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    Home»रोचक पोस्ट»(रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पुण्यतिथि पर विशेष) सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…
    रोचक पोस्ट

    (रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पुण्यतिथि पर विशेष) सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…

    sunil kumar prajapatiBy sunil kumar prajapatiApril 23, 2023No Comments7 Mins Read
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    चौबीस अप्रैल, 1974 की वो रात भारतीय साहित्य के इतिहास में काली स्याही से दर्ज है, जब गंगा की गोद में जन्मे हिंदी साहित्य के सूर्य रामधारी सिंह ‘दिनकर’ नश्वर शरीर को त्यागकर बैकुंठ लोक की ओर चले गए। उस समय संचार के इतने संसाधन तो थे नहीं, धीरे-धीरे लोगों को पता चला कि तिरुपति बालाजी के दर्शन करने के बाद दिनकर जी ने नश्वर शरीर को त्याग दिया। साहित्य जगत और हिंदी पट्टी में शोक फैल गया। उनका पैतृक गांव सिमरिया रो पड़ा।

    बिहार के तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिला के सुरम्य गंगा तट सिमरिया गांव के सामान्य किसान परिवार में 23 सितम्बर, 1908 को जब मनरूप देवी एवं रवि सिंह के यहां द्वितीय पुत्र जन्म हुआ तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि वह एक दिन राष्ट्रीय फलक पर ध्रुव तारा बन चमकेगा। दिनकर जी सदा जमीन से जुड़े रहे और संघर्ष करते हुए राष्ट्र की भावना को निरंतर सशक्त भाषा में अभिव्यक्त कर अपनी अद्वितीय रचनाओं से साहित्य के इतिहास में अमर हो गए।

    दिनकर जी को प्रारंभिक शिक्षा गांव तथा बारो स्कूल में करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गंगा नदी के पार मोकामा उच्च विद्यालय कभी तैरकर तो कभी नाव से आना-जाना पड़ता था। 1933 में उच्च शिक्षा हासिल कर विद्यालय बरबीघा में शिक्षक बन गए। अगले ही साल निबंधन विभाग के अवर निबंधक के रूप में नियुक्त कर दिए गए। इस दौरान उन्हें कवि के रूप में ख्याति मिलने लगी थी। इस ख्याति का पुरस्कार यह मिला कि पांच साल की नौकरी में 22 बार तबादला हुआ।

    उन्होंने 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी के पद और 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक के पद पर कार्य किया। 1952 में जब राज्यसभा का गठन हुआ तो जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर जी को राज्यसभा के लिए मनोनीत करवा कर अपने पाले में लेने की कोशिश की। 1962 का लोकसभा का चुनाव हारने के बाद ललित नारायण मिश्रा ने जब अपने लिए उनसे इस्तीफा देने का अनुरोध किया तो बगैर कुछ सोचे और समय गंवाए इस्तीफा दे दिया।

    वर्ष 1963 में वो भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने, लेकिन 1965 में त्यागपत्र दे दिया। उस समय उन्होंने कहा था सीनेट और सिंडिकेट में जब तक वाक युद्ध होता रहा तो उसे सहता रहा, लेकिन जब अंगस्पर्श की नौबत आ गई तो पद का परित्याग कर देना आवश्यक था। इसके बाद दिनकर जी को 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार का दायित्व निर्वहन करना पड़ा।

    राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 26 जनवरी 1950 को जब लाल किले के प्राचीर से ”सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह समय के रथ का घघर्र नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…” कहा तो पूरे परिदृश्य में सन्नाटा खिंच गया। उन्होंने हमेशा अपनी कविता के माध्यम से समाज को ललकारते हुए कर्तव्य बोध का अहसास कराया।

    वाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट्रकवि बने दिनकर जी को राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रांतिकारी साहित्य का नायक माना जाता है। इस संबंध में उनकी रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविताएं प्रमुख हैं। दिनकर जी ने परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में नई दृष्टि दी है। संस्कृति के चार अध्याय में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया है।1959 में संस्कृति के चार अध्याय के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसी साल तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पद्मभूषण प्रदान कर अलंकृत किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ. जाकिर हुसैन (बाद में भारत के राष्ट्रपति बने) से साहित्य के डॉक्टर का सम्मान मिला।

