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    Home»विशेष»सिंहभूम सीट पर दो महिलाओं के बीच चुनावी जंग
    विशेष

    सिंहभूम सीट पर दो महिलाओं के बीच चुनावी जंग

    adminBy adminApril 11, 2024No Comments10 Mins Read
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    विशेष
    कोल्हान की धरती पर दिखेगा दो आदिवासी महिलाओं के मुकाबले का रोमांच

    झारखंड की सिंहभूम संसदीय सीट पर मुकाबले की तस्वीर साफ हो गयी है। इंडी अलायंस की ओर से झारखंड मुक्ति मोर्चा ने हेमंत सोरेन सरकार में मंत्री रहीं जोबा मांझी को उम्मीदवार घोषित कर दिया है। वह भाजपा की गीता कोड़ा के सामने होंगी। झामुमो द्वारा जोबा मांझी को टिकट दिये जाने की घोषणा के बाद सिंहभूम लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में दो महिलाओं के बीच टक्कर के आसार बन गये हैं। पिछले लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस के खाते में मात्र सिंहभूम सीट आयी थी। तब गीता कोड़ा ने कांग्रेस के लिए यह सीट जीती थी। इस बार उन्होंने पाला बदल लिया है और दो महीने पहले भाजपा में शामिल हो गयी हैं। गीता कोड़ा पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी हैं और लगातार दो बार सिंहभूम संसदीय क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुई हैं। कोड़ा परिवार की सिंहभूम संसदीय क्षेत्र में एक बड़ी राजनीतिक हैसियत है और इसी कारण भाजपा ने उन्हें अपने पाले में शामिल करा कर टिकट दिया है। पिछली बार गीता कोड़ा ने भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा को 72155 वोट के अंतर से हराया था। उस चुनाव में कांग्रेस को 49.1 और भाजपा को 40.9 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था। इस बार के चुनाव में भी संभावना पूरी तरह द्विपक्षीय मुकाबले की है। उनकी प्रतिद्वंद्वी जोबा मांझी मनोहरपुर से विधायक हैं। जोबा मांझी को उम्मीद है कि झामुमो और कांग्रेस के परंपरागत वोटों का फायदा उन्हें इस चुनाव में मिल सकता है। दो कद्दावर आदिवासी महिलाओं के मुकाबले के रोमांच का गवाह बननेवाली सिंहभूम संसदीय सीट के चुनावी परिदृश्य का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय नेतृत्व ने सिंहभूम लोकसभा सीट से पूर्व मंत्री सह मनोहरपुर विधानसभा क्षेत्र की विधायक जोबा मांझी को प्रत्याशी बनाया है। यहां दो महिलाओं के बीच चुनावी मुकाबले का रोमांच देखने को मिलेगा। हालांकि गीता कोड़ा दो बार की सांसद रह चुकी हैं, जबकि जोबा मांझी लोकसभा का चुनाव पहली बार लड़ रही हैं।
    चाइबासा संसदीय क्षेत्र सारंडा जंगलों की धरती और कोल्हान की हृदयस्थली है। यह झारखंड का महत्वपूर्ण लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र है। यह संसदीय क्षेत्र पश्चिम सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां जिलों के कुछ हिस्सों को मिला कर गठित किया गया है। 1952 में देश के लिए हुए पहले लोकसभा चुनावों में इस सीट का गठन नहीं हुआ था। 1957 में दूसरे लोकसभा निर्वाचन के दौरान यह संसदीय क्षेत्र अस्तित्व में आया। इस क्षेत्र में चाइबासा, सरायकेला, जगन्नाथपुर, मनोहरपुर, मझगांव और चक्रधरपुर विधानसभा क्षेत्रों को समाहित किया गया है। जहां तक सियासी परिदृश्य का सवाल है, तो यहां कभी कांग्रेस के बागुन सुंब्रुई का प्रभाव था, लेकिन कालक्रम में वह नेपथ्य में चले गये और अब यहां कांग्रेस के साथ भाजपा और झामुमो का भी प्रभाव देखा जाता है। फिलहाल सिंहभूम की राजनीति के केंद्र में कोड़ा दंपति है, यानी पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और उनकी पत्नी सह वर्तमान सांसद गीता कोड़ा।

