रांची। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद बीजेपी हिंदी पट्टी इलाकों को लेकर बेहद सतर्क है। इसी सिलसिले में बीजेपी झारखंड में भी किसी नुकसान का सामना नहीं करना चाहती, और इसके लिए पार्टी हर स्तर पर अपनी सीटें बचाने की कवायद कर रही है। निचले से शीर्ष स्तर तक दावे किये जा रहे हैं कि इस बार झारखंड में बीजेपी सभी 14 सीटों पर जीत दर्ज करेगी, लेकिन कड़वा सच यह भी है कि एकीकृत बिहार के जमाने से और अलग झारखंड राज्य गठन के बाद बीजेपी इस इलाके की सभी चौदह सीटों पर कभी जीत दर्ज नहीं कर सकी है। साल 2014 का परिणाम ही उसके लिए रिकॉर्ड रहा, जब बीजेपी 14 में से 12 सीटों पर जीत दर्ज की और रिकॉर्ड 47 लाख 44 हजार वोट लायी। नरेंद्र मोदी की लहर का यह नतीजा था।

लेकिन क्या मोदी की लहर अभी झारखंड में उसी रफ्तार में कायम है। क्या बीजेपी 47 लाख 44 हजार 315 वोटों का रिकॉर्ड बचा पायेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की सीधी नजर झारखंड पर पहले से रही है, और वह इसलिए कि बीजेपी अभी एक-एक सीट जोड़ने के लिए कोई रणनीति खाली नहीं छोड़ना चाहती। बिहार में जदयू के सामने झुक कर और तामिलनाड़ु में एआइएडीएमके के साथ बीजेपी के तालमेल को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के बाद पीएम की नजरें झारखंड पर विशेष तौर पर इनायत रही हैं। साढ़े चार साल में केंद्र ने हजारों करोड़ की योजनाएं झारखंड को दी है। लेकिन चुनावों में वोटों के समीकरण और एंटी इनकंबैसी हवाओं के साथ कई दफा रणनीति, विकास के तमाम दावे और नेताओं के नाम, ब्रांड पीछे छूट जाते हैं। भारतीय राजनीति ने इसे देखा- परखा है।

2014 के चुनाव में झारखंड में विरोधी दलों को 54 लाख वोट मिले थे। इनमें लगभग 47 लाख वोट कांग्रेस, झारखंड विकास मोर्चा, झारखंड मुक्ति मोर्चा और राजद के थे, और चार सीटों पर चुनाव लड़कर झामुमो ने 12 लाख 50 हजार 31 वोट लाये थे। पलामू में राजद दूसरे नंबर पर था। कांग्रेस और झामुमो ने गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा था। राजद के लिए पलामू की सीट छोड़ी गयी थी, जबकि जेवीएम ने अकेले लड़ कर 15 लाख 12 हजार वोट हासिल किये थे।
हालांकि कांग्रेस, जेवीएम और राजद के अलावा वाम दलों को किसी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई थी, लेकिन जेएमएम ने मोदी लहर में राजमहल और दुमका की सीट जीत कर जरूर बीजेपी को सकते में डाला था। वैसे 2014 के चुनाव में हार के बाद इस बार बीजेपी अब दुमका और राजमहल की सीट जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। दरअसल दुमका में जेएमएम प्रमुख शिबू सोरेन लंबे समय से चुनाव जीतते रहे हैं। और संताल परगना में शिबू आदिवासियों के बीच सर्वमान्य नेता हैं। बीजेपी यह शिद्दत से महसूस करती है कि संताल परगना में जेएमएम की जड़ें कमजोर करके ही वह सत्ता पर काबिज रह सकती है। खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास की नजरें संताल परगना पर टिकी हंै। हाल ही में रघुवर दास ने संतालपरगना में चुन-चुन कर जेएमएम विधायकों- सांसदों के क्षेत्र में बीजेपी की चौपाल लगायी थी।

