कोरोना के खिलाफ जंग और पौने दो महीने के लॉकडाउन के दौरान कई बातें हुईं, बहसें हुईं, आरोप-प्रत्यारोप भी खूब लगे और काम भी हुए। लेकिन इस कोलाहल के बीच जमाने के सामने दर्जनों ऐसी तस्वीरें आयीं, जिन्हें देख कर मन कचोटने लगा और भीतर से कहीं हूक सी उठी, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं बदल रहा। ये तस्वीरें हैं देश के विभिन्न हिस्सों से घर लौट रहे प्रवासियों के बच्चों की। कोई अपनी मां के कंधे पर ऊंघता नजर आ रहा, तो कोई भूख से बिलबिलाता दिख रहा। फूल से बच्चे चिलचिलाती धूप और संक्रमण के खतरों से भरे माहौल में अपने मां-बाप के दुख-दर्द के साक्षी बनते दिख रहे। कोई बच्चा चलते-चलते सूटकेस पर सो रहा, तो कोई बच्चा अपने पिता की मदद के लिए ठेला खींचता दिख रहा। इतना ही नहीं, कइयों ने तो ऐसे हैं, जिन्होंने जन्म भी सड़क किनारे ही लिया। लेकिन इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि इन नौनिहालों की मर्मस्पर्शी कहानियों और तस्वीरों ने न सरकार को हिला सकीं, न प्रशासन को और न इस समाज को। ये नौनिहाल अब सवाल करने लगे हैं कि आखिर उनका कसूर क्या है, जो उन्हें इतनी कठोर सजा मिल रही है। ये नौनिहाल न धर्म जानते हैं और न राजनीति, इन्हें न दूरी का आभास है और न धूप-छांव का। कोरोना के बारे में तो खैर इन्हें किसी ने बताया भी नहीं है। लेकिन इनकी कहानियां और इनकी तस्वीरें 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश के गाल पर एक थप्पड़ है। ये नौनिहाल कल जब बड़े और समझदार होंगे, तब शायद इन्हें आज का दौर याद नहीं रहेगा, लेकिन कल्पना कीजिये कि यदि किसी ने उस वक्त यह सवाल देश से, प्रशासन से और समाज से कर लिया, तो उन्हें जवाब देने की हिम्मत किसमें बची होगी। ये नौनिहाल हमारे भविष्य हैं और हम इनके भरोसे ही विश्वगुरु बनने का संकल्प ले रहे हैं, लेकिन इनकी सुननेवाला कोई नहीं है। इन नौनिहालों के सवालों को उठाती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

कोरोना से जंग लड़ रहे हिंदुस्तान के 130 करोड़ लोग कई तरह की मुश्किलों से जूझ रहे हैं और अपने-अपने तरीके से इस जंग को जीतने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार, प्रशासन और समाज भी इस लड़ाई में अपना योगदान दे रहा है। लेकिन इस लड़ाई में एक ऐसा तबका पूरी तरह भुला दिया गया है, जो न बोल सकता है और न विरोध कर सकता है। इस तबके के पास केवल प्यार और मासूमियत है, अपनी हरकतों से बड़े से बड़े दुख-दर्द को कुछ देर के लिए भुला देने की ताकत है। यह तबका है छोटे बच्चों का।
25 मार्च से जारी देशव्यापी लॉकडाउन के तीन दौर को देश झेल चुका है।आज से चौथा दौर शुरू हो रहा है। इस दौरान सबसे अधिक चर्चा यदि किसी की हुई है, तो वह है प्रवासी मजदूरों की। लेकिन किसी ने इन प्रवासी मजदूरों के साथ घर लौट रहे बच्चों के बारे में कुछ नहीं सोचा है। कहा जाता है कि जो समाज अपने भविष्य की चिंता नहीं करता, वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता है। आज कोरोना संकट के इस दौर में हमने अपने भविष्य को शायद पूरी तरह भुला दिया है। तभी तो एक शिशु अपनी मां की कोख से खुले आसमान के नीचे सड़क के किनारे जन्म लेने लगा है, एक मासूम जब चलते-चलते थक जाता है, तो उसकी मां उसे सूटकेस पर सुला देती है और उसे खींचती हुई दिखती है, एक मासूम अपने पिता के कंधे पर आशा भरी निगाहों से लोगों को देख रहा होता है और एक मजबूर पिता अपनी फूल सी बच्चियों को बहंगी में बिठा कर घर लौटता दिखता है, तो एक अबोध बच्चा अपने मां-बाप के हाथों के बीच लटकता हुआ ट्रक पर फेंके जाते हुए दिखाई देता है।
इन मासूमों का यह दर्द दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक है। इन बच्चों के बारे में किसी सरकार ने, किसी समाज ने और किसी व्यवस्था ने अब तक कुछ नहीं किया है। इनके दुख-दर्द पर न तो सुप्रीम कोर्ट की नजरें इनायत हुई हैं और न ही किसी मानवाधिकार संगठन की। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एकाध मामले का संज्ञान जरूर लिया है, लेकिन इसका कोई सकारात्मक परिणाम शायद ही देखने को मिलेगा।
आखिर इन मासूमों का कसूर क्या है, जो इन्हें इतने दर्द में छोड़ दिया गया है। यकीन मानिये, हम कोरोना के खिलाफ जंग भले ही जीत जायें, इन मासूमों का दर्द हमें कई पीढ़ियों तक दुख देता रहेगा। यह हम कैसा समाज बना रहे हैं, जहां हमारे बच्चे ही दर्द सहने को मजबूर हो रहे हैं। प्रवासी मजदूरों के इन अबोध बच्चों की तकलीफों के बारे में किसी को कोई चिंता क्यों नहीं हो रही है। तमाम प्रयास और अभियान तब तक बेकार ही रह जायेंगे, जब तक हमारे देश का एक भी बच्चा इस तरह की तकलीफ झेलने के लिए विवश होगा।
अब भी वक्त है संभलने का और संवेदनशील बनने का। अब यह संकल्प लेने का वक्त आ गया है कि हम यदि कहीं किसी भी बच्चे को तकलीफ में देखेंगे, तो खुद की तकलीफ से पहले उसकी मदद करेंगे। बच्चों को न धर्म से मतलब होता है और न राजनीति से। वे अपने-पराये में भी कोई भेद नहीं करते। लेकिन जीवन की शुरुआत में ही यदि उन्हें इस तरह के दर्द झेलने के लिए अकेला छोड़ दिया जाये, तो फिर विश्वगुरु बनने की हमारी लालसा और हमारा प्रयास बेकार हो जायेगा। हमें यह समझना होगा कि ये बच्चे हमारा भविष्य हैं और इनकी बदौलत ही हम भारत को दुनिया के शीर्ष पर ले जा सकते हैं। इसलिए हमें अपने बगीचे के इन खूबसूरत फूलों को कुम्हलाने नहीं देना चाहिए। आज यह संकल्प लेने का वक्त है कि कोरोना के खिलाफ हम पूरी ताकत से जंग लड़ेंगे और इसके साथ अपने बगीचे इन फूलों की रक्षा भी करेंगे। कोई भी बच्चा, चाहे वह किसी का हो, हमारे देश में तकलीफ में नहीं रहेगा और न ही उसे कोई पीड़ा हम झेलने देंगे। हम मुसीबतों से घिरे हर बच्चे की मदद के लिए किसी भी सीमा तक जायेंगे, आज सभी को यह प्रतिज्ञा करने की जरूरत है। यदि हम इस संकल्प पर अड़े रहे, तो यकीनन भारत को विश्वगुरु बनने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती।

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