2019 के लोकसभा चुनाव में झारखंड में एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी का जलवा कायम रहा। बल्कि यह कहा जाये कि वर्ष 2014 के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूती से भाजपा ने झारखंड में जगह बनायी, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। खूंटी और लोहरदगा सीटों को अगर छोड़ दिया जाये, तो लगभग हर सीट पर भाजपा का जीत का मार्जिन काफी बड़ा रहा। हजारीबाग, कोडरमा और पलामू में तो भाजपा उम्मीदवारों के बीच ही वोट को लेकर होड़ मची रही। इन सीटों पर काफी ज्यादा मार्जिन से भाजपा की जीत हुई है।
परिणाम के बाद अब हार और जीत के कारणों की पड़ताल राजनीतिक दल अपने अपने हिसाब से कर रहे हैं। इसमें विपक्ष की हार का सबसे बड़ा कारण रहा उसका चुनाव में क्रिश्चियन और मुसलिम कार्ड। जिन-जिन सीटों पर विपक्ष इन वोटरों के सहारे जीत की उम्मीद बनाये बैठा था, उसमें उसे हार मिली। खूंटी, लोहरदगा और दुमका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वहीं इस चुनाव में बड़े आदिवासी नेताओं में सिर्फ अर्जुन मुंडा ही दिल्ली का रास्ता देख पाये। शिबू सोरेन सोरेन, बाबूलाल मरांडी और लक्ष्मण गिलुआ और सुखदेव भगत जैसे कद्दावर नेता के साथ-साथ हेमलाल मुर्मू और चंपई सोरेन बड़े चेहरों को हार का मुंह देखना पड़ा। झारखंड में यह बात प्रचलित थी कि इन्हीं चेहरों के इर्द-गिर्द आदिवासी राजनीतिक घूमती रहती थी। इस बार यह भ्रम भी टूट गया। बड़े नेताओं में सिर्फ अर्जुन मुंडा ही किसी तरह अपनी सीट बचा पाये। लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है। भले ही भाजपा के प्रत्याशी अर्जुन मुंडा, सुनील सोरेन और सुदर्शन भगत क्रमश: खूंटी, दुमका और लोहरदगा से तुलनात्मक रूप से कम वोटों के अंतर से जीते, लेकिन उन तीनों ने इस मिथक को भी तोड़ दिया कि इन सीटों पर फैसला क्रिश्चियन और मुसलिम मतदाताओं की मुट्ठी में ही कैद रहता है। इस हिसाब से भाजपा के लिए बारह में से इन तीन सीटों पर जीत का पताका फहराना ज्यादा शुकून देनेवाला रहा। कारण जबसे झारखंड में मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में बहुमत की सरकार बनी, तभी से विपक्षी दलों ने लोगों में यह भ्रम फैला कर रखा था कि यह सरकार आदिवासी वोटरों की पसंद नहीं है, हालांकि विधानसभा में भाजपा के पास आदिवासी विधायकों की संख्या कहीं से भी जेएमएम से कम नहीं थी। इस चुनाव परिणाम से यह साफ हो गया कि रघुवर दास की सरकार आदिवासी मतदाताओं में भी उतनी ही पैठ रखती है, जितनी गैर आदिवासी मतदाताओं में। यही कारण है कि यहां शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, सुखदेव भगत और चंपई सोरेन जैसे महारथियों को हार का सामना करना पड़ा।
साफ-साफ शब्दों में अगर बात की जाये, तो इस चुनाव में एक बार फिर साबित हो गया कि झारखंड में आदिवासियों की पहली पसंद भाजपा ही है और उनके बीच रघुवर दास का चेहरा लोकप्रिय है। इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया कि झारखंड में भी अब जाति, धर्म और परंपरा के हिसाब से मतदाता अपने प्रतिनिधि नहीं चुनेंगे। यहां विपक्षी को यह भी सबक मिली कि जब-जब वह झारखंड में क्रिश्चियन और मुसलिम कार्ड खेलेगा, वह चारों खाने भहरायेगा। लोहरदगा में सुदर्शन भगत और खूंटी में अर्जुन मुंडा की जीत ने इस पर मुहर लगा दी है।
