झारखंड। की राजनीति में गिरिडीह का अपना एक अलग महत्व रहा है। कभी यह इलाका लालखंड के नाम से चर्चित था। इस संसदीय सीट का उदय 1962 में हुआ। और यहां 1989 के पहले हर चुनाव में कांग्रेस का बोलबाला था। 1984 में यहां अंतिम बार कांग्रेस के टिकट पर सरफराज अहमद ने बाजी मारी थी।
झारखंड आंदोलन के उफान के साथ ही इस इलाके से कांग्रेसियों का आधिपत्य एक तरह से खत्म हो गया और वर्ष 1989 में भाजपा ने इस सीट पर कब्जा जमा लिया। लेकिन ज्यादा दिनों तक भाजपा का आधिपत्य कायम नहीं रह सका और झारखंड मुक्ति मोरचा के विनोद बिहारी महतो ने वर्ष 1991 में भाजपा से इस सीट को छीन लिया। लेकिन 1996 में भाजपा के रवींद्र पांडेय ने इस सीट को भाजपा की झोली में डाल दिया। उस दरम्यान रवींद्र पांडेय लगातार दो बार भाजपा के सांसद रहे।
वर्ष 1994 के चुनाव में एक बार फिर झामुमो ने इस सीट पर वर्चस्व स्थापित किया और उसके कद्दावर नेता टेकलाल महतो ने यहां से भाजपा को परास्त कर दिया। लेकिन झामुमो के लिए वह चुनाव इतिहास बन गया और उसके बाद भाजपा के वर्तमान सांसद रवींद्र पांडेय ने गिरिडीह पर अपनी पकड़ इतनी मजबूत बना ली कि फिर हार की तरफ मुड़ कर नहीं देखा। एक तरह से रवींद्र पांडेय यहां के लिए अजेय बन गये। लेकिन समय का चक्र देखिये कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जब रवींद्र पांडेय का टिकट काट कर भाजपा ने यह सीट आजसू को दे दी, तो एकबारगी किसी को विश्वास भी नहीं हो रहा था कि ऐसा होगा। लेकिन होता वही है, जो आलाकमान चाहता है।
रवींद्र पांडेय के भाजपा में आने की कहानी भी बड़ी रोचक है। कहते हैं, पहली बार जब रवींद्र पांडेय को भाजपा का टिकट मिला, तो खुद प्रदेश के भाजपाई भी आश्चर्यचकित थे। कारण रवींद्र पांडेय को घोर कांग्रेसी माना जाता था और उनके पिता कृष्ण मुरारी पांडेय का पूरा जीवन कांग्रेस के साथ बीता था। कहते हैं, रवींद्र पांडेय भी कांग्रेस नेता प्रदीप कुमार बलमुचू के साथ कांग्रेस का टिकट लेने ही दिल्ली गये थे। लेकिन वहां दाल नहीं गली। इसी दरम्यान रवींद्र पांडेय ने दिल्ली में भाजपा का दरवाजा खटखटाया और उन्हें भाजपा ने अपना उम्मीदवार बना दिया।
दिल्ली से जब रवींद्र पांडेय रांची के बिरसा मुंडा एयरपोर्ट पहुंचे थे, तो माजरा बदला हुआ था। संवाददाताओं के सामने उन्होंने राज-फाश किया कि वह गिरिडीह से भाजपा उम्मीदवार बनाये गये हैं। उससे पहले तक बहुत सारे भाजपाइयों को भी यह आभास नहीं था कि रवींद्र पांडेय को भाजपा उम्मीदवार बना सकती है और उसके बाद उन्होंने गिरिडीह में अपना ठेहा ही गाड़ दिया। लेकिन हाल के वर्षों में भाजपा की एक तरह से परंपरागत सीट बन चुकी गिरिडीह अब आजसू के पाले में है और यहां से संभवत: झारखंड सरकार के मंत्री चंद्रप्रकाश चौधरी भाग्य आजमायेंगे। वे पूरी तरह से चुनावी रण में कूद चुके हैं। हालांकि उनके नाम की घोषणा औपचारिक रूप से 25 मार्च को होगी।
