प्राण हिंदी सिनेमा के सबसे खतरनाक खलनायक माने जाते थे। इतने खतरनाक कि किसी ने साठ के दशक से अपने बच्चों का नाम प्राण नहीं रखा। इतने खौफनाक कि दोस्त की बहन ने तो उनके सामने आने से ही मना कर दिया। लोगो में मन में उनके प्रति इतनी नफरत कि कहीं भी जाते तो लोग उन पर ‘बदमाश, चार सौ बीस, लोफर, गुंडा- जैसे फिकरे कसते। एक बार दिल्ली के एक होटल में ठहरे तो एक परिवार ने उन्हें वहां देख अपने वहां ठहरने का इरादा यह कहते हुए बदल दिया कि ‘अरे यहां पर भी ऐसे लोग आते हैं?’
लेकिन फिर एक ऐसा दौर भी आया जब यही शरीफ बदमाश लोगों का चहेता चरित्र अभिनेता बन गया। लोग उन्हें ‘केहर सिंह’, ‘मलंग चाचा’ ‘शेरखान’ की यादगार भूमिकाओं के लिए सम्मान देने लगे। हालांकि इंडस्ट्री के लोग उनकी नेकनीयत के कायल थे और पहले से ही ‘शरीफ बदमाश’ और ‘बदनाम फरिश्ता’ के नाम से बुलाते और सम्मान देते थे। छह दशकों के अपने लंबे फिल्मी करियर में इस शरीफ बदमाश ने लगभग 375 फिल्मों में काम किया और दर्शकों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया और उनसे एक जादुई रिश्ता कायम किया।
साठ साल के अपने लंबे और सक्रिय फिल्मी जीवन में प्राण का कभी किसी से कोई विवाद नहीं हुआ। हां एक विवाद उनसे अवश्य जुड़ा लेकिन इसकी पृष्ठभूमि खुद उन्होंने किसी और को उचित सम्मान दिलाने के लिए तैयार की थी। उस समय सबसे बड़ा और लोकप्रिय फिल्म पुरस्कार टाइम्स ऑफ इंडिया की अंग्रेजी फिल्म पत्रिका फिल्म फेयर के नाम पर फिल्मफेयर पुरस्कार होता था। इसे पाने की तमन्ना सभी रखते थे । सन 1972 में प्रदर्शित फिल्म ‘बेईमान’ जिसमें प्राण ने ईमानदार कांस्टेबल की भूमिका निभाई थी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार देने की घोषणा की गई। पुरस्कार समारोह 21 अप्रैल 1973 को संपन्न होना था किंतु प्राण ने पुरस्कार के कर्ताधर्ता और फिल्मफेयर के संपादक बीके करंजिया को पत्र (19 अप्रैल, 1973 ) लिखकर इसे लेने से मना कर दिया। उनका कहना था कि इस वर्ष संगीतकार का पुरस्कार जो उनकी ही फिल्म ‘ बेईमान ‘ के लिए शंकर जयकिशन को दिया जा रहा जो उन्हें न देकर ‘ पाकीजा’ फिल्म के संगीतकार स्वर्गीय गुलाम मोहम्मद को दिया जाना चाहिए। उनके इस साहसिक कदम से फिल्म इंडस्ट्री में खलबली मच गई और लोग दो खेमों में बंट गए। फिल्म फेयर ने इस पर जब यह तर्क दिया कि पुरस्कार उनके स्वर्गीय होने के कारण नहीं दिया गया तब प्राण ने कहा कि अगर ऐसा था तो यह सब को सूचित किया जाता। उन्होंने विगत में स्वर्गीय लोगों को दिए पुरस्कारों के बारे में भी बताया। खैर प्राण पुरस्कार समारोह में नहीं गए और उनके पुरस्कार की घोषणा के समय पूर्व में लिखे उनके विरोध पत्र का कोई जिक्र स्टेज पर नहीं किया गया। जबकि उसे कई फिल्मी पत्रिकाएं पहले ही छाप चुकी थीं। खैर इसका नतीजा यह हुआ कि इस विवाद के चलते अगले 25 वर्षों तक कोई भी फिल्म फेयर अवार्ड उन्हें नहीं दिया गया। हां, वर्ष 1997 में फिल्म फेयर ने उन्हें विशेष वरिष्ठ पुरस्कार से सम्मानित कर इस विवाद से मानो मुक्ति पाई।
चलते-चलते प्राण अपने अधिकतर साक्षात्कारों में अपनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के रूप में ‘हलाकू ‘ का उल्लेख करते थे और अन्य पसंदीदा फिल्मों में ‘ मधुमति ‘, ‘ जिस देश में गंगा बहती है ‘, ‘ शहीद ‘, ‘ दिल दिया दर्द लिया ‘, ‘ उपकार ‘, ‘ विक्टोरिया नंबर 203 ‘ और ‘ जंजीर ‘ का नाम लेते थे। डीडी कश्यप द्वारा निर्मित निर्देशित फिल्म ‘ हलाकू ‘ 1956 में रिलीज हुई थी। प्राण इसमें मुख्य भूमिका यानी हलाकू के रूप में थे और मीना कुमारी, अजीत, बीना, शम्मी आदि अन्य कलाकार थे। प्राण की नजर में फिल्म की कई खासियतें थीं जैसे यह पहली फिल्म थी जिसका टाइटल खलनायक के नाम पर रखा गया था। सबसे खास बात थी फिल्म में प्राण का अनोखा मेकअप। विशिष्ट पोशाकें यानी गेट अप और जोरदार संवाद। हलाकू मंगोल और तातार जनजातियों के खूंखार नायक चंगेज खान का पोता था। मीना कुमारी जो फिल्म की नायिका थीं को जब निर्देशक से यह पता चला कि हलाकू की भूमिका प्राण कर रहे हैं तो थोड़ी निराश हुईं । लेकिन सेट पर आते ही जब उन्होंने प्राण का मेकअप और गेट अप देखा तो उसकी तारीफ किए बिना न रह सकीं। इस फिल्म के यादगार संवाद आगा जानी कश्मीरी के थे जिन्हें प्राण ने रुक- रुक कर एक खास अंदाज में बोला था। इस किरदार को निभाने के लिए उन्होंने पहली बार अपनी प्रिय मूंछों का भी त्याग किया था।
(लेखक, वरिष्ठ फिल्म और कला समीक्षक हैं।)