अर्जन मुंडा तो मिशनरियों के चक्रव्यूह में ऐसे घिर गये थे कि वहां से निकलना आसान नहीं था। यहां क्रिश्चियन मतदाताओं ने न सिर्फ अर्जुन मुंडा के खिलाफ खुल कर मतदान किया, बल्कि उन्होंने अपना तन मन धन सब कुछ न्योछावर कर दिया था। खूंटी में अर्जुन मुंडा ने कड़िया मुंडा जैसा राजनीतिक सारथि मिलने के बाद मिशनरियों के चक्रव्यूह को ध्वस्त कर दिया। खूंटी के क्रिश्चियन बहुल इलाकों में वोटरों की गोलबंदी का असर यह हुआ कि खरसावां और तमाड़ में दूसरे धर्म और जाति के लोग खुल कर अर्जुन मुंडा के साथ आ गये और उन्होंने एक समय विजय के करीब पहुंच चुके कांग्रेस उम्मीदवार कालीचरण मुंडा के रथ को रोक दिया।
चुनाव से पहले यह लग रहा था कि तमाड़ इस बार भाजपा को गच्चा देगा, क्योंकि वहां से विकास सिंह मुंडा आजसू से अलग हो गये थे और एक तरह से उन्होंने चुनौती दे दी थी कि यहां किसी भी हाल में आजसू की दाल नहीं गलने देंगे। लेकिन ऐन चुनाव के वक्त आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने अपनी ऐसी सक्रियता दिखायी कि यहां से न सिर्फ कांग्रेस उम्मीदवार कालीचरण मुंडा का खूंटी उखड़ गया, बल्कि विकास सिंह मुंडा को भी जोर का झटका लगा। सुदेश ने वहां दिखा दिया कि बाजी पलटनी उन्हें आती है। तमाड़ और खरसावां ने दिल खोल कर अर्जुन मुंडा का साथ दिया, नहीं तो खूंटी, कोलेबिरा और सिमडेगा ने तो उन्हें पटकनी दे ही दी थी। आंकड़े तो यहां तक कहते हैं कि विकास सिंह मुंडा के घर के पासवाले बूथ पर भी अर्जुन मुंडा को बढ़त मिल गयी। इसका कारण यही था कि आजसू ने यहां अपना सर्वस्व लगा दिया था।
दुमका में शिबू सोरेन जैसे लीजेंड का चुनाव हारना इस बात का संकेत है कि अगर व्यक्ति जितना भी बड़ा हो, वह अगर जनप्रतिनिधि का दायित्व पूरी तरह से नहीं निभाता तो नया भारत का युवा मतदाता उसे अपना जनप्रतिनिधि नहीं मानेगा। दुमका में हार का एक बड़ा कारण और था। चुनाव के समय ही शिबू सोरेन यहां सक्रिय होते थे। बाकी समय वह रांची में ही रहते थे। चुनाव के कुछ दिन पहले झामुमो प्रखंड स्तर पर अपने मेठों को तैनात कर देता था और वे मेठ मतदाताओं को समझाने से लेकर, मतदान केंद्रों तक लाकर वोट दिलाने तक का दायित्व निभाते थे। मेठों के ऊपर यह भी जिम्मेदारी होती थी कि वे मतदाताओं को बिखरने नहीं देंगे। लेकिन इस बार रघुवर दास के नेतृत्व ने झामुमो की इस प्रथा को तार-तार कर दिया। दरअसल रघुवर दास ने इसकी तैयारी चार साल पहले से शुरू कर दी थी और उन्होंने अपना ज्यादा से ज्यादा समय संथाल को दिया। न सिर्फ समय दिया, बल्कि विकास योजनाओं के लिए खजाना भी खोल दिया।
