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    Home»विशेष»गोड्डा में इस बार दिखेगा जातीय राजनीति का असली दम
    विशेष

    गोड्डा में इस बार दिखेगा जातीय राजनीति का असली दम

    adminBy adminApril 16, 2024Updated:April 17, 2024No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    अपने गढ़ में लगातार चौथी बार जीत के प्रति आश्वस्त हैं निशिकांत दुबे
    यदि गैर ब्राह्मण-मुस्लिमों का समीकरण बना, तो लड़ाई रोमांचक होगी
    विकास के पैमाने पर राज्य के बाकी इलाकों से आगे है गोड्डा संसदीय क्षेत्र

    झारखंड के आठ अनारक्षित संसदीय क्षेत्रों में से एक गोड्डा में हालांकि मुकाबले की तस्वीर अब तक साफ नहीं हुई है, लेकिन इतना तय है कि इस बार यहां जातीय राजनीति का असली दम देखने को मिलेगा। गोड्डा झारखंड का इकलौता ऐसा क्षेत्र है, जहां ब्राह्मणों की संख्या निर्णायक है और यदि उनके साथ दूसरी सवर्ण जातियां आ जायें, तो किसी को भी जिता या हरा सकती हैं। यही कारण है कि भाजपा प्रत्याशी डॉ निशिकांत दुबे लगातार चौथी बार अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त हैं कि उन्होंने प्रचार नहीं करने की घोषणा कर दी है। उन्हें अपनी स्वजातीय वोटरों की गोलबंदी पर भरोसा ही नहीं, यकीन भी है। इसलिए कहा जा रहा है कि झारखंड की इस ‘बिहारी सीट’ पर इस बार जातियों की सियासत देखने को मिलेगी। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि यदि गोड्डा में गैर-ब्राह्मण और मुस्लिम एकजुट हो गये, तो फिर लड़ाई रोमांचक हो सकती है। इसी समीकरण के बल पर यहां से कांग्रेस के फुरकान अंसारी और प्रदीप यादव पहले सांसद चुने जाते रहे हैं। जातीय राजनीति के अलावा डॉ निशिकांत दुबे के पास गिनाने लायक कई ऐसे काम हैं, जिनके बल पर वह वोट मांग सकते हैं। गोड्डा संसदीय क्षेत्र के चुनावी मुद्दे अब तक तय नहीं हुए हैं, लेकिन निशिकांत दुबे को घेरने के लिए विपक्ष ने रणनीति को अंतिम रूप दे दिया है। क्या है गोड्डा संसदीय क्षेत्र का माहौल और चुनावी मुद्दे, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    17वीं लोकसभा में झारखंड के सबसे मुखर और सक्रिय सांसद और गोड्डा से लगातार चौथी बार भाजपा के टिकट पर चुनावी मुकाबले में उतरे डॉ निशिकांत दुबे ने हाल में एक बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि यिद प्रदीप यादव या फुरकान अंसारी को इंडी गठबंधन उम्मीदवार बनाता है, तो वह चुनाव प्रचार नहीं करने जायेंगे। इनके लिए उनके कार्यकर्ता ही काफी हैं। इस बयान की क्रोनोलॉजी को समझना जरूरी है। दरअसल, झारखंड के आठ अनारक्षित संसदीय क्षेत्रों में से गोड्डा झारखंड का एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां ब्राह्मणों की आबादी निर्णायक है। गोड्डा संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के जातिगत आंकड़ों पर गौर करने से स्थिति काफी कुछ साफ होती दिखती है। गोड्डा लोकसभा क्षेत्र में वोटरों की कुल संख्या 19 लाख 95 हजार 192 है। यहां सर्वाधिक चार लाख की आबादी ब्राह्मणों की है, जबकि मुस्लिम साढ़े तीन लाख के आसपास हैं। यादवों की आबादी ढाई लाख है। इसके अलावा वैश्य की आबादी ढाई से तीन लाख है और आदिवासियों की आबादी डेढ़ से दो लाख और राजपूत, भूमिहार और कायस्थ की संख्या एक लाख के करीब है। शेष पंचगनिया दलित हैं।
    इस जातीय आंकड़ों पर गौर करने से साफ हो जाता है कि ब्राह्मणों की इतनी बड़ी आबादी यदि एकमुश्त किसी को वोट दे दे, तो फिर उसकी जीत को कोई रोक नहीं सकता है। डॉ दुबे इसी जाति से आते हैं। उन्हें स्वजातीय वोटरों के अलावा दूसरी सवर्ण जातियों और भाजपा के कोर वोटर रहे वैश्य समुदाय पर भरोसा है। यदि इन जातियों के वोटरों की गोलबंदी हो गयी, तो फिर उनका रास्ता साफ हो जायेगा।

