झारखंड से राज्यसभा की दो सीटों के लिए 26 मार्च को होनेवाला चुनाव बेहद दिलचस्प होनेवाला है। इसकी पूरी पृष्ठभूमि तैयार हो गयी है और राजनीतिक दल भी इसे लेकर तैयारियों में जुट गये हैं। राज्य में सत्ताधारी गठबंधन, यानी झामुमो, कांग्रेस और राजद इन दोनों सीटों पर जीत हासिल करने की रणनीति तैयार करने में जुटे हैं, वहीं भाजपा कम से कम एक सीट जीतने की कोशिश कर रही है। इस राज्यसभा चुनाव ने आजसू को एक बार फिर झारखंड की राजनीति के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां उसके दो वोट हासिल करने के लिए दोनों पक्ष अभी से ही कोशिश में जुट गये हैं। भाजपा के लिए आजसू का समर्थन हासिल करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, क्योंकि सुदेश महतो की पार्टी महज तीन महीने पहले विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा और खास कर रघुवर दास के अड़ियल रवैये के दर्द को भूल नहीं सकी है। हालांकि एक संभावना यह भी है कि राज्यसभा का चुनाव भाजपा-आजसू के रिश्ते के तार को दोबारा जोड़ दे। इन तमाम संभावनाओं को टटोलती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

वह पिछले साल 10 अक्टूबर का दिन था, जब भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ ने चाईबासा में मीडिया से कहा कि विधानसभा चुनाव में गठबंधन के तहत सीटों के बंटवारे में आजसू को आठ से 10 सीटें ही मिलेंगी। उनके इस बयान ने विधानसभा चुनाव की तैयारियों में भाजपा के साथ प्राण-प्रण से जुटे आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो और उनके कार्यकर्ताओं को हैरानी में डाल दिया। लेकिन अपनी हैरानी को सार्वजनिक करने की बजाय आजसू ने संयम बरता और साफ किया कि तालमेल पर अभी बातचीत नहीं हुई है। लेकिन अंतत: वही हुआ, जो गिलुआ कह चुके थे। 20 नवंबर को, जब सभी दल विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे थे, भाजपा और आजसू का रिश्ता खत्म हो गया। उसके बाद से गिलुआ और तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने आजसू के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया। रघुवर दास ने तो पहले चरण के मतदान के बाद एक दिसंबर को आजसू को मौकापरस्त तक कह दिया था। उन्होंने यह भी कह दिया था कि भाजपा को नयी सरकार बनाने के लिए किसी सहयोेगी की जरूरत नहीं पड़ेगी और वह अकेले 65 प्लस का लक्ष्य हासिल करेगी।
समय का चक्र घूमा और विधानसभा चुनाव में रघुवर दास के दावे हवा हो गये। वह खुद तो चुनाव हार ही गये, पांच साल तक सत्ता में रही भाजपा महज 25 सीटों पर सिमट गयी। 23 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के परिणाम आये और आजसू को दो सीटों पर जीत मिली।
अब आजसू की यही दो सीटें भाजपा के लिए सबसे महत्वपूर्ण बन गयी हंै। राज्यसभा की दो सीटों के लिए होनेवाले चुनाव में भाजपा को आजसू का समर्थन आवश्यक है। यदि आजसू ने विधानसभा चुनाव के दौरान रघुवर दास और लक्ष्मण गिलुआ से मिली दुत्कार को याद रख कर भाजपा को समर्थन देने से इनकार कर दिया, तो भाजपा के लिए एक सीट भी जीत पाना बेहद मुश्किल हो जायेगा। हालांकि सुदेश महतो ने अब तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी है, लेकिन राजनीति के जानकारों के अनुसार उनकी पार्टी के भीतर भाजपा से रिश्ता दोबारा जोड़ने के मुद्दे पर मतैक्य नहीं है।
