विशेष
-साल-दर-साल बदलता गया इस महापर्व के जुलूस का स्वरूप
-झंडे की संख्या नहीं, मंच की भव्यता से बड़े-छोटे का कराया जा रहा अहसास
झारखंड के प्रमुख त्योहार में से एक रामनवमी समाप्त हो गयी। छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें, तो राज्य में रामनवमी शांतिपूर्ण रही। राजधानी रांची में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में रामनवमी का जुलूस निकला। रामनवमी जुलूस की परंपरा रांची में 93 साल पुरानी है। इस परंपरा को आज भी निभाया जा रहा है। अखाड़ों से जुलूस निकलते हैं। श्रद्धालुओं की भीड़ सड़कों पर जुटती है। झंडा लेकर अखाड़े के कार्यकर्ता चलते हैं। लोग अपनी भागीदारी देते हैं। झांकियां लोगों को आकर्षित करती हैं। एक महीने पहले से इसके लिए तैयारी शुरू हो जाती है। समय के साथ-साथ साल दर साल झारखंड में रामनवमी के जुलूस का स्वरूप भी बदलता चला गया है। पहले अखाड़ों के झंडों की संख्या से बड़े, समाज के बीच उसकी पैठ और अच्छे का एहसास होता था, वहीं अब मंच का आकार और पुरस्कार अखाड़े की भव्यता को दिखाते हैं। पहले नेतागण भी झंडा ढोते थे, पारंपरिक हथियारों से करतब दिखाते थे और लंबी दूरी तक कार्यकर्ताओं के साथ सड़कों को नापते थे। लेकिन अब मंच ही नेताओं का आसन बन गया है। वे मंच से कुछ देर के लिए उतरते हैं, भीड़ में शामिल होते हैं, फोटो खिंचवाते हैं और फिर वापस मंच पर बैठ जाते हैं। पहले रामनवमी में घंटों समय देनेवाले नेता अब कुछ पल ही इसमें शामिल होते हैं और फिर निकल लेते हैं। यह बदलाव दूसरी और तीसरी पीढ़ी के नेताओं के सक्रिय होने के कारण हुआ है, जिसके कारण धीरे-धीरे रामनवमी के प्रति सामान्य उत्साह में भी कमी दिखने लगी है। झारखंड में रामनवमी के बदलते स्वरूप पर प्रस्तुत है आजाद सिपाही का विशेष आलेख।
मान्यताओं के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन ही सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर श्रीराम के रूप में जन्म लिया था। भगवान विष्णु अयोध्या के राजा दशरथ के घर जन्म लेकर अपने सातवें अवतार में प्राणी मात्र के सामने प्रकट हुए थे। श्रीराम ने देश के महान राजा दशरथ और कौशल्या के सबसे बड़े बेटे के रूप में जन्म लिया था। संसार को मर्यादा, सादगी, अच्छाई, धैर्य और अच्छे व्यवहार का पाठ पढ़ानेवाले श्रीराम का जन्मदिन ही रामनवमी है। लोग रामलला के जन्म की पावन बेला को ही रामनवमी के त्योहार के रूप में मनाते हैं। झारखंड में रामनवमी की परंपरा कोई नयी नहीं है। रामनवमी का जुलूस और झांकी भी कम से कम राजधानी रांची के लिए नयी बात नहीं है। इतिहास के पन्नों को पलटें तो रांची की रामनवमी 93 साल पुरानी है। परंपरागत तरीके से रामनवमी मनाने का रिवाज आज भी चला आ रहा है। लोगों की आस्था दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। हालांकि इसमें समय के साथ-साथ बदलाव आया है। जनसंख्या बढ़ने के साथ लोगों की सहभागिता भी बढ़ रही है, लेकिन उत्साह कम होता दिखने लगा है। आयोजन का स्वरूप भी बदल गया है। अखाड़ों की संख्या बढ़ गयी है, लेकिन उनमें झंडों की संख्या कम हो गयी है। सजावट, जुलूस और झांकी का रूप बदला है। इसमें स्थानीय कलाकारों की जगह भाड़े के पेशेवर कलाकारों ने ले ली है। इसके बाद भी मुख्य अखाड़ों से झंडों का निकलना आज भी जारी है।
रांची में 1929 में निकला था पहला जुलूस
रामनवमी का इतिहास गौरवशाली और रोचक रहा है। रांची में पहली बार रामनवमी के अवसर पर 1929 में एक छोटा सा जुलूस निकला था। इस जुलूस में केवल दो महावीरी झंडे थे। इस शोभायात्रा को संभव बनानेवाले व्यक्तियों में कृष्णलाल साहू, रामपदारथ वर्मा, राम बड़ाइक राम, नन्हकू राम, जगदीश नारायण शर्मा, लक्ष्मण राम मोची, जगन्नाथ साहू, गुलाब नारायण तिवारी आदि प्रमुख थे।
हजारीबाग को देख कर रांची में हुई शुरूआत:
रांची में रामनवमी की पहली शोभायात्रा 17 अप्रैल, 1929 को निकली थी। यहां रामनवमी की शुरूआत हजारीबाग के रामनवमी जुलूस को देख कर की गयी थी। हजारीबाग में रामनवमी जुलूस गुरु सहाय ठाकुर ने 1925 में वहां के कुम्हार टोली से प्रारंभ की थी। राची के श्रीकृष्ण लाल साहू की शादी हजारीबाग में हुई थी। वर्ष 1927 में रामनवमी के समय वह अपनी ससुराल हजारीबाग में थे। वहां का रामनवमी जुलूस देखा। रांची आकर अपने मित्र जगन्नाथ साहू सहित अन्य के साथ वहां की रामनवमी के अनुभव को साझा किया। इसके बाद मित्रों में उत्सुकता जगी। वर्ष1928 में सभी हजारीबाग की रामनवमी को देखने गये। इसके बाद 17 अप्रैल, 1929 में राची में इसकी शुरूआत कर दी गयी।
पहाड़ी मंदिर में पटाखा जला कर दी जाती थी सूचना:
शहर के बड़े-बुजुर्ग और पुराने वाशिंदे बताते हैं कि 1930 में जब दूसरी शोभायात्रा निकाली गयी, तो महावीरी झंडों की संख्या थोड़ी बढ़ी। उस साल शोभायात्रा रातू रोड स्थित ग्वाला टोली से नन्हू भगत के नेतृत्व में निकाली गयी थी। हर वर्ष शोभायात्रा में झंडों की संख्या में वृद्धि होती चली गयी। लोग उत्साह के साथ इसमें सम्मिलित होने लगे। इस आयोजन को व्यवस्थित रूप प्रदान करने के लिए 5 अप्रैल 1935 को एक बैठक संतुलाल पुस्तकालय, अपर बाजार में की गयी। बैठक में महावीर मंडल का गठन किया गया। इसके प्रथम अध्यक्ष महंत ज्ञान प्रकाश उर्फ नागा बाबा तथा महामंत्री डॉ रामकृष्ण लाल बनाये गये। तब से रामनवमी के अवसर पर यह शोभायात्रा 1964 को छोड़ कर नियमित रूप से निकाली जा रही है। शुरूआती सालों में मुख्य शोभायात्रा रातू रोड से निकाली जाती थी, जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए मेन रोड पहुंचती थी। इसमें अपर बाजार, भुतहा तालाब, मोरहाबादी, कांके रोड, बरियातू रोड, चडरी, लालपुर, चर्च रोड, मल्लाह टोली, चुटिया, हिंदपीढ़ी आदि अखाड़ों के झंडे भी सम्मिलित होने लग गये। रतन टॉकीज तक पहुंचते-पहुंचते शोभायात्रा अत्यंत विशाल रूप ग्रहण कर लेती थी। सभी अखाड़ों के झंडे निवारणपुर स्थित तपोवन मंदिर के सामने वाले मैदान में पहुंचते थे। आज भी यहीं पहुंचते हैं और यहीं इसका समापन या विसर्जन होता है। अब 1500 के लगभग अखाड़े होते हैं शामिल:
