अरुण तिवारी: सूर्य देवता ने विज्ञप्ति जारी कर दी है। मई-जून में प्रचंड गर्मी होगी। पानी की कमी के कारण पिछले साल ग्यारह राज्यों में हायतौबा थी। इस साल यह संख्या बढ़ सकती है। राजस्थान के कोटपुतली में पानी को लेकर आंदोलन अभी से शुरू हो गया है। हो सकता है जब बारिश आये, तो पानी की कमी से जूझते ऐसे कई इलाके बाढ़ में डूबे मिलें। फिर बाढ़ को लेकर हायतौबा मचे और बाढ़ गुजर जाने के तीन महीने बाद ही नदियां सूखी हों और भूजल खुद में एक सवाल बनकर सामने खड़ा हो। यह सवाल तालों में ताल भोपाल ताल के इलाके के पानी पर भी है और कभी झीलों के लिए प्रसिद्ध रहे बंगलुरु के पानी पर भी। गुणवत्ता को लेकर पंचनद वाले पंजाब के भूजल पर भी आज सवालिया निशान है और अपनी सब स्थानीय नदियों को सुखा चुकी दिल्ली के भूजल पर भी।
दिलचस्प है कि भूजल में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक रसायन वाले इलाके सबसे अधिक बाढ़ वाले बिहार में भी मौजूद हैं और हर साल सुखाड़ से सीखते राजस्थान में भी। पिछले कुछ सालों से यही हो रहा है। ऐसे विरोधाभासी परिदृश्य स्वयं में इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में पानी की कमी नहीं, पानी के प्रबंधन की कमी है। प्रमाण इस बात के भी हैं कि पानी का प्रबंधन न सरकारों को कोसने से ठीक हो सकता है, न रोने से और न किसी के चीखने-चिल्लाने से। हम इस मुगालते में भी न रहें कि नोट या वोट हमें पानी पिला सकते हैं। अगर कोई कहे कि खारे समुद्री पानी को मीठा बनाने की महंगी तकनीक के बूते सभी को पानी पिला देगा, तो यह भी हकीकत से मुंह फेर लेना है। हकीकत यह है कि आज भी पीने योग्य सबसे ज्यादा पानी (1.68 प्रतिशत) धरती के नीचे भूजल के रूप में ही मौजूद है।
हमारी भूजल की तिजोरी इतनी बड़ी है कि इसमें 213 अरब घन लीटर पानी समा जाये और हमारी जरूरत है मात्र 160 अरब घन लीटर। पर बेसमझी यह है कि निकासी ज्यादा है और संचयन कम। सच यह भी है कि अभी तक देश में जल-संरचनाओं के चिह्नीकरण और सीमांकन का काम ठीक से शुरू भी नहीं किया जा सका है। भारत के पास कहने को राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर अलग-अलग जल नीति जरूर है, लेकिन हमारे पानी प्रबंधन की चुनौतियों को जिस नदी नीति, बांध नीति, पानी प्रबंधन की जवाबदेही तथा उपयोग व मालिकाना सुनिश्चित करने वाली नीति, जलस्रोत से जितना लेना उसे उतना और वैसा पानी वापस लौटाने की नीति की दरकार है, वह आज भी देश के पास नहीं है।
बावजूद इस सभी के, सच तो यही है कि यदि आज भी हमें हमारी जरूरत का पूरा पानी कोई पिला सकता है, तो वे हैं सिर्फ बारिश की बूंदें। इस दावे को यहां कागज पर समझाना जरा मुश्किल है, लेकिन लद््दाख, करगिल, लाहुल और स्पीति जैसे शुष्क पहाड़ी और ठंडे रेगिस्तानों के जिंग और कूलों को देख कर समझा जा सकता है कि यदि जल संचयन का स्थानीय कौशल न हो, तो वहां आज भी आबादी का रहना मुश्किल हो जाये। पानी की बूंदों को सहेजने का इतिहास बहुत पुराना है। ताल, पाल, झाल, चाल, खाल, बंधा, बावड़ी, जोहड़, कुंड, पोखर, पाइन, तालाब, झील, आपतानी आदि अनेक नामों से जल संचयन की अनेक प्रणालियां भारत में समय-समय पर विकसित हुर्इं। आप पूछ सकते हैं कि यदि ये प्रणालियां और प्रबंधन इतने ही सुंदर और उत्तम थे, तो टूट क्यों गये? समाज व सरकारें इन्हें जीवित क्यों नहीं रख सकीं? इतिहास गवाह है कि पानी का काम कभी अकेले नहीं हो सकता। पानी एक साझा उपक्रम है। अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि-जमींदारी व्यवस्था के बहाने नये-नय ेकानून बना कर ग्राम पंचायतों के अधिकारों में खुला हस्तक्षेप प्रारंभ किया। इस बहाने पंचों को दंडित किया जाने लगा।