इस बार के चुनाव में यह भी स्थापित हुआ कि अब मतदाता किसी की जागीर नहीं हैं। अगर मतदाताओं का विश्वास जीतना है, तो उनके बीच रहना होगा। उनकी आवाज बननी पड़ेगी। उनके सुख-दुख को अपना सुख-दुख बनाना पड़ेगा। यही कारण था कि दुमका के मतदाताओं ने शिबू सोरेन की जगह सुनील सोरेन को चुना, जिनकी राजनीतिक यात्रा झामुमो के साथ शुरू हुई थी और वे कभी दुर्गा सोरेन के नजदीकी थे। झारखंड के परिणाम ने बड़े बड़ों के कयास को हिला कर रख दिया। परिणाम आने तक अगर कोई मीडिया कर्मी यह चर्चा करता था कि इस बार भाजपा यहां दस से बारह सीटें जीतेगी, तो उसे गोदी मीडिया ठहरा दिया जाता था या फिर राजनीति के ठेकेदार उसे भाजपा का दलाल या भाजपा से पैसा खाकर रिपोर्ट देनेवाला ठहरा देते थे।
झारखंड में भाजपा की एकतरफा जीत ने न केवल महागंठबंधन को जबरदस्त झटका दिया, बल्कि जातिवादी राजनीति करनेवाले नेताओं के भविष्य पर भी सवाल खड़े कर दिये। चुनाव में नरेंद्र मोदी की अपील ने ऐसा रंग जमाया कि उसने युवाओं को वोट डालते समय उनकी जाति भूलने को विवश कर दिया। युवाओं के लिए व्यक्ति विशेष या प्रथा उत्प्रेरक नहीं बनी, बल्कि उन्होंने अपने एजेंडे में देशहित को सर्वोपरि रखा। यही नहीं, सुदूर इलाकों में गरीबों के यहां शौचालय निर्माण और गैस चूल्हा इस कदर प्रभावी रहा कि घर की महिलाओं ने इसे अपनी इज्जत से जोड़ते हुए घर के मुखिया की पसंद को भी नजरअंदाज किया और मोदी के नाम पर दिल खोल कर मत दिया।
चुनाव के दिन यह संवाददाता एक बूथ पर गया था। वहां एक सत्तर साल की बुजुर्ग आदिवासी महिला बूथ पर वोट देने पहुंची। उसने मतपत्र दे रहे अधिकारी को कहा कि उसे मोदी को वोट देना है। अधिकारी ने कहा कि जाइये मशीन है वहां वोट दे दीजिए। वह महिला गयी और लौट कर आ गयी। उसने कहा कि मशीन में तो कहीं मोदी का चेहरा दिख नहीं रहा है। अधिकारी हतप्रभ था। उसने कहा कि मशीन पर चुनाव चिह्न अंकित है। महिला ने कहा कि मोदी का चुनाव चिह्न क्या है। उस अधिकारी ने हिसकते हुए कहा कि फूल है। महिला गयी और अपना वोट देकर आयी। निकल कर बोली भी कि जोर से बटन दबा दिया। इससे समझा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी किस कदर लोगों के दिल में जगह बना चुके हैं और झारखंड में शायद विपक्ष इस लहर को नहीं पहचान पाया और वह बालाकोट एयर स्ट्राइक को ही संदेह के कठघरे में खड़ा करता रहा।
इस चुनाव परिणा ने पूरे झारखंड में कांग्रेस और महागठबंधन का एक तरह से सूपड़ा साफ कर दिया है। इसके कई कारण हैं। जहां तक कांग्रेस की बात है, तो वह कभी भी झारखंड में चुनाव को लेकर गंभीर नहीं दिखी। कई प्रत्याशियों के नाम तो इतने विलंब से तय किये गये कि प्रत्याशी भी निराश हो गये। कांग्रेस आलाकमान का भी उन प्रत्याशियों को उतना सपोर्ट नहीं मिला, जितना भाजपा प्रत्याशियों को नरेंद्र मोदी और अमित शाह का मिला। मुख्यमंत्री तो चौबीस घंटे लगे ही रहे। यही नहीं चुनाव में महागठबंधन के अन्य दलों ने भी कांग्रेस का पूरा साथ नहीं दिया। झारखंड में कांग्रेस के सात प्रत्याशी थे। रांची से सुबोधकांत सहाय, लोहरदगा से सुखदेव भगत, धनबाद से कीर्ति झा आजाद, हजारीबाग से गोपाल साहू, चतरा से मनोज यादव, पश्चिमी सिंहभूम से गीता कोड़ा और खूंटी से कालीचरण मुंडा। इसमें एकमात्र गीता कोड़ा की जीतीं। इस जीत में भी कांग्रेस की भूमिका कम, खुद गीता कोड़ा और उनके प्रति