वर्ष 1929 में केवल दो महावीरी झंडों के साथ शुरू हुआ रामनवमी का जुलूस धीरे-धीरे विशाल रूप लेता चला गया। श्री महावीर मंडल बरियातू का जुलूस एक झंडे से निकलना शुरू हुआ था। वर्ष 1960 से श्री महावीर मंडल बड़ा तालाब की शोभायात्रा बड़ा तालाब के समीप से निकल रही है। राम सरीखन सिंह, सरदार अमरजीत सिंह, छोटू राम रजक सहित अन्य ने यहां के अखाड़े का गठन किया था। इसी तरह वर्ष 1980 में हमको जी और खलखो जी बरियातू डॉक्टर कॉलोनी स्थित चबूतरे से झंडा लेकर निकलते थे और मुख्य जुलूस के साथ मिल कर श्री राम जानकी मंदिर तपोवन जाते थे। उनके इस अथक प्रयास ने धीरे-धीरे रंग लाना शुरू किया और 1984 से इसका स्वरूप बड़ा होता चला गया। श्री महावीर मंडल पंडरा की शोभायात्रा भी 1980 से निकल रही है। हालांकि इस अखाड़े की स्थापना 1972 में हुई थी। अखाड़े का गठन रवि सिंह, भरत साहू, कामेश्वर प्रसाद, लक्ष्मण साहू आदि ने किया था। बड़गाईं से रामनवमी की शोभायात्रा 1955-56 से निकल रही है। रांची में 1960 के दशक में शोभायात्रा को और भव्य बनाने का प्रयास किया गया। उस वक्त से यहां अस्त्र-शस्त्र चालन प्रतियोगिता का भी आयोजन शुरू हुआ। इसके पीछे उद्देश्य था कि जुलूस के दौरान बेहतर से बेहतर खेल का प्रदर्शन किया जा सके। लोगों का मनोरंजन भी हो सके। धीरे-धीरे झांकी निकालने की परंपरा भी चल पड़ी। वर्तमान में लगभग 80 लाइसेंसधारी हैं, जिसके अंतर्गत 18 सौ अखाड़े आते हैं।
पुरानी परंपरा में नये का मिश्रण:
पहले जुलूस में ढोल-नगाड़े बजते थे। जय श्रीराम की गूंज होती। हर हाथ में महावीरी झंडा होता था। बड़े-बड़े झंडे को कई-कई लोग मिल कर ढोते थे। ढोल-नगाड़े पर ही श्रद्धालु नाचते-गाते थे। अब ढोल-नगाड़े कम जगहों पर दिखते हैं। उसकी जगह डीजे ने ले लिया है। हजारीबाग में डीजे को बजाने को लेकर विवाद भी हुआ। विधानसभा में भी मामला उठा। अब स्थिति यह हो गयी है कि अगर डीजे न हो, तो रामनवमी का जुलूस फीका रह जायेगा। पहले जहां सजावट बहुत अधिक नहीं होती थी, वहीं अब हर तरफ साजवट दिखने लगी है। पहले झंडा, झंडी आदि से सजावट होती थी, वहीं अब लाइन और तोरण द्वार लगने लगे हैं। मंच बनाने की परंपरा 1980 के दशक में शुरू हुई। कहीं-कहीं छोटा-छोटा मंच बनाया जाता था, जिस पर अखाड़ा के पदाधिकारी और प्रदेश के नेतागण मौजूद रहते। वह भी कुछ देर के लिए। जुलूस पहुंचते ही वे उसमें शामिल होते थे और खुद झंडा ढोने के लिए लालायित रहते थे। बड़े-बड़े नेता, सांसद और विधायक, विभिन्न राजनीतिक दलों के पदाधिकारी सभी इसमें शामिल होते। केवल जुलूस में ही नहीं, रामनवमी से पहले अखाड़ों में अस्त्र चालन प्रतियोगिताएं होती थीं, जिनमें नेता शामिल होते और करतब भी दिखाते थे। यह सब उनके लिए प्रतिष्ठा का विषय होता और बाद में ये नेता गर्व से कहते थे कि इस साल उन्होंने इतने अस्त्र चालन प्रतियोगिताओं में भाग लिया।