फलस्वरूप, साझे कार्यों के प्रति पंचायतें धीरे-धीरे निष्क्रिय होती गयीं। नतीजा यह हुआ कि सदियों की बनी-बनायी साझा प्रबंधन और संगठन व्यवस्था टूट गयी। रही-सही कसर अंग्रेजी हुकूमत ने राजस्व बटोरने की दृष्टि से नदी, नहर व वनों को सरकारी नियंत्रण में लेकर पूरी कर दी। अंग्रेजी हुकूमत से पूर्व प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों का मालिकाना था। नहरें थीं, लेकिन उनसे सिंचाई पर सिंचान नहीं वसूला जाता था। इन संसाधनों के सरकारी होते ही लोगों ने इन्हें पराया मान लिया। हालांकि ह्यजिसकी भूमि-उसका भूजल का निजी अधिकार पहले भी भूमालिकों के हाथ था और आज भी। लेकिन भूजल का अदृश्य भंडार हमें दिखाई नहीं देता। हमारा समाज आज भी यही मानता है कि जल-जंगल के सतही स्रोत सरकार के हैं। अत: पानी पिलाना, सिंचाई व जंगल का इंतजाम उसी के काम हैं; वही करे। आज, जब केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन के अधिकार पंचायतों को सौंप दिए हैं, बावजूद इसके सरकारी को पराया मानने की नजीर और नजरिया आज पहले से बदतर हुआ है। इसी सोच व नासमझी ने पूरे भारत के जल प्रबंधन का चक्र उलट दिया है। पूरी जवाबदेही अब सरकार के सिर आ गई है। समाज हकदारी खो चुका है। परिणामस्वरूप, आज भारत के पानी प्रबंधन को बाढ़-सुखाड़ से इतर तीन नए संकट से जूझना पड़ रहा है। शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण, इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक में भारत के पानी के समक्ष पेश नए संकट ये तीन ही हैं।
जो उद्योग या किसान जेट अथवा समर्सिबल पंप लगा कर धकाधक भूजल खींच रहा है, उस पर कोई पाबंदी नहीं कि जितना लिया, उतना पानी वापस धरती को लौटाए। हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने एक मामले में उद्योगों को ऐसे आदेश जारी किए हैं; लेकिन जब तक ह्यरेलनीरह्ण या हमारे दूसरे सरकारी संयंत्र खुद यह सुनिश्चित नहीं करते कि उन्होंने जिन इलाकों का पानी खींचा है उन्हें वैसा और उतना पानी वे कैसे लौटाएंगे, तब तक सरकार गैर-सरकारी को कैसे बाध्य कर सकती है? यही हाल अतिक्रमण का है। देश में जल-संरचनाओं की जमीनों पर सरकारी-गैरसरकारी कब्जे के उदाहरण एक नहीं, लाखों हैं।
तहसील अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक कई ऐतिहासिक आदेशों के बावजूद स्थिति बहुत बदली नहीं है। जहां तक प्रदूषण का सवाल है, हमने उद्योगों को नदी किनारे बसाने के लिए दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा, लोकनायक गंगापथ, एक्सप्रेस वे आदि परियोजनाएं तो बना लीं, लेकिन इनके किनारे बसने वाले उद्योगों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण के स्रोत पर प्रदूषण निपटारे की कोई ठोस व्यवस्था आज तक सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं, जबकि प्रदूषण प्रबंधन का सिद्धांत यही है।जिस तरह कैंसर का निदान उसके स्रोत से किया जाता है, उसी तरह प्रदूषण का निपटारा भी उसके स्रोत पर ही किया जाना चाहिए। भूजल शोषण नियंत्रण का उपाय भूजल स्रोतों का नियमन, लाइसेंसीकरण या रोक नहीं हो सकता। हां! अकाल आदि आपदाकाल छोड़कर सामान्य दिनों में जल-निकासी की अधिकतम गहराई सीमित कर भूजल-शोषण कुछ हद तक नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है। ऐसा करने से स्थानीय उपभोक्ताओं को जल संचयन के लिए भी कुछ हद तक बाध्य किया जा सकेगा। अतिक्रमण रोकने के लिए जल संरचनाओं का चिह्नीकरण और सीमांकन कर अधिसूचित करना एक सफल उपाय साबित हो सकता है। यों देखें, तो जहां-जहां समाज ने मान लिया है कि ये स्रोत भले ही सरकार के हों, लेकिन इनका उपयोग तो हम ही करेंगे, वहां-वहां चित्र बदल गया है। वहां-वहां समाज पानी के संकट से उबर गया है।