देश को सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का रास्ता दिखानेवाला पश्चिम बंगाल आज पूरी दुनिया में अपनी अराजकता और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में विद्वेष का प्रतीक बन चुका है। पिछले एक पखवाड़े से राज्य में जो कुछ हो रहा है, उससे इस प्रदेश की खूब थू-थू हुई है। दो मंत्रियों समेत सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के चार नेताओं की गिरफ्तारी के बाद पिछले 36 घंटे में तो राज्य में संविधान का बेशर्मी से चीरहरण किया गया है। पहले राजनीतिक हिंसा, फिर कोरोना और अब इस अराजक माहौल में पश्चिम बंगाल इतनी बुरी तरह जकड़ गया है कि इससे मुक्ति के लिए नये सिरे से आंदोलन चलाना होगा। मुख्यमंत्री का आचरण, राज्यपाल का नेता की तरह बयान और केंद्रीय एजेंसियों की हड़बड़ी ने स्थिति को पूरी तरह नियंत्रण से बाहर कर दिया है। यह केवल केंद्र-राज्य संबंधों का मसला नहीं, बल्कि भारत की एकता और अखंडता को बनाये रखने का मुद्दा बन गया है। पश्चिम बंगाल ने हमेशा देश को रास्ता दिखाया है और इस बार उसे खुद इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। वास्तव में यह प्रदेश आज बुरी तरह लहूलुहान हो चुका है, जहां केवल हिंसक राजनीति का बोलबाला है। पश्चिम बंगाल में संविधान के इस दिन-दहाड़े चीरहरण और देश की सियासत पर इसके संभावित असर का आकलन करती आजाद सिपाही के टीकाकार राकेश सिंह की विशेष रिपोर्ट।
महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि जब-जब बंगाल से क्रांति की शुरूआत होगी, इसकी लपट पूरी दुनिया में दिखेगी। यह आजादी के संदर्भ में था। आज ममता के नेतृत्व में बंगाल में एक अलग तरह की क्रांति हो रही है। राजनीतिक विद्वेष की क्रांति, नियम-कानून नहीं मानने की क्रांति। बंगाल में आज जो कुछ हो रहा है, वह न केवल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को शर्मसार करनेवाला है, बल्कि कई दूसरे मुल्क भी बेहद हैरत में हैं। बंगाल में संविधान का सरेआम चीरहरण किया जा रहा है और यह कोई और नहीं, उसी संविधान की शपथ लेकर राज्य की कमान संभालनेवाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के हाथों हो रहा है। हालांकि यह भी सच है कि इसके लिए अकेले ममता जिम्मेवार नहीं हैं। राज्यपाल का नेता की तरह बयान देना और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा हड़बड़ी में उठाया गया कदम भी इस स्थिति को पैदा करने में कम दोषी नहीं हैं।
बंगाल की जनता ने ममता को लगातार तीसरी बार जो जनादेश दिया, उसका मान न उन्होंने रखा और न दूसरी संस्थाओं ने। पहले करीब दो महीने चले विधानसभा चुनाव और फिर कोरोना के कहर ने राज्य को बुरी तरह चोट पहुंचायी, लेकिन अब अपने दो मंत्रियों समेत चार नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ ममता के व्यवहार ने मर्यादा की हर सीमा तोड़ दी। चुनाव से पहले और उसके बाद की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने उनमें प्रतिशोध की वह आग फूंक दी है, जिसकी न तो मिसाल मिलती है और न ही कहीं इसमें कोई मर्यादा बाकी बची है। अपने नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ एक मुख्यमंत्री का सीधे सीबीआइ के दफ्तर में घुसना और अपने समर्थकों से पूरे परिसर को छह घंटे तक एक तरह से बंधक बना कर रखना यही साबित करता है कि ममता बनर्जी को