पश्चिम बंगाल की जनता ने अपना फैसला सुना दिया है। उसने अपनी बेटी ममता की पार्टी को सत्ता की बागडोर एक बार फिर सौंप दी है और भाजपा के बंगाल फतह के सपने को चकनाचूर कर दिया है। ममता बनर्जी ने अपने इस अभेद्य गढ़ में ‘खेला’ किया और जीत की धमाकेदार हैट्रिक लगा ली। हालांकि वह खुद नंदीग्राम से चुनाव हार गयीं, लेकिन इससे उनके राजनीतिक कैरियर पर कोई आंच नहीं आयेगी। पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम ने भाजपा की बंगाल फतह की रणनीति की कई खामियों को उजागर करने के साथ ममता बनर्जी को देश स्तर पर भाजपा विरोध का सबसे बड़ा चेहरा बना कर उभारा है। इस चुनाव में भाजपा का दो सौ पार का नारा उलटा पड़ गया और वह सौ का अंक भी नहीं जुटा पायी, जबकि ममता की तृणमूल कांग्रेस ने दो सौ पार के अंक पर कब्जा कर लिया। इस चुनाव को जीतने के लिए भाजपा ने अपना सब कुछ झोंक दिया था। उसके तमाम बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और देश के अन्य हिस्सा से करीब चार दर्जन से अधिक सांसद तक पिछले दो महीने से पूरे राज्य का धुआंधार दौरा कर रहे थे। यही नहीं, भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को चुनाव से पहले छिन्न भिन्न कर दिया था और उसके दो दर्जन से अधिक बड़े नेताओं को अपने पाले में कर लिया था। भाजपा ने मिठुन चक्रवर्ती को अपने पाले में कर यह संदेश देने की कोशिश की थी कि उसने बंगाल में ममता बनर्जी का विकल्प उतार दिया है। यह पहला मौका था, जब प्रधानमंत्री एक राज्य के चुनाव में इतने सक्रिय रहे हों। भाजपा का हर नेता वहां एक ही नारा लगा रहा था: दो मई, दीदी गयी। ममता की इस धमाकेदार जीत ने उनका कद राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ऊंचा कर दिया है, क्योंकि अब तक के तमाम प्रदेश और देश स्तरीय नेता या तो भाजपा की आक्रामक राजनीति के आगे घुटने टेक चुके हैं या फिर सियासत के हाशिये पर आ गये हैं। इस लिहाज से बंगाल का यह चुनाव परिणाम देश की सियासत को नया आयाम देगा और विपक्ष को एकजुट होने का बड़ा अवसर भी प्रदान करेगा। अभी यह साफ नहीं है कि ममता बनर्जी इस धमाकेदार जीत के बाद बंगाल को छोड़ राष्ट्रीय राजनीति में उतरेंगी, लेकिन इस चुनाव परिणाम ने उन्हें ऐसा करने पर गंभीरता से विचार करने का संदेश जरूर दिया है। बंगाल चुनाव का एक संदेश यह भी है कि जो बिना डरे, बिना विचलित हुए आक्रामकता के साथ विरोधी के हर सवाल का जवाब देगा, वह निश्चित रूप से चुनावी वैतरणी को पार करेगा। एक तरफ विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा और दूसरी तरफ एक पैर से चोटिल ममता पर विरोधियों ने जो भी दांव आजमाया, वह उलटा पड़ गया। दीदी ओ दीदी कहना भी महंगा पड़ा। बंगाल की महिलाओं का स्वाभिमान जाग गया और मुसलिम मतदाताओं ने भाजपा के हिंदूवाद के नारे के खिलाफ चट्टानी एकता के साथ ममता का साथ दिया। बंगाल के चुनाव परिणाम का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के कोलकाता ब्यूरो चीफ हृदय नारायण सिंह की विशेष रिपोर्ट।

देश की सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता के दक्षिणी हिस्से में एक इलाका है भवानीपुर और उससे सटा हुआ है कालीघाट। देश के शक्तिपीठों में से एक। दो मई को उमस भरी गर्मी के बावजूद कालीघाट में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी के पैतृक आवास के बाहर समर्थकों का हुजूम उमड़ा था। भीड़ नारे लगा रही थी, ‘खेला होबे-खेला होबे’ और ‘खेला होलो-खेला होलो’, यानी खेल होगा और खेल हो गया। बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत की धमाकेदार हैट्रिक लगानेवाली ‘दीदी’ ममता बनर्जी का कद इस नारेबाजी में हर पल बढ़ता दिखाई दे रहा था। मुख्यधारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में केवल दीदी की ही चर्चा थी और उनके समर्थक इसी बात को लेकर बेहद उत्साहित थे।
