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सीख: राष्ट्रीय आकांक्षाओं की बजाय अपने राज्य पर ही फोकस करना होगा क्षेत्रीय दलों को

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ने जहां नये सियासी समीकरण के पुख्ता संकेत पैदा किये हैं, वहीं एक बड़ी चुनौती भी पेश की है। यह चुनौती उन क्षेत्रीय दलों के सामने पैदा हुई है, जो अपने-अपने राज्यों से बाहर निकलने का सपना देखने लगे थे, यानी उनकी आकांक्षाएं केंद्रीय सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने लगी थीं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान क्षेत्रीय दलों ने जो रवैया अपनाया, उससे यह भी साफ हो गया कि ये दल अलग-अलग रह कर अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं। अतीत में भी ऐसा ही हुआ है, लेकिन उससे किसी क्षेत्रीय दल ने सबक नहीं सीखा है। चाहे ममता बनर्जी हों या तेलंगाना के चंद्रशेखर राव, लालू-तेजस्वी हों या अरविंद केजरीवाल और उमर अब्दुल्ला या अखिलेश यादव या फिर शरद पवार-उद्धव ठाकरे हों, किसी में भी इतनी ताकत नहीं है कि भाजपा और कांग्रेस में से किसी को भी चुनौती दे सके। दिल्ली चुनाव ने यह साफ संदेश दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य खिलाड़ियों में भाजपा और कांग्रेस ही रहेगी। बाकी के दल केवल साइड रोल में रह सकते हैं। दिल्ली चुनाव परिणाम का दूसरा अहम संदेश यह है कि क्षेत्रीय दलों को अब तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इस तरह के प्रयोग कम से कम भारत में नहीं चल सकते हैं। कुल मिला कर दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम देश की सियासी धारा में पिछले कुछ समय से चल रहे अनुप्रयोगों के संभावित परिणाम, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, को फिल्टर करने में काफी हद तक सफल रहा है और अब आगे आनेवाले दिनों में इसी परिणाम के इर्द-गिर्द सियासत की गाड़ी दौड़ेगी। दिल्ली चुनाव परिणाम के बाद क्या होगा क्षेत्रीय दलों का भविष्य और उनकी रणनीति, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम ने देश की सियासत में कुछ नये सवाल पैदा कर दिये हैं। इन सवालों में सबसे प्रमुख यह है कि अब इंडी गठबंधन का क्या होगा और दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या दिल्ली चुनाव ने क्षेत्रीय दलों के लिए भी कोई सबक दिया है। इन दो सवालों में से पहले का जवाब तो यही है कि इंडी गठबंधन अब अतीत की बात हो चुकी है, क्योंकि दिल्ली चुनाव से पहले ही तेजस्वी से लेकर उमर अब्दुल्ला और संजय राउत तक ने इसका एलान कर दिया था। रही दूसरे सवाल की बात, तो यह एक कठिन सवाल है, क्योंकि अरविंद केजरीवाल की जिस सियासी जिद ने दिल्ली में उनकी लुटिया डुबोयी है, उससे तो यही लगता है कि क्षेत्रीय दलों को अब संभल जाना चाहिए।

कांग्रेस पर लग रहे आरोप
दिल्ली चुनाव के बाद कुछ नेता खुले तौर पर कांग्रेस को दोषी ठहरा रहे हैं। ये आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस को आम आदमी पार्टी को जितवाने में मदद करनी चाहिए थी, लेकिन इसने चुनाव-प्रचार के दौरान सबसे ज्यादा आप और केजरीवाल पर हमला किया। इन आरोपों पर कांग्रेस का कहना है कि आप को जितवाने में मदद करना उसकी जिम्मेदारी नहीं थी। कांग्रेस ने कहा है कि दिल्ली चुनाव के नतीजे अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर जनमत संग्रह से ज्यादा कुछ नहीं दिखाते हैं।

क्या कहते हैं दिल्ली के नतीजे
दिल्ली चुनाव के नतीजे साफ तौर पर दिखाते हैं कि भाजपा की मजबूत और लगभग अपराजेय चुनाव मशीनरी का मुकाबला केवल एकजुट, वैचारिक और राजनीतिक मोर्चे के जरिये ही प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। यह इंडी ब्लॉक में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और अन्य प्रमुख क्षेत्रीय दलों के लिए एक चेतावनी है। साथ ही क्षेत्रीय दलों के लिए एक सबक भी, जिसके अनुसार राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति को एक नहीं किया जा सकता है। क्षेत्रीय राजनीति में भले ही क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व हो, राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आकांक्षाएं अब दो राष्ट्रीय दल, यानी भाजपा या कांग्रेस के सहारे ही पूरी हो सकती हैं।

