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    Home»Breaking News»कोरोना काल और झारखंड की पॉलिटिक्स
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    कोरोना काल और झारखंड की पॉलिटिक्स

    azad sipahiBy azad sipahiMay 31, 2020No Comments6 Mins Read
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    वैश्विक महामारी कोरोना के कारण देशव्यापी लॉकडाउन अब दो महीने से अधिक पुराना हो गया है और अब अनलॉक-1 का स्वरूप सामने आ चुका है। बीते दो महीनों में कई तरह की चुनौतियां सरकार के सामने खड़ी हुई हैं। हर राज्य की और केंद्र सरकार की अपनी समस्याएं हैं, चुनौतियां हैं। इनका सामना सरकारें अपने हिसाब से कर रही हैं। कई राज्यों में विपक्षी दल संकट के इस काल में रचनात्मक भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन झारखंड में स्थिति थोड़ी अलग है। यहां के राजनीतिक दल संकट के इस काल में भी सिर्फ और सिर्फ सरकार की कमियां गिनाने में लगे हैं। मार्च में जब कोरोना का संकट शुरू हुआ था, तब से लेकर आज तक राजनीति को परे रख कर सकारात्मक भूमिका के बदले राजनीतिक दल आपसी बयानबाजी में उलझते जा रहे हैं। चाहे प्रवासी श्रमिकों के हित में लिया जानेवाला फैसला हो या फिर आर्थिक गतिविधियों के लिए उठाया जानेवाला कदम, सरकार के हर कदम की आलोचना और उसमें मीन-मेख निकालना झारखंड के विपक्ष की स्थापित परिपाटी हो गयी लगती है। यह हालत तब है, जब मुख्यमंत्री की तरफ से सबसे पहले सर्वदलीय बैठक कर सभी से सहयोग का आग्रह किया गया था। कोरोना के खिलाफ लड़ाई का यह एक कमजोर और निराशाजनक पहलू है। झारखंड की सवा तीन करोड़ जनता सभी राजनीतिक दलों को परख रही है और यह बात सभी को अभी से समझ लेनी चाहिए। यदि राजनीतिक दलों का यह रवैया नहीं बदला, तो यहां के लोगों को उन्हें खारिज करने में भी समय नहीं लगेगा। कोरोना संकट के इस दौर में झारखंड में चल रही राजनीतिक दांव-पेंच पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    सरकार को चाहिए सभी का साथ, पर मिल रहा कुछ और

    राजनीति के आदिगुरु कहे जानेवाले चाणक्य ने कहा था कि राजनीति अवसरवाद का खेल नहीं, बल्कि समय का पहिया है। इसलिए राजनीति अपनी गति खुद तय करती है। पिछले दो महीने से भी अधिक समय से लॉकडाउन में चल रहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के छोटे से राज्य झारखंड में चाणक्य के इस कथन को शायद भुला दिया गया है। इसलिए यहां एकजुट होकर वैश्विक महामारी कोरोना से लड़ने की बजाय अवसरवाद की राजनीति का बाजार इतना गरम है, जबकि होना यह चाहिए था कि तमाम राजनीतिक संगठन एक होकर इस महामारी से लड़ते और परिस्थितियां सामान्य होने पर, यानी समय का पहिया घूमने पर राजनीतिक दांव-पेंच में उतरते।

