मैं बहुत खुश हूं। आज अयोध्या के राम मंदिर से जो अक्षत घर-घर बांटा जा रहा है, तब वही दौर याद आता है, जब मैं भी घर-घर जाया करता था। आज लोग जागरूक हैं। उनमें उत्साह है। पूरा माहौल राममय हो चुका है। हर कोई नम आखों से अक्षत ग्रहण कर रहा है। खुशी से झूम रहा है। हमारे आदिवासी समाज के लोग भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। वे भी मंदिर के नाम पर दान कर रहे हैं। यहां एक घटना का जिक्र करना जरूरी है। वैसे तो राम मंदिर निर्माण के लिए सहयोग लेना विश्व हिंदू परिषद की ओर से किया जा रहा था, लेकिन हम भी इस कार्य से जुड़ गये थे। हम लोग इस क्रम में कांके गये थे। वहां एक ट्राइबल परिवार था। हमको नहीं लगा कि ये लोग सहयोग देंगे। लेकिन जितने भी आदिवासी घरों में हम लोग गये, सबने 500-500 रुपये दिये। कह रहे थे अयोध्या में भगवान राम का मंदिर बन रहा है, तो हम कैसे पीछे रहें। यह हमारा सौभाग्य है कि हम लोग भी इस अभियान से जुड़े, क्योंकि प्रभु राम तो सबके हैं। यह दृश्य देख कर मुझे लगा कि क्या लीला है राम की। वह सभी के दिलों में बसते हैं।
    मैं भी 22 जनवरी को रांची में मंदिर जाऊंगा। पूजा अर्चना करूंगा। लोगों के बीच रहूंगा। राम धुन सुनूंगा। दिया जलाऊंगा। भगवान राम के आगमन का स्वागत करूंगा।

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