विशेष
-कांग्रेस के नेतृत्व में 14 दलों का संयुक्त मोर्चा आ सकता है सामने
-सावरकर पर बयानबाजी ने उद्धव ठाकरे को किया नाराज, राहुल मना लेंगे
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द किये जाने पर जिस तरह सभी विपक्षी दल उनके समर्थन में उतर आये हैं, उससे इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि 2024 से पहले कांग्रेस के नेतृत्व में एक संयुक्त मोर्चा आकार लेने लगा है। सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी द्वारा कांग्रेस के नेतृत्व में 14 विपक्षी दलों की ‘डिनर पॉलिटिक्स’ के बाद जदयू अध्यक्ष ललन सिंह ने जिस तरह विपक्षी एकता के प्रति सकारात्मक बयान दिया, उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है, लेकिन इसमें अभी कई पेंच सुलझने बाकी हैं। दरअसल तीसरे मोर्चे की कवायद में जुटे कुछ सक्रिय दल राहुल गांधी की सदस्यता रद्द होने के बाद अचानक पूरे विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बनाने की बात करने लगे हैं। खासतौर पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की शीर्ष नेता ममता बनर्जी ने इस घटना के बाद अचानक अपना रुख बदल लिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और कई अन्य विपक्षी नेताओं ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए राहुल गांधी के प्रति एकजुटता प्रकट की है और कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला करने का मन बना लिया है। वैसे विपक्षी दल भी कांग्रेस की कमियों और उसकी परेशान हालत से वाकिफ हैं, लेकिन कानूनी लड़ाई के अलावा जनता के बीच जाने के सिवा विपक्ष के पास अब कोई दूसरा चारा भी नहीं है। सवाल यह है कि राहुल प्रकरण से पैदा हुई आपदा को अवसर में बदलने के लिए ये सभी विपक्षी दल एक साथ आ सकेंगे, जबकि पहले कदम पर ही उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी द्वारा सावरकर के बारे में की गयी बयानबाजी पर गहरी आपत्ति जता दी है और कई दूसरे दलों को भी लगता है कि विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा राहुल गांधी का व्यक्तित्व ही है। ऐसे में क्या हो सकता है विपक्षी एकता का आधार और स्वरूप और उसमें क्या अड़चनें हैं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
आगामी लोकसभा चुनाव में भले ही अभी करीब साल भर का समय बाकी है, लेकिन देश का राजनीतिक तापमान बहुत तेजी से बढ़ने लगा है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को सूरत की अदालत से मानहानि के एक आपराधिक मामले में दो वर्ष की सजा सुनाये जाने के बाद संसद की सदस्यता के अयोग्य ठहरा दिया गया है, जिससे कांग्रेस की राजनीति अभी एक निर्णायक मोड़ पर आ गयी है। अभी तक गैर-भाजपा दल कांग्रेस को विपक्ष का नेतृत्व सौंपने में आनाकानी कर रहे थे, लेकिन 23 मार्च की घटना के बाद कांग्रेस को गैर-भाजपा विपक्षी दलों का व्यापक समर्थन मिला है। सोनिया-प्रियंका द्वारा आयोजित ‘डिनर पॉलिटिक्स’ का जो परिदृश्य सामने आया है, उससे लगता है कि राहुल प्रकरण पर विपक्ष की एकता आकार लेने लगी है। अब सुरक्षित तौर पर कहा जा सकता है कि यह कांग्रेस के लिए एक सुनहरा अवसर है, लेकिन क्या कांग्रेस इस स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाने में सक्षम है? क्या वह सभी गैर-भाजपा दलों को साथ लेकर भाजपा को टक्कर दे पायेगी?
