आज भी खुले में शौच, सोने के लिए खुला आसमान और खाली जमीन। इसके बावजूद चुनाव में जान की बाजी लगा रहे झारखंड के जवान। जी हां, चुनाव में अरबों-अरब का खर्च करनेवाला चुनाव आयोग इन जवानों के लिए न तो शौचालय की व्यवस्था करा पाता है और न ही सोने के लिए सुविधा दे पाता है। लेकिन इन जवानों का जोश और हौसला भी ये समस्याएं पस्त नहीं कर पातीं, वह भी तब, जब तापमान 40 के पार हो। आसमान से आग के गोले बरस रहे हों, धरती शोले सी तप रही हो। कमोबेश चुनाव ड्यूटी के नाम पर इन जवानों को सिर्फ और सिर्फ अपमान और समस्याओं की गठरी मिलती है। चुनाव के दौरान भी इन जवानों पर किसी का ध्यान नहीं होता है। न तो आयोग और न ही जिला प्रशासन ध्यान देता है। सवाल है कि आखिर कब तक हमारे जवानों को अपमान और समस्याओं की टॉनिक पिलायी जाती रहेगी। कब तक ये जलालत भरी जिंदगी जीते रहेंगे। आखिर कब इन जवानों के कष्ट को सरकार समझेगी। यह कोई फिल्म की पटकथा नहीं, बल्कि सच्चाई है। इस सच से आजादी सिपाही टीम का भी सामना मसानजोर में हुआ। यहां मयूराक्षी रिसोर्ट में जवानों को ठहराया गया था। यहां अंदर जाने पर जब जान की बाजी लगानेवाले जवानों के कष्ट को करीब से देखा-समझा, तो एकबारगी सोचने पर विवश हो गया कि आखिर कब तक जवानों को कष्ट भरी जिंदगी से दो-चार होना पड़ेगा। ठहरने के लिए मयूराक्षी रिसोर्ट तो इन जवानों को भेज दिया गया, लेकिन इसकी व्यवस्था देखने कोई नहीं आया। नतीजतन करीब 200 से अधिक जवानों को इन्हीं समस्याओं से जूझना पड़ा।
मंगलवार की रात के आठ बजे जब हम लोग मसानजोर के मयूराक्षी रिसोर्ट पहुंचे, तो जवानों की चहलकदमी चुनाव का एहसास करा रही थी। हॉल से लेकर बरामदे-सीढ़ी तक जहां जिसको जगह मिली, चादर-प्लास्टिक डाल कर वे जमीन पर लेटे पड़े थे। कोई अपने घर से मोबाइल द्वारा संपर्क में था, तो कोई चुनावी चर्चा और व्यवस्था की खामी को दबी जुबां से कह रहा था। इसके थोड़ी देर बाद आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादल इन जवानों की परेशानी को और बढ़ा रहे थे। कारण कई जवानों ने गर्मी से राहत के लिए टेरिस पर जगह ले रखी थी। जब पानी की बूंदें आसमान से टपकीं, तो जवानों की परेशानी और बढ़ गयी। आनन-फानन में अपना बिस्तर शेष बची जमीन पर लगा लिया। हालांकि बारिश की वजह से मौसम थोड़ा कूल-कूल जरूर हुआ, जो जवानों का राहत दे गया। जैसे-तैसे रात काटी, लेकिन यह तो अभी समस्याओं की शुरुआत भर थी, अभी तो उन्हें मुसीबतों का पहाड़ चढ़ना था।
सुबह-सवेरे हाथ में बोतल लिये जंगल-झाड़ की तलाश करते दिखे जवान
बुधवार की सुबह छह बजे हैं। यह रिसोर्ट मसानजोर डैम से सटा है। सुबह-सुबह डैम किनारे टहलने निकला, तो यहां का नजारा शर्मसार करनेवाला था। सौ से अधिक की संख्या में जवान हाथ में प्लास्टिक की बोतल में पानी लिये जंगल-झाड़ी की तलाश में भटक रहे थे। यह नजारा स्वच्छ भारत की असली तसवीर दिखा रहा था। खैर, इसके बाद उन्हें नहाने के लिए भी मुकम्मल व्यवस्था नहीं थी, सो कुछ जवानों ने डैम में डुबकी लगा ली। अगर प्रशासन को कुछ नहीं भी करना था, तो कम से कम अस्थायी शौचालय और स्नानागार की व्यवस्था तो कर ही सकता था। कारण नेताओं की सभा या भीड़ होने पर प्रशासन को ये चीजें याद रहती हैं, लेकिन जब जवानों की बात आती है, इन अधिकारियों की आंखों में पानी तक नहीं आता। ये जवान समस्याओं से जूझते हुए उफ तक नहीं कर रहे थे, लेकिन इनके दिल में दर्द था, मानो कह रहे हों कि जवानों के दर्द को भी समझिये ‘सरकार’।