    गोड्डा में निर्णायक साबित होते हैं ब्राह्मण वोटर
    इन सबमें एक बात साफ है की निर्णायक मत गोड्डा लोकसभा में ब्राह्मण वोटरों की है, जिनकी संख्या चार लाख के करीब है। ब्राह्मण बहुल मतों के कारण ही गोड्डा लोकसभा को झारखंड का मिथिलांचल कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह मिथिला का आंचल है, जहां बड़ी आबादी मैथिल ब्राह्मणों की है, जिससे एक वर्ग का एकमुश्त वोट भाजपा को मिलता रहा है। ब्राह्मण वोटर पहले कांग्रेस के साथ जुड़े रहे, लेकिन मोदी काल के बाद ये पूरी तरह से भाजपा के लिए वोट करते हैं। अब सवाल है कि अगर ब्राह्मण वोट में सेंधमारी होती है और ऐसा कांग्रेस कर पाने में सफल होती है, तो उनके लिए बड़ा दांव हो सकता है। लेकिन फिलहाल गोड्डा में ऐसा होता दिख नहीं रहा है।

    गैर-ब्राह्मण-मुस्लिम वोटों की गोलबंदी से खतरा
    दूसरी तरफ गोड्डा संसदीय क्षेत्र में गैर-ब्राह्मण और मुस्लिमों की गोलबंदी पहले भी होती रही है और इस बार भी यदि जातीय गोलबंदी पर जोर डाला गया, तो यह समीकरण बन सकता है। यदि ऐसा हुआ और मुस्लिम, यादव और आदिवासी मत एकजुट हो गये, तो भाजपा के लिए चुनौती हो सकती है।

    गोड्डा में ब्राह्मण दो समूह में हैं
    गोड्डा में ब्राह्मण भी दो समूह में हैं। एक मैथिल और दूसरा कन्नौजिया। कई बार ये एक-दूसरे के आमने-सामने होते हैं। हालांकि यह क्षेत्र मिथिला से सटा हुआ है, इस कारण मैथिलों की संख्या ज्यादा है और इसका प्रभाव अधिक है। वहीं कान्यकुब्ज उत्तप्रदेश, मध्यप्रदेश और गढ़वाल से आकर यहां बसे हैं। इन लोगों के घर पूजा-पाठ में मैथिली पद्धति ही हावी है। निशिकांत दुबे कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं।
    ब्राह्मण मतों में सेंधमारी की होगी कोशिश
    पिछले दिनों भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष और पूर्व मंत्री राज पलिवार के कांग्रेस में आने की बात आयी थी। हालांकि राज पलिवार ने बाद में इसका खंडन भी किया था। इसके पीछे भी यही समीकरण था कि एक मैथिल ब्राह्मण उम्मीदवार कांग्रेस से उतार कर भाजपा को उसी के नेता से ब्राह्मण मतों में सेंधमारी की जाये।

    गोड्डा का सियासी इतिहास
    गोड्डा लोकसभा सीट को भले ही आज भाजपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें, तो इस सीट पर कभी कांग्रेस का राज हुआ करता था। वर्तमान में यहां कांग्रेस दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है। आखिरी बार 20 साल पहले साल 2004 में कांग्रेस के फुरकान अंसारी यहां से सांसद बने थे। उसके बाद गोड्डा में निशिकांत दुबे की इंट्री हुई और बीते तीन टर्म से निशिकांत यहां से सांसद हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने एक बार फिर उन पर ही भरोसा जताया है। निशिकांत ने गोड्डा में इंट्री के साथ ऐसा तूफान पैदा किया कि गोड्डा में कांग्रेस फिर वापस भी नहीं आ पायी। भाजपा ने अब तक गोड्डा से आठ बार और कांग्रेस ने छह बार जीत दर्ज कर की है। यहां क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा काफी कम रहा है। इस सीट के लिए मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही चला है। 1977 के चुनाव में गोड्डा सीट पर जेपी आंदोलन का असर दिखा और 1977 में भारतीय लोक दल पार्टी से जगदंबी प्रसाद यादव सांसद बने और 1991 में झारखंड मुक्ति मोर्चा से सूरज मंडल ने यहां से जीत हासिल की थी। इसके अलावा गोड्डा सीट पर कभी भी क्षेत्रिय पार्टियों की वापसी नहीं हुई है।