    भाजपा के लिए आसान नहीं रही यह सीट
    ‘हो’ लड़ाकों की भूमि रही सिंहभूम संसदीय सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए कभी भी आसान नहीं रही है। जब से देश में आम चुनाव हुए हैं, तब से लेकर आज तक भाजपा प्रत्याशी यहां केवल तीन बार ही जीतने में सफल हुए हैं। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सिंहभूम संसदीय सीट पर कमल खिलने में 44 साल लग गये। 1952 से आम चुनाव शुरू हुए। 1952 से लेकर 1991 तक 10 बार लोकसभा चुनाव हुए। भारतीय जनता पार्टी कभी भी चुनाव नहीं जीत पायी थी। यहां पहली बार 1996 में भाजपा का खाता खुला। यह रिकॉर्ड चित्रसेन सिंकू के नाम पर है। चित्रसेन सिंकू ने 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ा और पार्टी को जीत दिलायी थी। हालांकि, दो साल बाद 1998 में फिर से चुनाव हो गये और भाजपा के चित्रसेन सिंकू को हार का सामना करना पड़ा। 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा दूसरी बार जीत दर्ज करने में कामयाब रही और लक्ष्मण गिलुवा सांसद बने। इसके बाद 2004 के चुनाव में फिर से उलटफेर हुआ और भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। 10 साल बाद फिर भाजपा को सिंहभूम सीट से जीत मिली और लक्ष्मण गिलुवा दूसरी बार सांसद बने। सिंहभूम संसदीय सीट पर बागुन सुंबु्रई ने एकतरफा राज किया। वह पांच बार सांसद रहे। जहां तक पार्टियों की बात है, तो इस सीट पर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही अधिकतर समय कांटे की टक्कर देखने को मिली है।

    जोबा मांझी को उतार कर झामुमो ने बदला माहौल
    सिंहभूम सीट से जोबा मांझी को उतार कर झामुमो ने एक तीर से दो शिकार कर लिया है। एक तो उसने इस मुकाबले को दो महिलाओं के बीच बना दिया है और दूसरे इसने पार्टी के भीतर चल रही गुटबाजी को भी खत्म कर दिया है।

    पांच बार की विधायक हैं जोबा मांझी
    जोबा मांझी को उनके दिवंगत शहीद पति देवेंद्र मांझी की पत्नी होने का राजनीतिक लाभ हमेशा मिलता रहा है। शहीद देवेंद्र मांझी की कोल्हान और पोड़ाहाट के साथ-साथ सारंडा क्षेत्र के जंगल गांवों में काफी मजबूत पकड़ थी। 1994 में उनकी हत्या के बाद से जोबा मांझी लगातार पांच बार मनोहरपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक रही हैं। बिहार और झारखंड में कई बार मंत्री भी रही हैं। जोबा मांझी की सादगी सबसे बड़ी पहचान है। उनकी सादगी के कारण सभी राजनीतिक दलों के नेता उनकी आलोचना करने से बचते हैं।

    जोबा मांझी को क्यों उतारा झामुमो ने
    वास्तव में झामुमो ने सिंहभूम में कोड़ा दंपति की राजनीतिक पकड़ को चुनौती देने के लिए ही जोबा मांझी को मैदान में उतारा है। झामुमो के सभी विधायकों को अपने विधानसभा क्षेत्र में भाजपा से अधिक से अधिक मतों से जोबा मांझी को लीड दिलाने का टास्क दिया गया है। यहां तक कहा जा रहा है कि जिस विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी से कम मत मिलेगा, उस विधायक को पुन: टिकट देने पर विचार नहीं किया जायेगा।