वोट समीकरण को मजबूत करेगी झारखंड बीजेपी

2014 के चुनाव में धनबाद में बीजेपी के उम्मीदवार पीएन सिंह को रिकॉर्ड 5 लाख 43 हजार 491 वोट मिले थे, और कांग्रेस को उन्होंने लगभग तीन लाख वोटों से हराया था। इसी तरह रांची में रामटहल चौधरी को 4 लाख 48 हजार 729 वोट मिले थे। झारखंड में कांग्रेस के दिग्गज माने जाने वाले सुबोधकांत सहाय रांची में लगभग दो लाख वोट से हार गये थे।

उधर हजारीबाग में जयंत सिन्हा को 4 लाख 6 हजार 931 वोट और पलामू में बीजेपी के बीडी राम को 4 लाख 76 हजार 513 वोट मिले थे। दोनों उम्मीदवारों ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को लगभग दो-दो लाख वोटों के अंतर से हराया था। लेकिन नरेंद्र मोदी की लहर में भी लोहरदगा में बीजेपी के सुदर्शन भगत महज 6489 और गिरिडीह में रवींद्र पांडे 40 हजार 313 और गोड्डा में निशिकांत दूबे 60 हजार 613 वोटों से चुनाव जीते थे। वोटों का यह समीकरण बीजेपी उम्मीदवारों को अब भी डराता है।

चाईबासा में गीता कोड़ा को कांग्रेस ने अगर उतार दिया, तो बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ हांफते नजर आ सकते हैं। गीता कोड़ा ने पिछले चुनाव में अपने दम पर बीजेपी को सीधी चुनौती दी थी। झारखंड में बीजेपी 2004 के चुनाव परिणाम को भी नहीं भूलना चाहेगी। उस चुनाव में यूपीए ने फूलप्रूफ गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा था। और राज्य की 13 सीटों पर बीजेपी हार गयी थी। इसके बाद यूपीए के घटक दलों के बीच फूलप्रूफ गठबंधन नहीं हो सका।

जाहिर है 2004, 2009 और 2014 के चुनाव परिणाम से सबक लेते हुए और वोटों के बंटवारे को रोकने की गरज से झामुमो, राजद, झाविमो और कांग्रेस एक प्लेटफॉर्म पर आना चाहते हैं। हालांकि गोड्डा सीट को लेकर विपक्षी दलों में जिच कायम है। अगर ये जिच दूर हो गयी, तो वोटों के समीकरण के पैमाने पर इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी को इस चुनाव में झारखंड में बेहद कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। इसके साथ ही यह भी तय है कि विपक्ष में कोई सशक्त गठबंधन नहीं बना, तो बीजेपी का वोट उनकी दीवार में दरक लगाने के लिए अहम हो सकता है।
बदलती परिस्थितियों में इसकी गुंजाइश बढ़ी है कि बीजेपी झारखंड में आजसू को लोकसभा चुनाव में साथ रखकर वोट समीकरण के टांके को मजबूत करे। ऐसी परिस्थिति में आजसू को कम से कम एक सीट बीजेपी दे सकती है। लेकिन भाजपा की पेशकश को आजसू मानेगा ही, इसमें संदेह है। अभी तक तो आजसू ने यही संकेत दिया है कि चुनाव में उसकी राह भाजपा से अलग है।

मौजूदा हालात में भाजपा के सामने कई चुनौतियां हैं और चुनाव में खतरा झलक रहा है। यह महसूस करने के बाद भी बीजेपी के रणनीतिकारों और नेताओं को इन बातों का भरोसा है कि केंद्र और राज्य की सरकार ने विकास के जो काम किये हैं, वे चुनाव में उनके काम आयेंगे। दूसरा यह कि नरेंद्र मोदी का चेहरा जनता के सामने है और चुनाव में नरेंद्र मोदी ही सबसे बड़े खेवनहार होंगे। वैसे बीजेपी ने जोरदार ढंग से चुनावी बिसात बिछा दी है, और झारखंड समेत हर राज्य में उसकी मुहिम तेज है।