बंगाल की जनता ने राज्य की सत्ता की बागडोर दीदी के हाथों में सौंप कर उन्हें वाकई देश भर में भाजपा विरोध का सबसे बड़ा चेहरा बना दिया है। पिछले तीन महीने से कोरोना संकट के दौरान आठ चरणों में हुए बेहद थकानेवाले चुनाव और भाजपा की आक्रामक प्रचार शैली का उन्होंने अकेले जिस तरह मुकाबला किया, उसकी तारीफ आज चारों तरफ हो रही है। देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आधुनिक भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जानेवाले अमित शाह के साथ भाजपा के तमाम नेताओं को बंगाल की इस शेरनी ने जिस राजनीतिक चातुर्य से मुकाबला किया और उन्हें पराजित किया, इसका संदेश साफ है। बंगाल की जनता ने संदेश दे दिया है कि वह आज भी भावनात्मक राजनीति के पीछे नहीं भागती, बल्कि हकीकत की जमीन पर पैर टिका कर फैसला सुनाती है।
बंगाल में लगातार तीसरी जीत ने ममता बनर्जी का कद तो बढ़ाया ही है, उनकी जिम्मेदारी भी कई गुना बढ़ा दी है। पिछले सात साल से देश के सियासी परिदृश्य से एक-एक कर नेपथ्य में गये विपक्ष के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं को एकजुट करने और फिर 2024 की तैयारी की महती जिम्मेवारी अब ममता बनर्जी के कंधों पर आ गयी है। तृणमूल सुप्रीमो ने साबित कर दिखाया है कि आज भी बंगाल अपनी संस्कृति और परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रतिबद्ध है और यहां के लोगों की राजनीतिक समझदारी देश के दूसरे हिस्सों से कहीं अधिक पैनी है।
इस चुनाव परिणाम ने ममता बनर्जी को बंगाल की सीमाओं से निकलने का संदेश भी दिया है। भले ही वह खुद को ‘मां-माटी-मानुष’ की चहारदीवारी में बंद रखने का फैसला करें, लेकिन आनेवाले दिनों में उन्हें देश के सियासी परिदृश्य में आना ही होगा। यह समय की मांग तो है ही, साथ ही बंगाल की जनता का संदेश भी। अभी यह तय नहीं है कि वह इस स्वनिर्मित चहारदीवारी से बाहर निकलेंगी या नहीं, लेकिन विपक्ष के बाकी नेताओं को अब उनके पास आना ही होगा, क्योंकि ममता ने बता दिया है कि भाजपा की आक्रामक शैली का जवाब कैसे दिया जा सकता है।
बंगाल में ममता की जीत का जो सबसे बड़ा कारण यह रहा है कि उन्होंने भाजपा की रणनीति को उसकी ही शैली में जवाब दिया। चाहे जुबानी जंग हो या प्रशासनिक मोर्चे पर संघ-राज्य के रिश्ते, ममता ने हमेशा बंगाल के हितों की बात की। उनका यही स्टैंड जनता ने सिर-आंखों पर बैठाया है। इसके साथ ही भाजपा के लिए बंगाल ने एक बड़ी सीख दी है। उसे अब अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करने की जरूरत है। ‘जय श्रीराम’ जैसे भावनात्मक मुद्दे अब बेअसर होते दिख रहे हैं। संदेश यह भी है कि चुनाव जीतने के लिए सचमुच में हर हमेशा जनता के साथ रहना होगा, भगवान राम के सहारे ही शिखर पर नहीं पहुंचा जा सकता है। इसके स्थान पर अब हकीकत की राजनीति की शैली उसे अपनानी होगी। यह न केवल भाजपा के लिए, बल्कि उसके शीर्षस्थ नेताओं के लिए आत्ममंथन का समय है। देश के सियासी इतिहास में बंगाल विधानसभा चुनाव को सबसे प्रतिष्ठित बनाने का खामियाजा भाजपा को देर-सबेर चुकाना होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। बंगाल की पराजय भाजपा के लिए असम और पुडुचेरी में जीत तथा केरल में ऐतिहासिक जीत हासिल करने से अधिक महंगी है और इसके कारणों पर उसे गंभीरता से विचार करना ही होगा।
बंगाल के चुनाव परिणाम ने देश की सियासत को नया आयाम दिया है। इसने साबित कर दिया है कि आज भी लोग बंगाल को उम्मीद भरी निगाहों से क्यों देखते हैं। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के ‘एकला चलो’ की तरह बंगाल भी आज अकेले चल कर देश की सियासत के शीर्ष पर आकर खड़ा हो गया है और इसकी एकमात्र कारण तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी हैं। बंगाल का संदेश भाजपा के लिए और भी है। उसे उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश को लेकर अभी से जनहित में काम करना होगा। इस कोरोना काल में देश के युवाओं को राज्यों के भरोसे छोड़ देने का भी शायद कुछ खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा है। जाहिर है भाजपा को चुनाव में आक्सीजन तभी मिलेगा, जब इस कोरोना काल में हर कराहते और तड़पते मरीज तक केंद्र के सहयोग से आॅक्सीजन पहुंचेगा। कोरोना के बढ़ते प्रकोप के बीच बंगाल में बड़ी-बड़ी रैलियां और कुंभ में लाखों लाख साधुओं को जुटने का अवसर देना भी शायद भाजपा को महंगा पड़ा है। कोरोना की त्रासदी में भाजपा के पास लोगों के साथ खड़ा होने का सबसे बड़ा अवसर है। अब यह उसके ऊपर है कि वह इस अवसर पर खरा उतरते हुए जनता का कितना विश्वास हासिल कर पाती है।

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