    क्या है गीता कोड़ा की ताकत
    गीता कोड़ा ‘हो’ जनजातीय समुदाय से आती हैं। उनके पति मधु कोड़ा राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनका राजनीतिक सफर भी भाजपा से ही शुरू हुआ था और पार्टी से अलग होकर वह भले ही सत्ता शीर्ष तक पहुंचे, लेकिन कांग्रेस और अन्य दलों के साथ ने उनके राजनीतिक जीवन पर ऐसा ग्रहण लगा दिया कि वह आज भी इसके फेर में फंसे हैं। चाइबासा के जगन्नाथपुर विधानसभा क्षेत्र में कोड़ा परिवार की तूती बोलती है। इस दंपति के पास करीब सवा दो लाख वोटों की ऐसी ताकत है, जिसे कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है। 2014 में जब गीता कोड़ा जय भारत समानता पार्टी से सिंहभूम सीट से चुनाव मैदान में उतरी थीं, तो उन्हें करीब इतने ही वोट मिले थे। हालांकि वह भाजपा के लक्ष्मण गिलुआ से हार गयी थीं, लेकिन उनका वोट बैंक पूरी तरह उनके साथ बना रहा। 2019 में झामुमो और कांग्रेस का वोट इसमें जुड़ गया, तो गीता कोड़ा ने लक्ष्मण गिलुआ को पटखनी दे दी थी। गीता कोड़ा की यह ताकत अब भाजपा के पाले में चली गयी है, जबकि कांग्रेस-झामुमो की जोड़ी शून्य पर आ गयी है।

    23 साल से जगन्नाथपुर पर है कोड़ा दंपति का कब्जा
    वर्ष 2000 में इसी सीट से जीत हासिल करने के बाद मधु कोड़ा ने झारखंड की सियासत में अपना परचम गाड़ा था और उसके बाद यह सीट मधु कोड़ा परिवार के हाथ में ही रही। दो बार खुद मधु कोड़ा और दो बार उनकी पत्नी गीता कोड़ा जगन्नाथपुर विधानसभा से विधानसभा तक पहुंचने में कामयाब रही। जब गीता कोड़ा को कांग्रेस के टिकट पर सांसद बना कर दिल्ली भेज दिया गया, तो कांग्रेस ने इस सीट से सोनाराम सिंकू पर अपना दांव लगाया और वह जीतने में कामयाब रहे। माना जाता है कि सोनाराम सिंकू की इस जीत के पीछे भी मधु कोड़ा की ताकत ही रही थी। कुल मिला कर पिछले 23 वर्षों से इस सीट पर मधु कोड़ा का राजनीतिक वर्चस्व कायम है और बाबूलाल का मधु कोड़ा पर दांव लगाने की वजह भी यही है।

    सिंहभूम के चुनावी मुद्दे
    इस बार के संसदीय चुनाव में सिंहभूम के मतदाता प्रत्याशियों को मुद्दों पर तौलेंगे। इस क्षेत्र में वैसे तो कई मुद्दे हैं, लेकिन पलायन, प्रदूषण और गरीबी के साथ नक्सली समस्या सबसे प्रमुख है। इसके अलावा अंधवश्विास, डायन हत्या, मानव तस्करी जैसी समस्याओं से यह संसदीय क्षेत्र दो-चार हो रहा है। आजादी के बाद भी इस क्षेत्र में विकास नहीं हुआ। उच्च और तकनीकी शिक्षा में यह इलाका पिछड़ा है। सिंचाई के मौलिक संसाधनों से लोग अभी भी जूझ रहे हैं। माना जा रहा है कि आगामी चुनाव में ये मुद्दे सत्ता का रास्ता तय करने वाले कारक हैं। सिंहभूम संसदीय क्षेत्र के विकास को समझने के लिए यहां उद्योग, रोजगार, कृषि और शिक्षा के संसाधनों का सच जानना जरूरी है। अगर इन सभी बातों पर विचार करें, तो यहां न तो औद्योगिक विकास हुआ और न ही शिक्षा के नये संस्थान बने। अगर बने भी तो, संसाधनविहीन। विशेषकर मानव संसाधन की कमी इस क्षेत्र में दिखती है।