    देश में जब कोरोना का संकट शुरू हुआ था, करीब एक पखवाड़े तक झारखंड इससे अछूता रहा था, जबकि आज पांच सौ से अधिक संक्रमित मरीज इस प्रदेश में मिल चुके हैं। कोरोना संकट शुरू होने के समय विधानसभा का बजट सत्र चल रहा था और उसे इसी महामारी के कारण समय से पहले स्थगित कर दिया गया। झारखंड पहला ऐसा राज्य बना, जहां संक्रमण का एक भी मामला नहीं होने के बावजूद आंशिक लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस महामारी के आसन्न खतरे की आहट पहले ही सुन ली और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को रात आठ बजे चार घंटे बाद, यानी 25 मार्च की रात 12 बजे से देश में लॉकडाउन का एलान किया, झारखंड इस नयी स्थिति का सामना करने के लिए तैयार हो चुका था। लॉकडाउन के पहले पखवाड़े में राज्य सरकार ने अपनी पूरी ताकत उन जरूरतमंदों और दिहाड़ी मजदूरों को राहत पहुंचाने में झोंक दी, जो लॉकडाउन के कारण पेट भरने की समस्या से जूझ रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य का कोई भी व्यक्ति लॉकडाउन के दौरान भूखा नहीं रहा। भोजन या राशन और जरूरत के दूसरे सामान उस तक पहुंचने लगे। 10 अप्रैल को मुख्यमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलायी और सभी राजनीतिक दलों से संकट के इस दौर में मदद की अपील की। यह एक ऐसा आयोजन था, जिसके फैसले को यदि ईमानदारी से राजनीतिक दल मानते, तो स्थिति दूसरी होती। इस बैठक के महज एक सप्ताह बाद 17 अप्रैल को विपक्ष की राजनीति शुरू हो गयी। चार विपक्षी विधायक प्रवासी मजदूरों की अनदेखी का आरोप लगा कर उपवास पर बैठ गये। मामला यहीं नहीं रुका। पांच दिन बाद पूरे राज्य में भाजपा के नेताओं ने एक दिन का उपवास रखा। उनका यह विरोध प्रदर्शन जनता को मंजूर नहीं हुआ और इसे महज राजनीतिक स्टंट करार दिया गया।

    लेकिन विपक्ष ने इससे कोई सीख नहीं ली। सरकार के साथ उसके टकराव और मुख्यमंत्री के हर कदम में मीन-मेख निकालने का सिलसिला जारी रहा। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन झारखंड लौटनेवाले प्रवासी श्रमिकों के कल्याण के लिए योजनाएं बनाते रहे। झारखंड को पलायन के अभिशाप से मुक्त करने और प्रवासी श्रमिकों को घर में ही काम देने के लिए उन्होंने रणनीति बनानी शुरू की। विपक्ष को इसमें भी खोट नजर आने लगा और भाजपा ने संकट के इस काल में नेता प्रतिपक्ष की मान्यता दिये जाने की मांग उठा दी। सरकार के दूसरे कामों में खोट निकाले जाने लगे, जबकि उस समय जरूरत थी एकजुटता की और झारखंड के हित में काम करने की। जब मुख्यमंत्री की पहल पर एक मई को पहली बार श्रमिक स्पेशल ट्रेन झारखंड आयी, तब भी विपक्ष ने इसे सस्ती लोकप्रियता पाने का हथकंडा बता दिया। मुख्यमंत्री ने जब विपक्ष के नेताओं से अपील की कि वे झारखंड का बकाया देने के लिए केंद्र पर दबाव बनायें, तो सभी पीछे हट गये। किसी एक सांसद या मंत्री ने दिल्ली में झारखंड के हित में आवाज नहीं उठायी। अब जब पहली बार प्रवासी मजदूरों को लेकर विमान यहां उतरा, तब भी विपक्ष के नेताओं ने हकीकत जाने बिना मुख्यमंत्री को घेरने का प्रयास किया। विपक्ष की इस विघ्नसंतोषी भूमिका का संदेश आम जनता में अच्छा नहीं गया है।

    अमेरिका के राजनीतिक टीकाकार जॉन क्राइस्टवुड ने कहा है कि राजनीतिक दल समझते हैं कि लोगों की स्मरण शक्ति कमजोर होती है और वे कोई भी बात पांच साल तक याद नहीं रखते हैं, लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। जब लोगों के सामने चुनौतियां आती हैं, तो उन्हें उस दौर का हर चेहरा हमेशा याद रहता है। उनके इस कथन को झारखंड के राजनीतिक दलों को याद रखना चाहिए, अन्यथा राज्य की सवा तीन करोड़ जनता उन्हें देख रही है और जब उसका वक्त आयेगा, वह संकट के इस दौर में उनकी भूमिका को जरूर याद करेगी। और तब हाथ मलने के अलावा उनके सामने कोई रास्ता नहीं बचेगा।

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