खबर विशेष में हम चर्चा कर रहे हैं भाजपा में झाविमो के विलय के बाद बाबूलाल मरांडी के सामने आनेवाली चुनौतियों की। दरअसल बाबूलाल मरांडी की 14 वर्षों बाद भाजपा में घर वापसी हो रही है। इससे सभी उत्साहित हैं। पक्ष और विपक्ष सभी इस विलय पर नजरें गड़ाये हुए हैं। भाजपा के नये भविष्य को लेकर आंकलन हो रहा है और चर्चाएं भी। ज्यादातर भाजपा समर्थक इसे सुखद संयोग बता रहे हैं, परंतु कुछ सच्चाई इससे इतर भी है। बाबूलाल मरांडी के सामने भाजपा में फूलों भरी ही नहीं, कांटों भरी राह भी है। उनके लिए भाजपा की डगर हिचकोले खाने वाली भी है। विलय के बाद भाजपा में जहां उन्हें अपने लोगों को सम्मानजनक जगह दिलाने की चुनौती होगी, वहीं उन्हें झारखंड भाजपा को रघुवर दास के प्रभुत्व से बाहर निकालना होगा। रघुवर दास के बेरुखे व्यवहार से पार्टी से कट चुके नेताओं को पार्टी के साथ जोड़ना भी होगा। बाबूलाल मरांडी को ऐसे लोगों से पार्टी को बचाना होगा, जो पार्टी के नीति निर्धारक तो बन गये थे, पर जनता में उनकी राजनीतिक हैसियत थी ही नहीं। पार्टी से विमुख हो चुकी जनता और शुभचिंतकों का खोया विश्वास वापस पाना भी टेढ़ी खीर से कम नहीं होगा। कुछ खास किस्म के ठेकेदार, जिनकी आर्थिक मदद से पार्टी का खर्च चल रहा था, उनके प्रभाव से पार्टी को मुक्त कराना भी बड़ा टास्क होगा। रूठे कार्यकर्ताओं का दिल जीतना और और सबके साथ सामंजस्य बिठाना भी आसान नहीं होगा। इसके अलावा पुराने कद्दावर नेताओं को साधना, जो पार्टी चलाने की आकांक्षा रखते थे, उनसे तारतम्य बिठाना भी मुश्किल पेश कर सकता है। पेश है भाजपा में बाबूलाल की मौजूदगी के मायने को तलाशती हमारे राज्य समन्वय संपादक दीपेश कुमार की ये रिपोर्ट।

झारखंड विधानसभा चुनाव-2019 में हार और सत्ता से बेदखल होने के बाद राज्य भाजपा के सामने नेतृत्व का संकट दिख रहा था। सांसद और विधायक तो हैं, लेकिन नेतृत्वकर्ता और संगठनकर्ता नहीं। विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली करारी हार के कारणों की समीक्षा के उपरांत आलाकमान ने पाया कि यह हार भाजपा की नीतियों की वजह से नहीं, बल्कि रघुवर दास के अड़ियल रवैये के कारण हुई है। यही कारण है कि उसने ऐन-केन प्रकारेण बाबूलाल मरांडी को पार्टी में शामिल कराने की मुहिम में जुट गयी। अंतत: उसे सफलता मिली और बाबूलाल मरांडी फिर अपने पुराने घर में लौटने को तैयार हो गये। अब भाजपा बिन मांगे उन्हें सब कुछ दे रही है।
दोनों के बीच जो सहमति बनी है उसके अनुसार झारखंड में बाबूलाल की घर वापसी कुछ उसी तर्ज पर होने जा रही है, जैसे कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा की हुई। भाजपा में शामिल होने के बाद येदियुरप्पा को पुराना रुतबा मिला। उनके नेतृत्व में भाजपा ने पांच साल तक संघर्ष किया। चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी तो येदियुरप्पा का कर्नाटक में राज्याभिषेक हुआ। मुख्यमंत्री बने। भाजपा में शामिल होने के बाद की बाबूलाल की झारखंड में पोजिशनिंग भी तय हो गयी है। एक तरह से वही झारखंड भाजपा के सर्वेसर्वा होंगे। उनके नेतृत्व में ही महागठबंधन सरकार के खिलाफ भाजपा पांच साल तक संघर्ष करेगी। इसकी रचना बुन ली गयी है। पर बाबूलाल के लिए यह बहुत आसान भी नहीं है। भाजपा आलाकमान भी इसे जानता है। आलाकमान यह भी जानता है कि बाबूलाल ही वह व्यक्ति हैं, जो इन चुनौतियों का सामना कर भाजपा को भंवरजाल से बाहर निकाल कर मंजिल तक पहुंचा सकते हैं। ऐसा वह पहले भी कर चुके हैं।

ये होंगी मुख्य चुनौतियां
आज भाजपा कई मुश्किल चुनौतियों से घिरी है। विधानसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी की अंदरूनी समस्याएं एक-एक कर सामने आ रही हैं। अब यह सभी को अहसास होने लगा है कि किस कदर पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास पार्टी और संगठन पर हावी थे। उनके राज में प्रदेश अध्यक्ष का पद डमी बन कर रह गया था। पार्टी के अंदर रघुवर की ही तूती बोल रही थी। उनके व्यवहार और रवैये से पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता और पदाधिकारी अपमानित होकर अलग हो गये थे। हालात यह हैं कि अभी भी पार्टी के 20 से 25 प्रतिशत कार्यकर्ता नाराज हैं या हाशिए पर चले गये हैं। ऐसे कार्यकर्ता, जो संगठन की रीढ़ हैं, उनकी नाराजगी का खामियाजा पार्टी ने सत्ता खोकर चुकायी है। ऐसे कार्यकर्ताओं को सबसे पहले मनाना और उन्हें पार्टी की मुख्यधारा से जोड़ना बाबूलाल मरांडी के लिए आसान नहीं होगा। इतना ही नहीं, कई ऐसे पदधारी जो पिछली सरकार के कार्यकाल में नीति निर्धारक बन गये थे, उन्हें हटा कर समर्पित नेताओं-कार्यकर्ताओं को सम्मानजनक जगह दिलाना भी बाबूलाल के लिए चुनौती भरा काम होगा।

चापलूसो-अफसरशाही से चंगुल से निकालना होगा पार्टी को
बाबूलाल मरांडी जब भाजपा के खेवनहार बनेंगे, तब कई ऐसे लोगों से भी उनका सामना होगा, जो अब तक चापलूसी औ अफसरशाही के बल पर पार्टी में कब्जा जमाये हुए थे और जिनके कारण निष्ठावान कार्यकर्ता और पदाधिकारी हाशिए पर चले गये थे। साथ ही रघुवर दास ने जिन महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोगों को बिठा रखा था, इन्हें सहूलियत से किनारे करना भी आसान नहीं होगा। रघुवर दास के प्रभुत्व के दौरान कई ठेकेदारों का जमघट भी यहां लगने लगा था। एक ठेकेदार ने तो मानो पार्टी को गोद ही ले लिया था।
हर माह उनका एक आदमी पार्टी के लिए पैसे पहुंचाता था। ये ऐसे ठेकेदार हैं, जो मधु कोड़ा के कार्यकाल में भी हावी रहे थे और रघुवर दास के कार्यकाल में तो मंच भी शेयर करते थे। ये ठेकेदार राजबाला वर्मा के दत्तक पुत्र के समान थे। सरकार के अधिकांश बड़े ठेके-पट्टे उनके नाम कर दिये गये और उन्होंने अपनी मर्जी से जिसे चाहा, उसे बांटा। ऐसे लोगों ने सिर्फ पार्टी का बेड़ा ही गर्क किया। चूंकि भाजपा के शासनकाल में सीएम ही संगठन पर हावी थे, इसलिए चापलूसों की भरमार होती गयी। कई ए९से चापलूसों ने पद पा लिया, जो सीएम हाउस से लेकर भाजपा कार्यालय तक सिर्फ रघुवर दास के आगे पीछे ही करते रहे। संगठन में भी उनकी चलती रही और वे सीएम को भी चलाते रहे। नतीजा आज सबके सामने है। इन सभी लोगों के चंगुल से भाजपा को बाहर निकालना इतना आसान भी नहीं होगा। हालांकि बाबूलाल मरांडी सुलझे हुए और दूरदर्शी नेता हैं। इसका उदाहरण कुछ दिनों पहले ही उन्होंने पेश किया है, जब उन्होंने बड़ी सफाई से दूध में से मक्खी की तरह बंधु तिर्की और प्रदीप यादव को झाविमो से बाहर का रास्ता दिखाया। इसलिए माना जा रहा है कि उन्हें इन चुनौतियों से निपटने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी।

भाजपा को बाबूलाल जैसे कुशल संगठनकर्ता की जरूरत
झारखंड विधानसभा चुनाव-2019 में हार और झारखंड की सत्ता से बेदखल होने के बाद राज्य भाजपा के सामने नेतृत्व का संकट खड़ा हो गया है। भाजपा के पास सांसद और विधायक तो हैं लेकिन नेतृत्वकर्ता और संगठनकर्ता नहीं हैं। पांच साल तक राज्य में सरकार चला चुके रघुवर दास खुद विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। शर्मनाक यह रहा कि मुख्यमंत्री रहते हुए रघुवर दास अपनी सीट नहीं बचा सके। यहीं से भाजपा नेतृत्व सोचने को विवश हुआ। और बाबूलाल के लिए घर वापसी का दरवाजा खुल गया।

