राजीव
रांची। अब तक झारखंड की सात सीटों पर वोटिंग के बाद सियासी गलियारे में आकलन का दौर जारी है। ग्रामीण इलाकों में हो रही धुआंधार वोटिंग के बाद आखिर किसका बेड़ा पार होगा और कौन सियासी चक्रव्यूह में उलझ कर रह जायेगा, इसकी चर्चा आहिस्ता-आहिस्ता जोर पकड़ रही है। झारखंड में दूसरे चरण की चार सीटों खूंटी, रांची, हजारीबाग और कोडरमा में मतदान पूरा हो चुका है। जनता ने अपना फैसला सुना दिया है, लेकिन चुनाव की ग्राउंड रिपोर्ट का तजुर्बा यह कह रहा है कि रांची और खूंटी संसदीय सीट पर कई विधायक परीक्षा में फेल होते नजर आ रहे हैं। सिल्ली में झामुमो के अमित महतो, तमाड़ से विकास मुंडा, खूंटी से नीलकंठ सिंह मुंडा, कोलेबिरा से विक्शल कोनगाड़ी और तोरपा से पौलुस सुरीन की पकड़ ढीली नजर आ रही है। इसके पीछे का कारण उनका घटता जनाधार हो या फिर चुनाव को दिल से दिलचस्पी का नहीं लिया जाना। कहीं किसी के सामने पारिवारिक परेशानी हो, तो किसी का पार्टी आलाकमान से न बनना। शुरुआती ट्रेंड यही बता रहा है कि अपनों की नाव इस क्षेत्र में हिचकोले खा रही है। कहीं पंजा के क्षेत्र में कमल खिलता दिख रहा है, तो कहीं कमल के क्षेत्र में पंजा मजबूत होता दिखाई पड़ा।
अमूमन हर चुनाव में मतदाताओं का ट्रेंड स्पष्ट तौर पर पता चल जाता था, लेकिन इस बार मतदाताओं ने सबको छकाया है। जहां तक बात रांची में आदिवासी मतदाताओं की है, यह तो 23 को रिजल्ट के बाद ही पता चलेगा कि रांची में आदिवासी मतदाता को भाजपा के पक्ष में करने में बबलू मुंडा, सबलू मुंडा, आरती कुजूर, अशोक बड़ाइक, सोमा उरांव, मेधा उरांव और रामकुमार पाहन कितने कामयाब रहे, लेकिन आदिवासी मतदाताओं की जहां तक बात है, रांची और खिजरी में भाजपा के लिए सब कुछ ठीकठाक नहीं दिख रहा है। वहीं बात तोरपा की करें, तो झामुमो विधायक पौलुस सुरीन की पैंतरेबाजी महागठबंधन और खासकर कांग्रेस उम्मीदवार कालीचरण मुंडा के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। पहले तोरपा में रहते पौलुस सुरीन खूंटी में कांग्रेस के उम्मीदवार कालीचरण मुंडा के नामांकन में नहीं पहुंचे। इसके बाद चुनाव के वक्त घूमने दार्जिलिंग चले गये और वह चुनाव के ठीक एक दिन पहले लौटे।
बताते चलें कि कांग्रेस से उम्मीदवार बनाने के बाद कालीचरण मुंडा पौलुस सुरीन से मिलने गये थे। कालीचरण ने उनसे सहयोग मांगा, लेकिन जेएमएम विधायक का मूड नहीं बदला। इसी कारण कालीचरण को तोरपा में पौलुस का लाभ नहीं मिल पाया।
वहीं कोलेबिरा में विक्शल कोनगाड़ी भी उतने कारगर साबित नहीं हो पाये हैं, हालांकि वोटरों को एकजुट करने की कोशिश की गयी, लेकिन ट्रेंड बता रहा है कि उम्मीद के अनुसार कामयाबी नहीं मिल पायी। बात सिल्ली की करें तो 2014 के चुनाव में 79,747 वोट (अमित महतो) और 2018 के उपचुनाव में 77127 वोट लानेवाली उनकी पत्नी सीमा महतो का जादू भी क्षेत्र में नहीं चल पाया है। इसके पीछे का कारण चाहे जो रहा है, लेकिन यहां कांग्रेस को अपेक्षित सफलता मिलती नहीं दिख रही है।