बीजेपी के पास नेता, वक्ता कार्यकर्ता और साधन- सुविधा ज्यादा हैं, लेकिन विपक्ष को इसका भरोसा है कि वोटरों का मिजाज बीजेपी के खिलाफ है और बीजेपी का आत्मविश्वास यहीं पर धरा रह जायेगा। छत्तीसगढ़ चुनाव परिणाम की हवा का असर भी झारखंड में हो सकता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हाल ही में बीजेपी के एक कार्यक्रम में शामिल होने रांची आये छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमण सिंह ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को अति आत्म विश्वास से बचने की सलाह दी थी। रमण सिंह ने यह भी कहा कि अति आत्मविश्वास के कारण उनका सेल्फ विकेट गिरा।

वैसे भी झारखंड में हवा का रुख भांपने और चुनावी राजनीति का मर्म समझने में बीजेपी के कई पुराने और अनुभवी नेता हैं जिन्हें ये बातें डराती रही हंै कि सरकार के कुछ फैसले के खिलाफ और जमीन के सवाल पर भड़का आंदोलन कम- से- कम आदिवासी और खेतिहर इलाकों में उनकी जमीन हिला सकती है। पिछले कुछ महीनों के दौरान बीजेपी, उसकी सरकार और रणनीतिकार आदिवासी वोट संभालने के लिए कई किस्म की कोशिशें करते रहे हैं। परंपरागत वोट संभालने की खातिर संघ की भी अंदर ही अंदर सक्रियता बढ़ी है। केंद्र और राज्य में बीजेपी की सरकार के कामकाज और सबका साथ सबका विकास के मंत्र की तमाम दुहाई के बाद भी साढ़े चार साल के दौरान झारखंड में उपचुनाव के मूड को देखें, तो बीजेपी या एनडीए के लिए बहुत मुफीद नहीं माना जा सकता।

आजसू के विधायक कमलकिशोर भगत के सजायाफ्ता होने के बाद लोहरदगा विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में आजसू की हार हो गयी। यहां बीजेपी ने आजसू का साथ दिया था। पलामू के पांकी में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने कब्जा बरकरार रखा और बीजेपी की हार हुई। इसी तरह गोमिया में हुए उपचुनाव में बीजेपी और उसके घटक दल आजसू की हार हुई और झामुमो ने कब्जा बरकरार रखा। सिल्ली विधानसभा उपचुनाव में आजसू प्रमुख सुदेश महतो हार गये और झामुमो ने कब्जा बरकरार रखा। इससे पहले गोड्डा विधानसभा के लिए हुए उपचुनाव में बीजेपी सीट जरूर बचा सकी। लेकिन हाल ही में हुए कोलेबिरा विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी हार गयी और बिना झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन के कांग्रेस ने इस सीट पर जीत हासिल कर बीजेपी को सकते में डाल दिया।

इधर विपक्ष ने पूरे राज्य में मुहिम छेड़ रखी है। झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन ने चुनावी समां बांधने के ख्याल से ही संघर्ष यात्रा की शुरूआत की है। पिछले तीन महीने के दौरान हेमंत सोरेन राज्य में एक-एक विधानसभा क्षेत्र जाकर बीजेपी विरोधी वोटों को लामबंद करने की कोशिशें कर रहे हैं। इधर सुबोधकांत सहाय और बाबूलाल मरांडी कतई नहीं चाहते कि साढ़े चार साल से विपक्ष को एक प्लेटफॉर्म पर खड़ा करने और बीजेपी के खिलाफ जनसंगठनों को साथ लेकर चलने की जो कोशिशें उन दोनों ने की हैं और जो तस्वीरें बनी हैं वह एक झटके में परदे से उतर जाये। दरअसल विपक्ष को इसका अहसास है कि वोटों का बंटवारा रोक सके, तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ती जायेंगी। इधर विपक्ष के खिलाफ बीजेपी के तरकस में जो तीर सजते दिख रहे हैं, वे पहले भी आजमाये जा चुके हैं। इनमें एक बात उसके लिए अहम होगी कि सरकार ने साढ़े चार साल में जनता का दिल जीता, या विश्वास खोया, इससे ज्यादा अहम होगा कि बीजेपी अपने वोट बैंक को कैसे सहेज सकेगी।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version