कायम होगा साल 2003 से पहले का रुतबा
झाविमो का भाजपा में विलय के बाद बाबूलाल मरांडी की झारखंड में क्या भूमिका होगी? इस पर चर्चा अब हो रही है। कहा जा रहा है कि बाबूलाल के सामने तीन विकल्प दिये गये हैं। पहला-केंद्र सरकार में मंत्री। दूसरा-झारखंड प्रदेश भाजपा अध्यक्ष। तीसरा-झारखंड विधानसभा में विरोधी दल का नेता। वैसे बाबूलाल को तय करना है कि उन्हें किस पद पर रहकर झारखंड में भाजपा का नेतृत्व करना है। वैसे झारखंड भाजपा नेतृत्व पूरी तरह बाबूलाल के हाथ में होगा, साल 2003 से पहले जैसा। जब अर्जुन मुंडा झारखंड के मुख्यमंत्री नहीं बने थे और बाबूलाल ही झारखंड में भाजपा के चेहरा थे। भले ही बाबूलाल का पुराने रुतबे में लौटना किसी को अटपटा लग सकता है, लेकिन भाजपा में यह नयी बात नहीं है। सबसे ताजा उदाहरण तो बीएस येदियुरप्पा हैं। भाजपा छोड़ कर्नाटक जनता पार्टी बनायी। सफलता नहीं मिली तो भाजपा में घर वापसी हो गयी। पुराना रुतबा मिला। उमा भारती ने भी भाजपा छोड़ अपनी पार्टी बनायी। मध्यप्रदेश में सफलता नहीं मिली तो भाजपा में वापसी हुई। इसके बाद भाजपा ने यूपी विधानसभा चुनाव में उमा भारती को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा। यह और बात है कि उमा भारती को यूपी में सफलता नहीं मिल सकी।

बाबूलाल मरांडी में आरएसएस के संस्कार
बाबूलाल मरांडी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांचे में ढले हुए नेता हैं। यह कहना गलत न होगा कि आरएसएस ने ही झारखंड में आदिवासियों के सबसे बड़े नेता झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन के मुकाबले के लिए बाबूलाल मरांडी को तराश कर कुशल संगठनकर्ता बनाया। झारखंड राज्य बनने से पहले भाजपा ने वनांचल प्रदेश कमेटी बनाकर बाबूलाल को अध्यक्ष बनाया। दुमका लोकसभा क्षेत्र में शिबू सोरेन के सामने खड़ा किया। 1998 के लोकसभा चुनाव में जब दुमका के अखाड़े में शिबू सोरेन को पराजित किया तो अचानक बाबूलाल मरांडी का कद बड़ा हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्र में मंत्री बनाया गया। 15 नवंबर, 2000 को झारखंड बना तो भाजपा ने बाबूलाल को मुख्यमंत्री बनाया। 2003 में तत्कालीन समता पार्टी के विधायकों ने बगावत की तो मरांडी को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उनकी जगह ही अर्जुन मुंडा ने। फिर 2005 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सरकार बनी तो अर्जुन मुंडा ही मुख्यमंत्री बने। यहीं से बाबूलाल के मन में एक टीस हुई और 2006 में भाजपा से रिश्ता तोड़ लिया।

आदिवासी-गैर आदिवासी के बीच एक समान पकड़
बाबूलाल मरांडी की खासियत यह है कि आदिवासी और गैर आदिवासी में समान रूप से पकड़ है। वे पहली बार आदिवासियों के लिए आरक्षित दुमका लोकसभा सीट से 1998 में निर्वाचित हुए। इसके बाद 1999 में भी दुमका में जीत दर्ज की। इसके बाद वे लगातार गैर आदिवासी सीटों से ही सांसद और विधायक बने। साल 2000 में झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बनने के बाद बाबूलाल मरांडी सामान्य विधानसभा क्षेत्र रामगढ़ से उप चुनाव लड़कर झारखंड विधानसभा में पहुंचे। 2004 में सामान्य लोकसभा सीट कोडरमा से जीत दर्ज कर लोकसभा में वापसी की। 2006 उप चुनाव और 2009 आम चुनाव में भी बाबूलाल मरांडी ने कोडरमा लोकसभा सीट से जीत दर्ज की। झारखंड विधानसभा चुनाव- 2019 में बाबूलाल धनवार विधानसभा सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे हैं। यह भी सामान्य सीट है। इससे जाहिर है कि बाबूलाल आदिवासी चेहरा होते हुए गैर आदिवासियों के बीच भी समान रूप से लोकप्रिय हैं। यही कारण है कि भाजपा आलाकमान ने उन पर बड़ा दांव खेला है।

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