इन सवालों का जवाब आसान नहीं है। इस ‘डिनर पॉलिटिक्स’ के बाद दो बातें उभर कर सामने आयी हैं। पहला तो यह कि विपक्षी दल अब 2024 में कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए मानसिक रूप से तैयार होने लगे हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने तो बाकायदा इस बारे में घोषणा भी कर दी कि 2024 में विपक्ष एकजुट होकर उतरेगा। मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में हुई इस बैठक का दूसरा संदेश उद्धव ठाकरे की नाराजगी के रूप में था, जब उन्होंने राहुल गांधी द्वारा सावरकर पर की गयी टिप्पणी के प्रति नाराजगी दिखायी और बैठक में शामिल नहीं हुए। हालांकि अब राहुल गांधी की ओर से सावरकर पर टिप्पणी नहीं करने का एलान किया गया है। इसलिए अभी संभावना पूरी तरह खारिज नहीं हुई है।
लेकिन कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को इस बात का एहसास है कि विपक्षी एकजुटता के रास्ते में एक बड़ी अड़चन खुद राहुल गांधी का व्यक्तित्व है। इस घटना के बाद बाकी विपक्षी नेताओं की तुलना में उनका राजनीतिक कद बहुत बढ़ गया है, लेकिन इस कद के साथ उन्हें न्याय करना होगा। और यहीं पर कई अड़चनें दिखायी देती हैं। उन्हें ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव, नीतीश कुमार जैसे विपक्षी नेताओं के साथ तालमेल बना कर चलना होगा, जो बड़ा कठिन काम है। जबसे राहुल राजनीति में सक्रिय हैं, उन्होंने सहयोगी दलों के नेताओं के साथ एक तरह से दूरी बना कर रखी। एमके स्टालिन को छोड़ दें, तो बाकी सहयोगी दलों के नेताओं के साथ कभी राहुल ने गर्मजोशी नहीं दिखायी, बल्कि कई बार उन्होंने अपने बयानों से अन्य सहयोगी दलों के नेताओं के लिए मुश्किल ही खड़ी कर दी, जैसे सावरकर को लेकर दिये गये बयान के जरिये उन्होंने उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को कठिनाइयों में ही डाल दिया। मगर अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के तमाम गैर-भाजपा, गैर-राजग दलों से बहुत अच्छे संबंध हैं। लेकिन सवाल है कि जिस तरह महाभारत में अर्जुन के सारथी बने थे श्रीकृष्ण, क्या खड़गे वह भूमिका निभा पायेंगे।
राहुल गांधी के साथ जो हुआ है, उसके दो पहलू हैं। एक तो अदालती पहलू है और दूसरा राजनीतिक पहलू है। यह ध्यान रखना होगा कि जब भी किसी व्यवस्था के खिलाफ विपक्ष लड़ता है, तो वह लड़ाई लंबी होती है। उस लड़ाई को सतत जारी रखने के लिए सिविल सोसाइटी का सहयोग बहुत जरूरी होता है। ऐसा जेपी आंदोलन में भी हुआ था, राजीव गांधी के खिलाफ वीपी सिंह के अभियान में भी हुआ था, और हाल ही में अन्ना आंदोलन के दौरान भी सिविल सोसाइटी की सक्रिय भूमिका देखी गयी थी। यहीं पर कांग्रेस की जमीन कमजोर मालूम पड़ती है। अतीत में भी ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि कांग्रेस ने सिविल सोसाइटी का राजनीतिक फायदा उठाया हो। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के समय जरूर सौ-डेढ़ सौ के करीब सिविल सोसाइटी उनके साथ जुड़ी थीं, पर उनमें से अधिकांश गैर-राजनीतिक सिविल सोसाइटी थीं। अब कांग्रेस या राहुल गांधी उन सबको अपने साथ जोड़ पायेंगे, इसे लेकर संशय है।
तीसरी बात, भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने के लिए कांग्रेस को उदार हृदय से एक को-आॅर्डिनेशन कमेटी बनानी चाहिए, जिसमें शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला, चंद्रबाबू नायडू जैसे लोगों को शामिल करना चाहिए, जिनकी राजनीतिक साख दलों से ऊपर है। ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं को इसमें सक्रिय भूमिका में लाना चाहिए। बेशक थोड़े-बहुत वैचारिक या मुद्दे आधारित मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इन सबको एकजुट करके पटरी पर लाना बहुत कठिन, मगर महत्वपूर्ण होगा। इसके अलावा सोशल मीडिया के जमाने में एक और चीज महत्वपूर्ण है-समय, क्योंकि लोगों की याददाश्त बहुत छोटी होती है। जैसे, अभी बहुत से लोगों (जो घोषित रूप से कांग्रेस या भाजपा के समर्थक नहीं हैं) को लगता है कि राहुल गांधी भले ही उतने परिपक्व नेता न हों, लेकिन आपराधिक मानहानि के मामले में जिस तरह उनकी संसद सदस्यता खत्म की गयी, वह अनुचित थी। लोगों को लगता है कि यह राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि सत्तारूढ़ भाजपा सहित विभिन्न दलों में बहुत से ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अनाप-शनाप टिप्पणियां की हैं, लेकिन उन्हें कोई सजा नहीं मिली। ऐसा सोचने वाले करोड़ों लोग हैं, जो किसी पार्टी के समर्थक नहीं होते हैं, लेकिन चीजों को देखते-समझते और उनका संज्ञान लेते हुए वोट डालते हैं। तो ऐसे वर्ग का लाभ उठाने के लिए कांग्रेस और बाकी विपक्ष को तेजी से और चरणबद्ध तरीके से अपना अभियान चलाना होगा।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राहुल गांधी प्रकरण ने कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को एक अवसर प्रदान किया है, जिसका लाभ उठाने की पूरी जिम्मेवारी विपक्षी दलों पर ही है। इस अवसर को ये दल कितना भुना पाते हैं, यह देखना अभी बाकी है।