विशेष
-राजनीतिक विमर्शों से गायब हो चुका है यह सामाजिक-आर्थिक मुद्दा
-बड़ा सवाल : कारीगरों को मजदूर बनाने में किसका हुआ फायदा
हाल में तमिलनाडु में झारखंड-बिहार के मजदूरों के साथ मारपीट की खबरों पर बड़ा राजनीतिक-प्रशासनिक बावेला मचा था। तमाम जांच के बाद ये खबरें हालांकि बेबुनियाद साबित हुईं, लेकिन इसका एक लाभ यह हुआ कि झारखंड-बिहार से मजदूरों के पलायन का मुद्दा देश के राजनीतिक विमर्श में शामिल हो गया। हिंदी पट्टी के इन दोनों राज्यों के साथ यह विडंबना ही थी कि यह मुद्दा कभी भी चुनावी नहीं बन सका और लोग वोट देने के लिए भी दूसरे राज्यों-शहरों से झारखंड-बिहार आते रहे। करीब 23 साल पहले तक झारखंड-बिहार एक साथ थे, तो पलायन का मुद्दा बौद्धिक विमर्श में शामिल था, लेकिन अब तो वह भी नहीं होता। झारखंड-बिहार के मजदूरों की वेदना गाहे-बगाहे मीडिया की सुर्खियां जरूर बनती हैं, लेकिन शायद ही कभी इस बात पर कोई विचार किया गया होगा कि आखिर यह पलायन होता क्यों है। कौन सी वह ताकत है, जो इन दोनों राज्यों के लोगों को रोजी-रोजगार के लिए अपना घर-बार छोड़ कर दूसरे राज्यों में जाने के लिए मजबूर करती है। इस सवाल का जवाब जितना मुश्किल है, उससे भी अधिक पीड़ादायक यह जानना है कि इन दोनों राज्यों में अब कारीगर नहीं मिलते, केवल मजदूर मिलते हैं। इन दोनों राज्यों के उद्योग-धंधे अब लगभग समाप्त हो चुके हैं। जो शहर कभी किसी खास उत्पाद के लिए जाने जाते थे, अब वहां केवल पलायन करनेवाले दिखते हैं। यह जानना भी बेहद दिलचस्प है कि इसके पीछे भी कहीं न कहीं राजनीतिक नेतृत्व ही कारण रहा, जिससे यह एक सामाजिक-आर्थिक नहीं, राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गया। झारखंड-बिहार के इस गंभीर मुद्दे का परत-दर-परत विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड-बिहार से पलायन की मजबूरी गाहे-बगाहे ही चर्चा में आती है। अभी तमिलनाडु में इन दोनों राज्यों के श्रमिकों के साथ कथित हिंसा के बाद इस मुद्दे पर बात हो रही है। इससे पहले कोरोना लॉकडाउन के समय जब किसी तरह अपने घर पहुंचने की होड़ लगी थी, तब यह मुद्दा गरम हुआ था। वैसे गाहे-बगाहे होनेवाली इन चर्चाओं का जमीन पर कोई असर नहीं होता है। यदि होता, तो झारखंड-बिहार के लोग मजदूर बन पलायन को अभिशप्त नहीं होते। चुनावों के दौरान इन दोनों राज्यों के नेता पलायन की बड़ी वजह समुद्र नहीं होने और इनकी भौगोलिक स्थिति को बता देते हैं। वे कहते हैं कि बड़े उद्योग उन राज्यों में लगते हैं, जो समुद्र किनारे होते हैं। पलायन के इस मुद्दे को बेरोजगारी से जोड़ने में माहिर राजनीतिक दल इस पर वोट तो बटोर लेते हैं, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं होता। यह दूसरी बात है कि इसी बीच नौकरी मांगने, नियमित किये जाने आदि को लेकर प्रदर्शन करनेवाले लोगों को दोनों राज्यों की पुलिस दौड़ा-दौड़ा कर पीट चुकी है।
यहां सवाल यह उठता है कि क्या झारखंड-बिहार से पलायन करने की मजबूरी को रोकने का इलाज सरकारी नौकरी ही है। बड़े कल-कारखाने ही हैं। क्या बड़े उद्योगों के बगैर इन राज्यों में रोजगार का सृजन नहीं हो सकता। क्या विशेष राज्य के दर्जे या केंद्रीय पैकेज के बिना राज्य में बदलाव संभव नहीं है। इन सवालों का जवाब तलाशने से पहले यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इन दोनों राज्यों के कारीगरों को मजदूर बनाने के लिए किसने मजबूर किया और यह मुद्दा राजनीतिक क्यों नहीं बन पाता है।