कार्यकर्ताओं के कंधों पर टिका है जुलूस का भार:
रामनवमी के दिन परंपरा के अनुसार सभी अखाड़ों के झंडे निवारणपुर स्थित तपोवन मंदिर के सामने वाले मैदान में पहुंचते हैं। यहीं इनका समापन या विसर्जन होता है। शोभायात्रा अपर बाजार के श्री महावीर चौक स्थित महावीर मंदिर पहुंचती है। यहां पूजन होता है। अलबर्ट एक्का चौक पर भी अखाड़ों द्वारा विशाल झंडों का प्रदर्शन किया जाता है। इसके बाद तपोवन मंदिर मैदान में विशाल झंडों को खड़ा किया जाता है। पहले इस यात्रा में विभिन्न महावीर मंडलों के पदाधिकारी, राजनीतिक दलों के पदाधिकारी, सांसद, विधायक शांमिल होते थे। वे कई-कई किलोमीटर तक कार्यकर्ताओं के साथ झंडा ढोते थे। कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते थे। अब इन सभी का मुख्य केंद्र अल्बर्ट एक्का चौक और बनाये गये मंच तक सिमट कर रह गया है। जुलूस का भार अब कार्यकर्ताओं के कंधे पर है और बड़े झंडे किराये के लोग ढोते हैं।
मंच के आकार से कराया जाता बड़े-छोटे का एहसास:
बीते कुछ सालों तक अखाड़ों की महत्ता का एहसास झंडों की संख्या से होता था। जिस अखाड़े के जितने झंडे होते थे, उसकी ताकत उतनी बड़ी आंकी जाती थी। झंडों की संख्या से अखाड़े में शामिल लोगों की गणना होती थी। समय के साथ-साथ इसमें बदलाव आ रहा है। अब किस अखाड़े का कितना बड़ा मंच बना है, यह छोटे-बड़े का एहसास कराता है। नेता और पदाधिकारीगण इसी पर मंचासीन रहते हैं। पहले की तरह जुलूस में उनकी भागीदारी कम दिखती है। जुलूस आने पर वे कुछ देर के लिए मंच से उतरते हैं, हाथ में झंडा थामते हैं, फोटो खिंचवाते हैं, बस हो गया जय श्रीराम।
एक और खास बात यह है कि महावीर मंडलों में अब राजनीति भी प्रवेश कर रही। नतीजतन पुराने लोग इस पर दबदबा बनाये रखने का प्रयास करते हैं। नये लोगों को मौका कम मिलता है। रांची में पिछले बीस सालों से कुछ गिने-चुने नाम ही सामने आते हैं। कमान वही लोग अपने हाथ में रखते हैं। वे नये लोगों को सामने आने का मौका ही नहीं देते। पुलिस-प्रशासन की मदद से वे अपना रुतबा बनाये हुए हैं। पहले अध्यक्ष का चुनाव होता था। अब कुछ पुराने लोग बैठ कर आपस में ही अध्यक्ष का चयन कर लेते हैं। विज्ञप्ति जारी कर जानकारी दे दी जाती है कि इस बार अध्यक्ष अमुÞक चुने गये। हमें याद रखना होगा यह राजनीतिक अखाड़ा नहीं है। यह एक धार्मिक आयोजन है। अखाड़ों का महत्व बरकरार रहे, इसके प्रति आस्था बनी रहे, इसके लिए सभी की भागदारी जरूरी है। नेता और कार्यकर्ता सभी सड़क पर होंगे तो इसकी शान और बढ़ेगी।