हालांकि इसके पीछे सत्ता के गलियारे में तरह-तरह की दलीलें दी जा रही हैं, लेकिन वक्त के साथ ही सच्चाई से पर्दा उठ पायेगा। यही हाल खूंटी विधानसभा क्षेत्र का रहा है। यहां झारखंड सरकार के मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा के लिए अग्निपरीक्षा थी। लेकिन लगता है कि इस अग्निपरीक्षा में जनता ने उन पर पहले के मुकाबले कम विश्वास किया है। चर्चा है कि नीलकंठ सिंह मुंडा के प्रभाववाले क्षेत्र में कमल मजबूती के साथ नहीं खिल पाया है।
साथ ही ईचागढ़ में भाजपा विधायक साधुचरण महतो भाजपा के लिए बहुत ही कारगर साबित होते नजर नहीं आये हैं। यहां हाथ को बहुत बल मिला है। इसी कारण कांग्रेस रांची सीट पर मुकाबले की बात कह रही है। वहीं भाजपा सिल्ली में सुदेश महतो की बदौलत बढ़त की उम्मीद बांधे हुए है। भाजपा को थोड़ी परेशानी का सामना कांके विधायक जीतू चरण राम के ग्रामीण क्षेत्रों में करना पड़ा है। इस क्षेत्र में जीतू का जादू नहीं चला है।
वैसे शहरी क्षेत्र में मोदी के नाम का जादू मतदाताओं के सिर चढ़कर जरूर बोला है। रांची और खूंटी लोकसभा की ये परिस्थितियां हैं, जिसने प्रत्याशियों की धड़कनें बढ़ा दी हैं।
सियासत के गलियारे में यहां तक कहा जा रहा है कि झारखंड में ऐसा साइलेंट चुनाव पहले कभी नहीं देखा गया। बच्चों की जुबां पर चढ़कर हवाओं की सैर करते नारे गायब थे। चौराहों पर चटखारें लेकर राजनीतिक दलों और नेताओं की हार-जीत तय करने वाला मजमा तो है, लेकिन स्पष्ट आकलन नहीं कर पा रहा है। नेताओं और राजनीतिक दलों की कमी-बेसी का आकलन दूर बैठे ही कर रहे आम मतदाताओं ने मतदान में गजब की चुप्पी साधे रखी। इस कारण यह स्पष्ट हो गया है कि इस बार का मतदान कई चौंकाने वाले खुलासे करनेवाला है।
ये राजनीतिक दलों के लिए ही नहीं, बल्कि उन चुनाव विश्लेषकों के लिए भी सबक होगा, जो अब तक मानते रहे हैं कि किसी लहर या सत्ता विरोधी लहर में वोट प्रतिशत बढ़ता है। ऐसा पहली बार हुआ है जब मतदाता के दिल में क्या है, इसकी थाह कोई राजनीतिक दल नहीं लगा पाया है। एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि देश में जब इमरजेंसी लगी थी, उसके बाद भी वोटर खुलकर सड़कों पर निकल कर अपनी राय जाहिर कर रहा था।
कस्बों में चौराहे से लेकर पान की गुमटियों तक घूमकर पता चल जाता था कि कांग्रेस गयी, लेकिन इस बार नजारा ठीक उलट है। वोट देने के बाद भी जो आम वोटर है, अपनी चुप्पी नहीं तोड़ रहा है। चुनावी विश्वलेषक भी स्पष्ट आकलन नहीं कर पा रहे हैं। वैसे, विश्लेषक मानते हैं कि अर्जुन मुंडा खूंटी की भरपाई खरसावां से कर सकते हैं। कारण 2014 में हार के बाद से लगातार वह जनता के बीच थे।