राजीव
रांची। झारखंड की राजनीति में सड़क से लेकर सदन तक संग्राम के लिए मशहूर प्रदीप यादव को दोहरा झटका लगा है। अपनी ही पार्टी झाविमो की नेत्री रिंकी झा के आरोपों से दो-चार हो रहे प्रदीप यादव एक ओर तो चुनाव संग्राम में परास्त हो गये हैं, उन्हें उस पोड़ैयाहाट में भी पटकनी मिली, जहां के वह विधायक हैं और अपने को शेर कहते थे। वहीं दूसरी ओर इस प्रकरण पर झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी का इतने दिनों बाद मोहभंग हो गया है। बाबूलाल मरांडी ने रिंकी झा के आरोपों के मद्देनजर तीन दिन में प्रदीप यादव को महासचिव पद छोड़ने को कहा था। लेकिन उन्होंने उस आरोप को बड़ी चतुराई से गोल कर दिया और लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेते हुए पद छोड़ने की बात कही। बाबूलाल के पत्र के आलोक में प्रदीप यादव का यह जवाब लोगों के गले नहीं उतर रहा। वैसे, प्रदीप यादव और विवाद का चोली-दामन का साथ रहा है। उन पर यहां तक आरोप लगा कि झारखंड में झाविमो का कुनबा सिमटने या बोरिया बिस्तर बंधवाने में प्रदीप यादव की बहुत बड़ी भूमिका रही। ढुल्लू महतो, प्रवीण सिंह सरीखे आधा दर्जन लोगों ने प्रदीप यादव की वजह से ही पार्टी छोड़ी थी। वह खुद को इसे लेकर सीधे तौर पर जिम्मेवार मानें या न मानें, लेकिन पार्टी छोड़नेवाले बड़े नेताओं ने प्रदीप यादव पर ही तानाशाही का आरोप लगा कर झाविमो से किनारा किया। प्रदीप यादव झारखंड की सियासत में ऐसा नाम है, जो हमेशा विवादों में रहा है। पहली बार जब प्रदीप यादव शिक्षा मंत्री बने थे, उस समय भी वह विवादों के घेरे में रहे। तब वह भाजपा में थे। पैनम मामले में भी वह विवाद में आये। पार्टी नेताओं पर जबरन अपना आदेश थोपने को लेकर भी वह विवादित रहे। इस बार ऐन चुनाव के वक्त उन पर पार्टी की ही महिला नेत्री के साथ गलत आचरण करने का गंभीर आरोप है। इसी कारण पार्टी ने किनारा किया है। वैसे बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर जब उक्त नेत्री ने घटना के दूसरे ही दिन बाबूलाल को फोन पर सारी सूचनाएं दे दी थी, तो फिर उस वक्त बाबूलाल ने यह कदम क्यों नहीं उठाया।
प्रदीप यादव पर समय-समय पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह तानाशाह की तरह पार्टी को जैसा चाहते हैं, वैसा चलाते हैं। सिर्फ बाबूलाल से अपनी बातों पर मुहर लगवा लेते हैं। झाविमो छोड़कर दूसरे दलों में शिफ्ट होनेवाले नेताओं ने कई बार ऐसा आरोप लगाया। बावजूद इसके बाबूलाल मरांडी का विश्वास प्रदीप यादव पर कभी कम नहीं हुआ। रवींद्र राय, डॉ अजय कुमार, दीपक प्रकाश, गौतम सागर राणा, दुलाल भुइयां सरीखे नेताओं ने झाविमो को अलविदा कह दिया। पार्टी छोड़ने वाले नेताओं का कहना था कि झाविमो में प्रदीप यादव की मनमानी के कारण वे पार्टी छोड़ रहे हैं। चर्चा यह भी है कि प्रदीप यादव पर कई बार आरोप लगे, लेकिन बाबूलाल मरांडी ने उनके खिलाफ कभी एक्शन नहीं लिया। बाबूलाल मरांडी एक अनुभवी राजनेता हैं। अगर उन्होंने इस बार प्रदीप यादव को कठघरे में खड़ा किया है, तो साफ है कि प्रदीप यादव की मनमानी का घड़ा भर गया होगा।
2014 के चुनाव में झाविमो को लगा जोरदार झटका
झाविमो में 2014 के विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ संकट चुनाव बाद तक नहीं थमा। चुनाव से पूर्व सात विधायकों ने एक साथ पार्टी छोड़ बाबूलाल को जोरदार झटका दिया था। इसका असर चुनाव में भी देखने को मिला और जेवीएम में विधायकों की संख्या 11 से घट कर आठ हो गयी। जेवीएम इस झटके से अभी उबर भी नहीं पाया था कि पार्टी के वरीय नेता और बाबूलाल मरांडी के प्रमुख सिपहसालार माने जानेवाले पार्टी के महासचिव प्रवीण सिंह ने पार्टी की सक्रिय राजनीति से अपने को किनारा कर लिया। वैसे, झाविमो के इतिहास के पन्ने को पलटें, तो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद बाबूलाल मरांडी ने 2006 में झाविमो का गठन किया। पिछले 12-13 वर्षों के कालखंड में पार्टी ने कई उतार-चढ़ाव देखे। जब बाबूलाल ने भाजपा से अलग होकर नयी पार्टी बनायी थी, उन्हें कई दिग्गजों का साथ मिला था।