दिल में दर्द, फिर भी गर्व से सीना चौड़ा
बुधवार को सुबह 10 बजे। दबाव भरी दिनचर्या झेलने के बाद जवान नहाने के बाद पूरे जोश के साथ वर्दी पहनते हैं। मुस्कुराहट के साथ सेल्फी लेते हुए कुछ जवान ड्यूटी के लिए निकलते हैं, तो कुछ अपनी वर्दी को ठीक करते हैं। यहां आधा दर्जन जवान पूरी वर्दी में बंदूक के साथ खुद की सुरक्षा के लिए ड्यूटी भी बजा रहे हैं। इधर, एक जवान परिचय फिल्म का अपना पसंदीदा गाना गुनगुना रहा है- मुसाफिर हूं यारों, ना घर है ना ठिकाना, हमें चलते जाना है। वैसे, इसी रिसोर्ट में उनके अधिकारी भी एसी कमरे में ठहरे हुए हैं। परेशानियों के दबाव में भले ही जवानों का मानसिक स्तर पर टूट जायें, लेकिन उनसे कोई हमदर्दी नहीं होती है। अधिकारियों के स्तर पर एक सामान्य समझ विकसित कर ली गयी है कि आॅल इज वेल है। स्थिति देखकर यही लगा कि पुलिस के अफसर भी जवानों की बेहतरी पर बात करना अपनी तौहीन समझते हैं। उनका चरित्र शासक वर्ग का होता चला जा रहा है, जो जवानों को महज एक गुलाम भर समझते हैं। भले ही कानून व्यवस्था के खात्मे का रोना सभी दल रोते हों, लेकिन कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी उठाने वाली पुलिस के सबसे निचले स्तर के जवानों के दुख दर्द उनकी बहस का हिस्सा नहीं होते हैं। पुलिस के कर्मचारी चाहे जितने जोखिम और तनाव में काम करें, लेकिन उन्हें इंसान समझने और उसकी इंसानी गरिमा सुनिश्चित करने की भूल कोई भी राजनीतिक दल नहीं करना चाहता है। इधर, रविवार को चुनाव की ड्यूटी खत्म कर जवानों की इस रिसोर्ट से रवानगी हुई, लेकिन ये अपने साथ मीठी कम, खट्टी यादें ज्यादा दिल में समेटे हुए मसानजोर की वादियों को बाय-बाय करते निकल गये। एक बात जो मुझे परेशान कर रही है कि आखिर कैसे कोई इतना परेशानी झेल कर चुप रह सकता है। इसका जवाब जब मैंने रवानगी से पूर्व एक जवान से लेना चाहा, तो उस कांस्टेबल ने इस डर से अपना नाम नहीं बताया कि कहीं उसका हाल भी बीएसएफ के जवान तेजबहादुर जैसा ना हो जाये, जिसे खाने की खराब गुणवत्ता की शिकायत करते हुए अपना वीडियो पोस्ट करने पर नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। एक अन्य सवाल पर जवान कहता है कि हमारी वर्दी इतना मनोबल देती है। एक बार वर्दी पहन कर निकल जाते हैं, तो लोगों को भरोसा हो जाता है कि कोई गड़बड़ी नहीं होगी। लोगों का यही भरोसा हमें हौसला देता है। उसके बाद हम इन छोटी-मोटी परेशानियों को भूल जाते हैं।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों है
जिम्मेदार इस समस्या पर बात क्यों नहीं करना चाहते। आखिर पुलिस वालों में इंसान होने के स्वाभाविक गुणों के विकास की जगह उनका खात्मा करने में तंत्र इतना तत्पर क्यों है। आखिर पुलिस के जवानों के सामाजिक और मानवीय गुणों को प्रायोजित तरीके से खत्म करने पर व्यवस्था क्यों लगी है। आखिर उसे क्यों केवल एक बंदूकधारी-डंडाधारी आज्ञापालक जवान ही चाहिए, बिल्कुल मशीन की तरह से कमांड लेने वाला। आखिर व्यवस्था पुलिस वालों को इंसान से जानवर बनाने में क्यों तुली है। अब वक्त की मांग है कि इस तरह की चीजों और व्यवस्था पर तत्काल विचार और समाधान निकले।