इसी के साथ ही गिरिडीह सीट झारखंड में झामुमो के लिए सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा की सीट बन गयी है। इस सीट से आजसू का राजनीतिक भाग्य भी तय होना है। यह चुनाव साबित कर देगा कि झारखंड की क्षेत्रीय पार्टी आजसू क्या दिल्ली में संसद का मुंह देख पायेगी या उसे झामुमो के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ेगा। दरअसल, इस सीट की हार-जीत सिर्फ पक्ष-विपक्ष की संख्या ही नहीं बढ़ायेगी, राज्य के दो सबसे युवा पार्टी प्रमुख हेमंत सोरेन और सुदेश महतो की पैठ प्रतिष्ठा भी तय करेगी। मतदाताओं के लिहाज से कुर्मी मतदाता यहां निर्णायक हैं। पिछले चुनाव में झामुमो ने यहां से अपने विधायक जगरनाथ महतो को चुनाव में उतारा था और उन्होंने भाजपा के रवींद्र पांडेय को कड़ी टक्कर दी थी। वह लगभग चालीस हजार मतों से चुनाव हार गये, लेकिन हार कर भी उन्होंने गिरिडीह में सबको चौंका दिया था। हार कर भी उन्होंने झामुमो को यह आशा की किरण दिखा दी कि निकट भविष्य में यहां बाजी पलट भी सकती है।
आज उसी झामुमो की टक्कर आजसू से होनेवाली है। आजसू के कद्दावर नेता चंद्रप्रकाश चौधरी दो हफ्ते से लगातार गिरिडीह के चुनावी समर में दौड़ लगा रहे हैं और भाजपा कार्यकर्ताओं से लेकर हर उस व्यक्ति के दरवाजे पर वह दस्तक दे रहे हैं, जो इस चुनाव में प्रभाव रखते हैं। वैसे भी चंद्रप्रकाश चौधरी गिरिडीह के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। टुंडी विधानसभा चुनाव में राजकिशोर महतो की तरफ से चुनाव की कमान उन्होंने ही संभाली थी और पिछले दिनों गोमिया में लंबोदर महतो को उन्होंने ही जीत के दरवाजे तक एक तरह से पहुंचा दिया था।
गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत छह विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें गोमिया और डुमरी पर झामुमो का कब्जा है, जबकि टुंडी पर आजसू का और गिरिडीह, बाघमारा और बेरमो भाजपा के कब्जे में है। वैसे गोमिया में भी आजसू की पकड़ अच्छी है। पिछले चुनाव में आजसू के उम्मीदवार लंबोदर महतो मात्र तेरह सौ वोट से झामुमो उम्मीदवार बबिता देवी से हार गये थे। यानी देखा जाये, तो हाल के दिनो में आजसू की पकड़ गिरिडीह लोससभा सीट पर मजबूत हुई है। चुनावी अंकगणित में भी झामुमो से आजसू का पलड़ा यहां भारी है, और यही कारण है कि आजसू ने लोकसभा चुनाव में गिरिडीह सीट की खातिर ही भाजपा से समझौता किया।
इस सीट की सबसे रोचक कहानी यह होगी कि यहां प्रत्यक्ष रूप से आजसू की तरफ से चाहे चंद्रप्रकाश चौधरी लड़ें या झामुमो की तरफ से जगरनाथ महतो या कोई और, लेकिन परोक्ष रूप से लड़ाई झारखंड के दो प्रभावशाली युवा नेताओं हेमंत सोरेन और सुदेश महतो के बीच ही होगी। हेमंत सोरेन भी हारी हुई बाजी अपने पक्ष में करना जानते हैं और सुदेश महतो भी एक मंजे हुए चुनावी रणनीतिकार हैं। उन्होंने कुर्मी मतदाताओं में अपनी गहरी पैठ भी बनायी है। यहां सुदेश महतो के लिए राहत की बात यह होगी कि यहां भाजपा का कोई नेता सिल्ली की तरह आजसू उम्मीदवार से विश्वसासघात नहीं करेगा और हर हाल में भाजपा पूरे दम-खम से यह सीट आजसू की झोली में डलवाना चाहेगी। कारण साफ है।
गिरिडीह सीट से कहीं न कहीं भाजपा के राष्टय अध्यक्ष अमित शाह की भी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। कारण उन्होंने ही हस्तक्षेप करके गिरिडीह सीट आजसू को दी है। अमित शाह के कारण ही आजसू और भाजपा के बीच चुनावी गठबंधन हो पाया है। कुल मिला कर देखा जाये, तो गिरिडीह सीट लोकसभा के साथ-साथ 2019 के विधानसभा चुनाव के लिए भी जमीन तैयार करेगी और यह भी उजागर करेगी कि कुर्मी मतदाताओं के दिलों पर कौन राज करेगा।