यह उनकी मेहनत और पार्टी की सांगठनिक मजबूती ही थी कि नयी पार्टी होते हुए 2009 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने 11 सीटें झटक लीं। और तो और 2014 की मोदी लहर में भी झाविमो के टिकट से जीत कर आठ विधायक आये, परंतु उनके छह विधायकों ने दल बदल लिया। उनमें से दो आज मंत्री हैं, वहीं तीन विभिन्न बोर्ड-निगमों के अध्यक्ष। इस उलटफेर में भी प्रदीप बड़े कारण माने जाते हैं। पार्टी छोड़नेवाले नेताओं ने प्रदीप यादव पर ही ठीकरा फोड़ा था। इसमें सच्चाई भी है। 2014 के चुनाव के बाद प्रदीप यादव खुद भाजपा के एक रणनीतिकार के संपर्क में थे। पार्टी के विधायकों को भाजपा में शामिल कराने का ताना-बाना उसी समय बुना गया था। ऐन वक्त पर शेखी बघारने के कारण प्रदीप यादव की उस नेता से खटपट हो गयी और उन्होंने जेवीएम के दूसरे विधायकों से संपर्क स्थापित कर लिया। परिणाम सबके सामने था। इसके अलावा पैनम मामले में भी प्रदीप यादव की बदनामी हुई। उस समय भी कंपनी के अधिकारियों ने यह आरोप लगाया था कि प्रदीप यादव मनमानी कर रहे हैं। उसमें मजदूरों का हित कम, अपना हित ज्यादा था। इसके अलावा इतिहास के पन्नों में प्रदीप यादव और विवाद के कई किस्से महशूर हैं, कुछ तो सत्ता के गलियारों तक चर्चा में ही सिमट कर रह गये, कुछ चर्चा में आ पाये।
बड़ा सवाल-21 अप्रैल को ही पता था…इस्तीफा मांगने में देर क्यों
बाबूलाल मरांडी के पत्र के मुताबिक उन्हें मामले की जानकारी 21 अप्रैल को ही मिल गयी थी। ऐसे में प्रदीप यादव से इस्तीफा मांगने में देर पर सवाल उठने लगे हैं। माना जा रहा है कि चुनाव में हार के बाद मामले के तूल पकड़ने की आशंका को देख छवि बचाने की कवायद में यह कदम उठाया गया है। प्रदीप यादव ने मंगलवार देर रात बाबूलाल मरांडी को भेजे गये इस्तीफा में लोकसभा चुनाव में अपेक्षित वोट नहीं मिलने को कारण बताया है। इसमें कहीं भी उन पर लगे दुष्कर्म के प्रयास के आरोपों का जिक्र नहीं है।
अब झाविमो के अस्तित्व पर भी संकट के बादल
इस लोकसभा चुनाव में झारखंड समेत देशभर के हिंदी भाषी राज्यों में विपक्षी दल को करारी पराजय का सामना करना पड़ा है, लेकिन झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी और संगठन के दूसरे सबसे कद्दावर नेता एवं पार्टी के केंद्रीय प्रधान महासचिव प्रदीप यादव की हार से झाविमो के अस्तित्व पर ही संकट मंडराने लगा है। इस हार के बाद झारखंड विकास मोर्चा आगामी नवंबर-दिसंबर महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव में यूपीए में शामिल घटक दलों के बीच टिकट बंटवारे में कितना दबाव बना पायेगा, यह देखना बाकी है। झारखंड विकास मोर्चा अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी को वर्ष 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मिली पराजय के बाद तीसरी बार हार का सामना करना पड़ा है। हालांकि बाबूलाल मरांडी कोडरमा में भाजपा टिकट और फिर एक बार निर्दलीय चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बना चुके हैं, लेकिन इस बार उन्हें कोडरमा में साढ़े चार लाख से अधिक मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा। बाबूलाल मरांडी और प्रदीप यादव की इस हार के बाद अब संगठन को खड़ा रखने की चुनौती पार्टी नेतृत्व के समक्ष होगी। वह भी तब, जब पार्टी नेत्री रिंकी झा प्रकरण पर दोनों दिग्गजों के बीच में लेटर वार शुरू हो गया हो। अब देखना दिलचस्प होगा कि यह वार पार्टी को कहां लेकर जाता है। कारण आनेवाले पांच महीने के बाद विधानसभा का चुनाव भी है। इसी समय में पार्टी को फिर से पुनर्जीवित भी करना है। हार से निराशा में डूबे कार्यकर्ताओं में जोश भरना है। महागठबंधन होने की स्थिति में अपना स्थान भी मुकम्मल करना है। उसके पहले अभी बहुत सारे प्लेटफार्म पर प्रदीप यादव के साथ-साथ बाबूलाल को जूझना होगा। विधानसभा सत्र के दरम्यान प्रदीप यादव विधानसभा में सत्ता पक्ष के विधायकों के तीखे तीर से नहंीं बच पायेंगे। साथ-साथ बाबूलाल को भी कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा। अब यह बाबूलाल पर डिपेंड करता है कि वह प्रदीप यादव को विधायक दल के नेता पद से हटाते हैं या फिर सत्ता पक्ष के वाण को झेलते हैं। लेकिन इतना जरूर है कि रिंकी झा प्रकरण ने बाबूलाल और झाविमो को जनता की नजरों में कई कदम पीछे धकेल दिया है। हालांकि प्रदीप यादव के आचरण से बाबूलाल को कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन लोग तो यही मान कर चलते हैं कि उन पर बाबूलाल का वरदहस्त रहा है। उसी वरदहस्त के कारण वह पार्टी में मनमानी करते रहे हैं।