बात एक उदाहरण से शुरू करते हैं। बिहार का एक धार्मिक शहर है गया। यहां से करीब 28 किमी दूर केनार चट्टी है। कभी यह जगह कांसा और पीतल बर्तन निर्माण के लिए जाना जाता था। बिहार के अलग-अलग हिस्सों से लेकर आसपास के राज्यों, यहां तक कि नेपाल से भी कारोबारियों का केनार चट्टी आना लगा रहता था। यहां के 50 परिवार सीधे तौर पर बर्तन निर्माण के काम से जुड़े थे। आज यह सिमट कर पांच घरों तक पहुंच गया है। शेष परिवार के लोग या तो फेरी लगाते हैं या कारीगर से मजदूर बन गये हैं। जो परिवार अभी भी इस काम से जुड़े हैं, उनके घर के भी कुछेक सदस्य अब मजदूरी के लिए पलायन कर चुके हैं।
लगभग यही हालत झारखंड के गिरिडीह-गोमो की है। पहले यहां लोहे के उपकरण बनाने के उद्योगों का जाल बिछा था। पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था इन छोटे-छोटे उद्योगों पर निर्भर थी। लेकिन आज यह उद्योग पूरी तरह मर चुका है। इक्का-दुक्का परिवार इस धंधे में लगे हैं। बाकी परिवार या तो मजदूर बन चुके हैं या फिर पलायन कर चुके हैं।
आज की हकीकत यही है कि इन दोनों राज्यों की किस्मत नहीं बदली है, जबकि चुनावों में पलायन रोकने को लेकर बड़े-बड़े वादे किये जाते रहे हैं। इसकी वजह यह थी कि कोरोना की वजह से घर लौटे प्रवासी श्रमिक बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए मौजूद थे। कोरोना से जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था उबरी, वे फिर से अपना घर छोड़ देश के अलग-अलग हिस्सों में जा चुके हैं। आज आप गांवों में जायें, तो पायेंगे कि अमूमन वे पुरुष ही रह गये हैं, जो वृद्ध हैं या कुछ भी करने में असमर्थ। वास्तव में यह केवल एक केनार चट्टी या गिरिडीह-गोमों की कहानी नहीं है। झारखंड-बिहार के हर हिस्से का कभी इसी तरह अपना उद्योग था। इनमें से ज्यादातर उद्योग कृषि आधारित थे। इसकी वजह से किसानों के लिए खेती आज की तरह घाटे का सौदा नहीं थी। साथ ही मजबूरी में दूसरे राज्यों में पलायन ही एकमात्र विकल्प नहीं था। यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि 1951 में पूरे देश मे 6982 रजिस्टर्ड फैक्ट्री थी। इनमें से 455 एकीकृत बिहार में थी। यानी पूरे भारत की 6.51 फीसदी रजिस्टर्ड फैक्ट्री अकेले बिहार में थी। आजादी के बाद पूरे देश में 56 चीनी मिल थी। इनमें 33 बिहार में थी। इन चीनी मिलों में सकरी, रैयाम, लोहट में निर्मित चीनी एक्सपोर्ट क्वालिटी में सबसे बेहतरीन थी। चीनी मिल से मिल रहे रोजगार का प्रतिशत 29.50 फीसदी था। इसके कारण पलायन की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी। वर्ष 2000 में झारखंड अलग होने के बाद से समस्या भी अलग हो गयी। झारखंड के पुरुष स्किल में पिछड़ते गये और महिलाएं बाहर जाने लगीं, जबकि बिहार के पुरुष अपने परिवार को छोड़ कर बाहर जाने लगे।