    दिनकर जी को गुरुकुल महाविद्यालय ने विद्या शास्त्री सम्मान से अलंकृत किया । आठ नवम्बर 1968 को उन्हें साहित्य-चूड़मानी के रूप में राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर में सम्मानित किया गया। 1972 में उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था-”मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं। इसलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है और निश्चित रूप से वह बनने वाला रंग केसरिया है।”

    द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित प्रबन्ध काव्य ”कुरुक्षेत्र” को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वां स्थान मिला है। प्रतिरोध की आग मद्धिम नहीं हो, इसके लिए रश्मिरथी में कर्ण और परशुराम प्रतीक्षा को दिनकर ने प्रतीकात्मक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। दोनों में सामंती व्यवस्था का प्रतिकार है।

    ”जब तक मानव-मानव का सुख भाग नहीं सम होगा, शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा- ” इस तरह आर्थिक गुलामी से भी मुक्ति की गहरी आकांक्षा दिनकर जी के काव्य की मूल प्रेरणा है। भारतीयता के बिम्ब के रूप में हुए महाराणा प्रताप, शिवाजी, चंद्रगुप्त, अशोक, राम, कृष्ण और शंकर का नाम लेते हैं तो दूसरी ओर टीपू सुल्तान, अशफाक, उस्मान और भगत सिंह का भी। भगत सिंह और उनके किशोर क्रांतिकारी साथियों की शहादत के बाद ”हिमालय” में गांधीवादी विचारधारा के प्रतीक युधिष्ठिर की जगह गांडीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीम के शौर्य का अभिनंदन करते हुए उन्होंने कहा था ”रे रोक युधिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर।”

    चीन के आक्रमण के समय ”परशुराम की प्रतीक्षा” में शांतिवादियों की आलोचना करते हुए भगत सिंह जैसे क्रांतिवीरों के इतिहास का स्मरण किया है कि ”खोजो टीपू सुल्तान कहां सोए हैं, अशफाक और उस्मान कहां सोए हैं, बम वाले वीर जवान कहां सोए हैं, वे भगत सिंह बलवान कहां सोए हैं।” शांति की रक्षा के लिए वीरता और शौर्य की आवश्यकता महसूस करते हुए उन्होंने कहा- ”देशवासी जागो, जागो गांधी की रक्षा करने को गांधी से भागो।” छायावादी संस्कारों से कविता लेखन प्रारंभ करने वाले दिनकर जी की आरंभिक कीर्ति रेणुका की कुछ कविताओं, हिमालय के प्रति हिमालय, कविता की पुकार में प्रगतिशीलता का उन्मेष दिखाई पड़ता है।

    किसानों के जीवन की विडम्बना को कविता की पुकार में रूबरू कराते हुए दिनकर ने लिखा- ”ऋण शोधन के लिए दूध घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे, बुंद-बुंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे।” गरीबी पर लिखा- ”श्वानों को मिलता दूध भात भूखे बालक अकुलाते हैं, मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।” समतामूलक समाज के निर्माण के लिए दिल्ली और मास्को में कहा- ”अरुण विश्व की लाली जय हो, लाल सितारों वाली जय हो, दलित वमुक्ष विषण्ण मनुज की शिखा शूद्र मतवाली जय हो।”

    दिनकर की ”उर्वशी” को हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ कहा जाता है। परशुराम की प्रतीक्षा कहती है ”दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल के जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं।”

    अपने जीवन के अंतिम दिनों में राष्ट्रकवि दिनकर इंदिरा गांधी के शासन से ऊब गए थे। उन्होंने इंदिरा राज के खिलाफ खुलेआम बोलना शुरू किया। कहा भी- ”मैं अंदर ही अंदर घुट रहा हूं, अब विस्फोट होने वाला है, जानते हो मेरे कान में क्या चल रहा है, अगर जयप्रकाश को छुआ गया तो मैं अपनी आहुति दूंगा। अपने देश में जो डेमोक्रेसी लटर-पटर चल रही है, इसका कारण है कि जो देश के मालिक हैं, वह प्रचंड मूर्ख हैं। स्थिति बन गई है कि वोट का अधिकार मिल गया है भैंस को, मजे हैं चरवाहों के।” राष्ट्रकवि दिनकर जी की कविता की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह महाभारत के संजय की भांति दिव्य दृष्टि रखती है। वह कह गए हैं- ”समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।”

    रामधारी सिंह 'दिनकर
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