    गोड्डा का राजनीतिक परिदृश्य
    गोड्डा संसदीय क्षेत्र में पड़ने वाले तीन जिलों की छह विधानसभा सीटों में एक देवघर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2019 के विधानसभा चुनाव में इन छह में से दो सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमाया था, जबकि दो पर कांग्रेस और एक-एक पर झामुमो और झाविमो की जीत हुई थी। बाद में झाविमो के विधायक प्रदीप यादव कांग्रेस में शामिल हो गये। इस तरह अभी चार सीट विपक्षी गठबंधन के पास और दो सीट भाजपा के पास है। देवघर सीट से वर्तमान में भाजपा के विधायक नारायण दास हैं, जबकि गोड्डा से अमित मंडल विधायक हैं। मधुपुर से झामुमो के हफीजुल अंसारी विधायक हैं। जरमुंडी, महगामा और पोड़ैयाहाट से क्रमश: कांग्रेस के बादल पत्रलेख, दीपिका पांडेय सिंह और प्रदीप यादव विधायक हैं। गोड्डा विधानसभा सीट से भाजपा के अमित मंडल और पोड़ैयाहाट से झाविमो के प्रदीप यादव विधायक हैं।

    गोड्डा संसदीय क्षेत्र का चुनावी इतिहास
    गोड्डा जब स्वतंत्र लोकसभा सीट के रूप में नहीं जाना जाता था और अविभाजित बिहार का अंग था, उस वक्त देश में हुए पहले चुनाव में संताल परगना प्रमंडल क्षेत्र से पहले सांसद के रूप में देवघर के पुरोहित समाज के पंडित रामराज जजवाड़े निर्वाचित हुए थे। 1962 और 1967 के चुनाव में इस सीट से कांग्रेस के प्रभुदयाल जीते। 1971 और 1977 के चुनाव में जगदीश मंडल विजयी रहे । जगदीश मंडल 1971 में कांग्रेस और 1977 में भारतीय लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़े थे। 1980 और फिर 1984 में मौलाना समीउद्दीन ने जीत दर्ज की थी। 1989 में इस सीट पर भाजपा के जनार्दन प्रसाद यादव जीते थे। 1991 में झामुमो के सूरज मंडल विजयी घोषित किये गये थे। पुन: गोड्डा सीट पर भाजपा की वापसी हुई। 1996, 1998 और 1999 का चुनाव भाजपा के टिकट पर जगदंबी प्रसाद यादव जीते। 2000 का चुनाव भाजपा के ही टिकट पर प्रदीप यादव जीते। 2004 में अपनी पारंपरिक सीट पर कांग्रेस ने वापसी की और फुरकान अंसारी चुनाव जीते। लेकिन उसके बाद एक बार फिर भाजपा ने गोड्डा सीट पर अपनी पुनर्वापसी की। 2009, 2014 और 2019 में पार्टी प्रत्याशी डॉ निशिकांत दुबे ने जीत दर्ज की।

    गोड्डा लोकसभा क्षेत्र के मुद्दे
    बड़ा सवाल है कि गोड्डा में किन मुद्दों पर चुनाव लड़ा जायेगा। गोड्डा के ललमटिया में राजमहल कोल परियोजना के अंतर्गत एशिया का सबसे बड़ा कोयला पिट है। मुद्दा यह है कि स्थानीय ग्रामीणों को इसका कितना लाभ मिलता है। गोड्डा शहर में 16 सौ मेगावाट क्षमता वाला अडाणी का पावर प्लांट है। समझौते के मुताबिक इसका 25 फीसदी झारखंड को मिलना था, लेकिन नहीं मिल रहा है। गठबंधन इसे यहां मुद्दा बनायेगा। गोड्डा में बांग्लादेशी घुसपैठ भी इस बार मुद्दा बनेगा। इसके अलावा गरीबी, पलायन और रोजगार जैसे मुद्दे तो हैं ही। लेकिन अभी से ही यहां जिस तरह जातीय गोलबंदी की कोशिशें होने लगी हैं, उससे तो यही लगता है कि यहां सबसे ऊपर जाति का ही मुद्दा रहेगा।

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