हालांकि यह सच है कि बेहतर अर्थ लाभ के लिए इन दोनों राज्यों के लोग हमेशा से देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं। लेकिन तब और अब के पलायन में एक मोटा फर्क है। तब लोग जड़ों की ओर लौटते वक्त अमूमन अपने साथ कृषि की नयी तकनीक, स्वस्थ जीवन जीने के तरीके, घरेलू उद्योग लगाने के गुर सीख कर आते थे। इसकी वजह से पुराने वक्त में झारखंड-बिहार में पलायन के साथ उद्योग फल-फूल भी रहा था। मसलन बिहार के मधुबनी में मलमल, दुलालगंज में सस्ते कपड़ों और किशनगंज में कागज का उद्योग चला। दरभंगा हाथी दांत से बने सामान का प्रमुख उत्पादन केंद्र बना। खगड़िया, किशनगंज जैसे इलाके पीतल, कांसे के बर्तन के लिए जाने जाते थे। भागलपुर सिल्क, तो मुंगेर घोड़े की नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था। पूर्णिया सिंदूर उत्पादन और निर्यात के साथ टेंट हाउस के सामान बनाने के लिए प्रसिद्ध था। इसी तरह झारखंड में देवघर-दुमका पशुपालन और सिंदूर, गुमला-लोहरदगा कच्चे लोहे के उपकरण और गिरिडीह-गोमो लौह उपकरणों के लिए प्रसिद्ध था। आज ये सारे के सारे उद्योग या तो मर चुके हैं या फिर मृतप्राय हैं। कल-कारखाने खंडहर बन चुके हैं। जो कभी कारीगर थे, वे आज मजदूर हैं। अपने घर से दूर हैं। समय-समय पर अलग-अलग राज्यों में उनको टारगेट करने की खबरें भी आती रहती हैं।
यह सच है कि इस स्थिति के लिए कोई एक व्यक्ति या दल जिम्मेदार नहीं है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में मजबूरी में पलायन की जो तेजी झारखंड और बिहार ने देखी है, उसकी जिम्मेदारी सीधे तौर पर इन राज्यों में शासन करनेवालों पर ही है। यह कड़वी हकीकत है कि इन दोनों राज्यों में कुछ अपवादों को छोड़ कर किसी भी सरकार ने पलायन के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। कोरोना के बाद झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने बड़े जोर-शोर से कुछ योजनाएं शुरू की थीं, लेकिन इनका हश्र भी बाकी सरकारी योजनाओं जैसा ही हो गया।
बौद्धिक विमर्शों और किताबी भाषा में कहा जाता है कि पलायन को यदि प्रवास कहें, तो यह अवसर है। यही कारण है कि भारत के समृद्ध राज्यों (गुजरात और पंजाब) से भी प्रवास होता रहा है। विदेशी धन का संचार उन्हें समृद्ध करता रहा है। इसे विस्थापन में ‘पुल फैक्टर’ कहते हैं। यानी, जब आप बेहतर अवसर के लिए किसी स्थान पर जाते हैं। लेकिन पलायन शब्द तब संताप से जुड़ जाता है, जब इसमें ‘पुल फैक्टर’ से अधिक ‘पुश फैक्टर’ की भूमिका होती है। झारखंड-बिहार से पलायन का बड़ा कारण ‘पुश फैक्टर’ है। इसी पलायन की वजह स्थानीय उद्योगों का बंद होना और जंगल राज रहा है। जाहिर है कि झारखंड-बिहार से मजबूरी में पलायन को रोकने का उपचार केवल बड़े उद्योग-धंधे, सरकारी नौकरियां, विशेष दर्जा या केंद्र सरकार के पैकेज नहीं हैं। इसे अलग-अलग इलाकों के हिसाब से दोबारा उद्योग-धंधे खड़े कर ही रोका जा सकता है। यह आजमाया हुआ मॉडल भी है, लेकिन यह राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं है। ऐसे में कोई भी नहीं जानता कि इस प्रवृत्ति पर विराम कब लगेगा। जब तक मजबूरी के पलायन पर रोक नहीं लगती, तब तक झारखंड-बिहार का मतलब ‘बीमारू’ राज्य ही रहेगा। इसलिए अब समय आ गया है कि पलायन का मुद्दा इन दोनों राज्यों के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रहे, ताकि इस कलंक को हमेशा के लिए मिटाया जा सके।