    सिंहभूम का सियासी परिदृश्य
    सिंहभूम लोकसभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट है। यह सीट सरायकेला- खरसावां और पश्चिमी सिंहभूम जिले में फैली हुई है। यह इलाका रेड कॉरिडोर का हिस्सा है। इस सीट पर अनुसूचित जनजाति का दबदबा है। उरांव, संताल समुदाय, महतो (कुरमी), प्रधान, गोप, गौड़ समेत कई अनुसूचित जनजातियां, इसाई और मुस्लिम मतदाता यहां निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 2014 के चुनाव में भाजपा को अनुसूचित जनजातियों की गोलबंदी के कारण जीत मिली थी।

    सिंहभूम का चुनावी इतिहास
    सिंहभूम का चुनावी इतिहास बेहद दिलचस्प है। 1957 से लेकर 1977 तक इस सीट पर झारखंड पार्टी का दबदबा रहा। 1957 में शंभू चरण, 1962 में हरी चरण सोय, 1967 में कोलाइ बिरुआ, 1971 में मोरन सिंह पूर्ति और 1977 में बागुन सुंब्रुई जीते। 1980 में बागुन सुंब्रुई ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया और चुनाव जीत कर फिर संसद पहुंचे। इसके बाद वह 1984 और 1989 का चुनाव भी जीते। यानी बागुन सुंब्रुई इस सीट से लगातार चार बार सांसद बने। 1991 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कृष्णा मार्डी जीते। 1996 में पहली बार इस सीट पर भाजपा का खाता खुला। भाजपा के टिकट पर चित्रसेन सिंकू जीते। 1998 में कांग्रेस ने वापसी की और विजय सिंह सोय जीते। 1999 में भाजपा के टिकट पर लक्ष्मण गिलुवा जीतने में कामयाब हुए। 2004 में एक बार फिर इस सीट से बागुन सुंब्रुई कांग्रेस के टिकट पर पांचवीं बार संसद पहुंचे। 2009 में इस सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर मधु कोड़ा जीते। 2014 के चुनाव में भाजपा के लक्ष्मण गिलुवा जीते। 2019 में कांग्रेस ने फिर बाजी पलट दी और उसकी प्रत्याशी गीता कोड़ा ने लक्ष्मण गिलुवा को हरा दिया।

    सीट से जुड़े हैं कई दिलचस्प मिथक
    सिंहभूम लोकसभा सीट से कई दिलचस्प मिथक जुड़े हुए हैं। हालांकि 2019 के चुनाव में गीता कोड़ा ने इनमें से कई मिथकों को तोड़ा। पहला मिथक तो यही था कि आज तक यहां से केवल ‘हो जाति’ के ही उम्मीदवार जीतते रहे हैं। दूसरा मिथक यह था कि यहां की जनता ने कभी किसी महिला प्रत्याशी को नहीं जिताया। एक अन्य मिथक यह है कि पूर्व सांसद बागुन सुंबु्रई के अलावा यहां पर किसी को लगातार जीत नहीं मिली है। लक्ष्मण गिलुवा दो बार 1999 और 2014 में यहां पर जीत हासिल की, लेकिन वह भी लगातार नहीं जीत पाये। पहला मिथक तो अब भी बरकरार है, लेकिन दूसरा मिथक गीता कोड़ा ने 2019 में तोड़ा, जबकि इस बार यह देखना दिलचस्प होगा कि तीसरा मिथक वह तोड़ पाती हैं या नहीं या फिर जोबा मांझी पहली बार में ही झामुमो के लिए सिंहभूम का किला फतह करेंगी।

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