भाजपा से मुकाबले के लिए एकजुटता जरूरी
दिल्ली के नतीजों ने बता दिया है कि भाजपा से मुकाबले के लिए एकजुटता जरूरी है। यही बात अब इंडी ब्लॉक में शामिल दलों को चिंता में डाल रही है। कांग्रेस का सहयोगी दलों के प्रति रवैया और नेतृत्व के प्रति उसके अगंभीर रुख ने इंडी ब्लॉक को पहले ही विभाजित कर रखा है। दरअसल विपक्षी दल तब एकजुट होने शुरू हुए थे, जब उनको एहसास हुआ कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को हराना मुश्किल है। इन दलों को यह भी लग रहा था कि भाजपा विपक्ष को खत्म करना चाहती है और इसी के तहत उसके नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की जा रही थी और उनको गिरफ्तार भी किया जा रहा था। इसी बीच विपक्षी दलों के नेता भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए एकजुट हुए। इसमें कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, टीएमसी, आरजेडी, जेडीयू, एनसीपी समेत कई पार्टियां शामिल थीं। कांग्रेस ने इसका नेतृत्व किया और क्षेत्रीय दलों ने उसकी मदद की। लेकिन इस गठबंधन में दरार तब पैदा होने लगी, जब लोकसभा चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने राज्यों से बाहर निकलने के सपने देखने शुरू किये। वे यह भूल गये कि भाजपा को रोकने के लिए राज्यों में भी एकजुटता जरूरी है।

महत्वाकांक्षाओं ने किया बंटाधार
इस बीच महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा और जम्मू कश्मीर में चुनाव हुए। इंडी ब्लॉक के दो प्रमुख घटकों, नेशनल कांफ्रेंस और आप ने अकेले लड़ने का फैसला किया। हरियाणा में आप के कारण कांग्रेस सत्ता से दूर रह गयी, तो महाराष्ट्र में स्थानीय कारकों ने इंडी ब्लॉक की संभावनाओं में पलीता लगा दिया। इनमें केवल झारखंड ऐसा राज्य रहा, जिसने एकजुटता की कीमत समझी और हेमंत सोरेन की सियासी रणनीति कामयाब हुई। लेकिन दिल्ली चुनाव आते-आते आप की महत्वाकांक्षाएं फिर हिलोरें मारने लगीं और नतीजा सबके सामने है।

इस तरह चौड़ी हुई खाई
दरअसल यह सब कुछ अनायास नहीं हुआ, बल्कि क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाओं में आये उफान इसके पीछे थे। अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन बनाने के चक्कर में आप और कांग्रेस आपस में उलझ गयीं। दूसरे क्षेत्रीय दलों ने भी आप और कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव 2024 के परिणामों के बाद से दिल्ली-पंजाब में चौड़ी हो रही सियासी खाई को पाटने में दिलचस्पी नहीं दिखायी, बल्कि आप की खुली तरफदारी करके कांग्रेस को नीचा दिखाया। इससे भी बात बनते-बनते बिगड़ गयी।

क्षेत्रीय दलों को मिली सीख
अब दिल्ली का चुनाव खत्म हो चुका है और इस साल के अंत में बिहार का चुनाव होना है। ऐसे में विपक्षी दलों के नेताओं को समझना होगा कि राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने के लिए उन्हें पहले किसी मजबूत सहारे की जरूरत है। अभी ममता बनर्जी ने बंगाल में अकेले लड़ने का एलान कर दिया है, लेकिन वह भूल गयी हैं कि यह उनकी सियासी गलती भी साबित हो सकती है। चाहे ममता हों या तेजस्वी, अखिलेश हों या शरद पवार-उद्धव ठाकरे, सभी क्षेत्रीय नेताओं को समझना होगा कि अब अलग-अलग रह कर काम नहीं चल सकता है।
इन क्षेत्रीय दलों के पास कांग्रेस या भाजपा की शरण में जाने के अलावा अब कोई चारा नहीं बचा है, अन्यथा जो इनके साथ रहेगा, वह उन्हें खत्म कर देगा। ये लोग बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू आलाकमान नीतीश कुमार से यह बखूबी सीख सकते हैं कि कांग्रेस या भाजपा से कितना संतुलन भरा रिश्ता रखना है, ताकि उनकी राजनीतिक अहमियत राज्य विशेष और अखिल भारतीय स्तर दोनों जगह पर समान रूप से बनी रहे।

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