भाजपा की मुश्किल
भाजपा के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह आजसू को कैसे दोबारा अपने साथ लाये। हालांकि बाबूलाल मरांडी को अपने पाले में कर भाजपा ने इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया है। सभी जानते हैं कि सुदेश महतो और बाबूलाल मरांडी के बीच का रिश्ता बढ़िया है और दोनों नेता एक-दूसरे की बहुत इज्जत करते हैं। ऐसे में भाजपा की ओर से बाबूलाल मरांडी ही पहल करेंगे। लेकिन यदि भाजपा ने रघुवर दास को राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवार बना दिया, तब आजसू का रुख क्या होगा, यह बड़ा सवाल पैदा हो गया है। भाजपा नेतृत्व यह समझ चुका है कि विधानसभा चुनाव में उसकी हार का बड़ा कारण रघुवर दास थे। उसे यह भी पता है कि यदि उसने एक बार फिर रघुवर दास पर दांव खेला, तो यह उल्टा भी पड़ सकता है, क्योंकि आजसू के साथ-साथ कम से कम दो निर्दलीय, सरयू राय और अमित यादव का भी वोट उसे शायद नहीं मिले। और इन चार वोटों का नुकसान भाजपा नहीं झेल सकती है। भाजपा के सामने दूसरी मुश्किल आजसू को सत्ता पक्ष के प्रभाव में आने से रोकने की है। आजसू के दोनों वोट हासिल करने के लिए उस पर सत्ता पक्ष का दबाव पड़ना शुरू हो चुका है। कांग्रेस की ओर से संकेत भेजे जा रहे हैं। विधानसभा के बजट सत्र के दौरान हेमंत और सत्ता पक्ष के दूसरे विधायकों ने आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो और विधायक डॉ लंबोदर महतो के साथ जिस तरह की गर्मजोशी दिखायी, उससे भाजपा के कान खड़े हो गये हैं।
आनेवाले दिनों में यह गर्मजोशी एक मजबूत रिश्ते में बदल जाये, तो किसी को अचरज नहीं होनी चाहिए, क्योंकि कहा भी जाता है कि राजनीति में न तो स्थायी दोस्त होता है और न स्थायी दुश्मन। सत्ताधारी गठबंधन को यदि आजसू को दो वोट मिल जायेंगे, तो उसे राज्यसभा की दोनों सीटों पर जीत हासिल करने में आसानी होगी।
इस नयी राजनीतिक परिस्थिति में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि आजसू का अपने पुराने बड़े भाई के प्रति क्या रुख रहता है। यदि सुदेश सब कुछ भूल कर भाजपा का समर्थन करने को तैयार हो जाते हैं, तो यह आज के राजनीतिक दौर में नयी लकीर होगी, नयी परिपाटी होगी, लेकिन दूसरी तरफ यदि वह ऐसा नहीं भी करते हैं, तो इसका दोषी भी उनको नहीं माना जायेगा, क्योंकि तीन महीने पहले मिली दुत्कार का घाव अब तक पूरी तरह भरा नहीं है। वैसे सुदेश महतो और भाजपा के कद्दावर नेता अमित शाह के बीच संबंधों में अभी तक दरार नहीं आयी है। भाजपा नेता भूपेंद्र यादव के माध्यम से इन दोनों के बीच तार जुड़े हुए हैं, ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि सुदेश महतो भाजपा से एकबारगी अलग हो जायेंगे। ऐसे में आजसू के दोनों हाथों में लड्डू हैं। राज्यसभा चुनाव में वह जो भी रणनीति अपनायेगी, उससे झारखंड में नये प्रकरण का सूत्रपात होगा। इसलिए 26 मार्च को होनेवाले राज्यसभा चुनाव के परिणाम के लिए दिल थाम कर बैठिये, पता नहीं कहां से कौन सी हवा आये और किसे उड़ा कर ले जाये। इसलिए राजनीति को संभावनाओं का खेल और अवसरवादिता का चरम कहा जाता है।

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