मधु कोड़ा का ज्यादा श्रेय है। मधु कोड़ा चूंकि भाजपा की राजनीतिक पाठशाला से ही राजनीति की डगर नापी है, इसलिए उन्हें पता था कि सिंहभूम में उन्हें क्या करना है। गीता कोड़ा ने सिंहभूम लोकसभा सीट से जीत दर्ज करते हुए झारखंड भाजपा प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ को हराया। इसके साथ ही जीत हासिल कर गीता कोड़ा ने पहली आदिवासी महिला सांसद बनने का गौरव भी प्राप्त किया। इस जीत के बाद गीता कोड़ा का पार्टी में कद बढ़ना तय है।
दुमका सीट पर बीजेपी प्रत्याशी सुनील सोरेन ने कमल खिला कर आखिरकार झामुमो के अभेद किला को ध्वस्त कर दिया। पूर्व सीएम और जेएमएम सुप्रीमो शिबू सोरेन यहां से चुनाव हार गये। बीजेपी के सुनील सोरेन ने उन्हें 40 हजार मतों से हराया। बता दें कि दुमका लोकसभा सीट पर जेएमएम प्रमुख शिबू सोरेन आठ बार सांसद रहे हैं। हार के बाद झारखंड में सबसे बड़े आदिवासी नेता शिबू सोरेन की राजनीतिक पारी का एक तरह से अंत हो गया है। शिबू सोरेन की हार झामुमो को ऐसा नुकसान दे गया है, जिसकी भरपाई करना मुश्किल है। वहीं, बीजेपी प्रत्याशी सुनील सोरेन ने दुमका में तीसरी बार गुरुजी को टक्कर दी और विजयश्री हासिल की। इससे पहले वह दुमका में शिबू के सामने 2009 और 2014 के चुनावी मुकाबले में आमने-सामने थे।
झारखंड में झारखंड मुक्ति मोरचा के कुल चार प्रत्याशी मैदान थे। इसमें राजमहल लोकसभा से महागठबंधन प्रत्याशी विजय हांसदा ने राजमहल सीट से जेएमएम की टिकट पर जीत दर्ज की। उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी हेमलाल मुर्मू को हराया। बाकी तीन प्रत्याशी, दुमका से शिबू सोरेन, जमशेदपुर से चंपई सोरेन और गिरिडीह से जगरनाथ महतो हार गये। जहां तक विजय हांसदा की जीत का सवाल है, उनकी जीत पर हेमंत सोरेन अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, लेकिन यह भी एक तल्ख सच्चाई है कि विजय हांसदा कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे थामस हांसदा के पुत्र हैं और उनकी कार्यशैली में वह संस्कार भी झलकता है। उनका खुद का आचरण उनकी जीत में दोबारा बहुत बड़ा कारण बना।
जनादेश का वज्रपात तो झारखंड विकास मोर्चा पर भी गिरा है, क्योंकि झाविमो के दोनों प्रमुख स्तंभ केंद्रीय अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी और प्रदीप यादव चुनाव हार गये। अब बाबूलाल मरांडी के सामने यक्ष प्रश्न है कि अब भविष्य में वे क्या रुख अख्तियार करते हैं। कारण बार-बार हार कहीं से भी न तो उनकी राजनीतिक सेहत के लिए ठीक है और न ही झाविमो के लिए। उन्हें आत्ममंथन करना चाहिए कि आखिर युवा मतदाताओं ने उन्हें क्यों नकार दियाा। आत्ममंथन तो झामुमो को भी करना पड़ेगा।
हार के कारणों की पड़ताल भी करनी होगी कि आखिर क्यों आदिवासी मतदाताओं ने उसे नकार दिया, जिन पर बेस करके उसकी राजनीति चलती है और उसमें भी उस संथाल और कोल्हा से उसका खूंटा उखड़ रहा है, जिसे वह अपना अभेद किला मानता रहा है।
झारखंड में फेल हो गया विपक्ष का क्रिश्चियन और मुसलिम कार्ड
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