संविधान और न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है। वह उसी निर्णय को मानेंगी, जो उनके हक में जायेगा। नारदा स्कैम में सीबीआइ द्वारा उठाये गये कदम के बाद ममता जिस तरह से आगबबूला हो गयीं और एक तरह से अपने कार्यकर्ताओं को आक्रामक आंदोलन के लिए उकसाया, यह काफी चिंतनीय है। ममता बनर्जी यह भूल गयीं कि यह जांच कलकत्ता हाइकोर्ट के आदेश पर हो रहा है। एक तरफ वह कहती हैं कि उन्हें न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा है, और दूसरी तरफ वह सीबीआइ जैसी संस्था के कार्यालय को अपने समर्थकों से घिरवा लेती हैं। वहां हिंसक प्रदर्शन शुरू हो जाता है। बंगाल में जहां-तहां तोड़फोड़ और आगजनी शुरू हो जाती है। यह तो सरासर उपद्रव है। यह तो हुई ममता बनर्जी की बात। दूसरी तरफ राज्यपाल जगदीप धनखड़ का व्यवहार भी गंभीर नहीं है। वह हर बात में एक नेता की तरह बयान दे रहे हैं, जबकि राज्यपाल का काम संविधान की मर्यादाओं का पालन कराना होता है। भाषण देना नहीं। भारत की संघीय शासन प्रणाली में राज्यों की जो भूमिका तय की गयी है, उसमें राज्यपाल को व्यावहारिक तौर पर एक संवैधानिक प्रमुख का दायित्व ही दिया गया है। लेकिन धनखड़ ने जिस तरीके से बंगाल में समानांतर सत्ता कायम करने की कोशिश की है, उससे राजभवन भी विवादों के केंद्र में आ गया है। जहां तक बंगाल में सीबीआइ के एक्शन की बात है, तो वह कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी में दिखती है। जांच चार साल पहले से चल रही है। लेकिन अचानक एक्शन तब शुरू होता है, जब ममता की शानदार जीत होती है और उनके मंत्री शपथ लेनेवाले होते हैं। उधर शपथ ग्रहण की सूची तैयार होती है और इधर राज्यपाल मंत्री पद की सूची में शामिल दो विधायकों सहित चार लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का आदेश दे देते हैं। मंत्रिमंडल विस्तार के तुरंत बाद जैसे ही मंत्री अपना कार्यभार संभालते हैं, सीबीआइ उनके खिलाफ चार्जशीट तैयार कर लेती है और उन्हें गिरफ्तार कर लेती है। नियम के हिसाब से यह सही हो सकता है, लेकिन बंगाल की जनता के बीच इसका अच्छा संदेश नहीं गया है। अधिकांश लोग यह मान रहे हैं कि जांच एजेंसी किसी खास मिशन के तहत हड़बड़ी दिखा रही है। अगर उसे चार्जशीट दाखिल करना ही था और विधायकों की गिरफ्तारी जरूरी थी, तो यह चुनाव पहले भी हो सकता था।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बंगाल का वर्तमान माहौल राज्य और देश, दोनों के लिए खतरनाक है। इस माहौल में यदि कुछ हो सकता है, तो वह है देश के संविधान का सरेआम चीरहरण और बंगाल में यही हो रहा है। बेलगाम राज्य सत्ता, संविधान की मर्यादा की रक्षा करनेवाला राजभवन और कार्यपालिका की सबसे मजबूत कड़ी, केंद्रीय एजेंसियों के बीच एक तरह से टकराव साफ-साफ दिख रहा है, जिससे बंगाल का भविष्य तो अंधरे में डूब ही रहा है, पूरे देश में एक किस्म की कड़वाहट फैल रही है। हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब राज्य सरकार और खासकर उसकी सुप्रीमो ममता बनर्जी ने सीधे-सीधे केंद्र से टकरायी हैं। करीब दो साल पहले भी ममता बनर्जी ने सीबीआइ की टीम को कोलकाता के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के घर जाने से रोक दिया था। उनके कार्यकर्ता सीबीआइ के कार्यालय पहुंच गये थे। तभी केंद्र और राज्य सरकार के बीच की चौड़ी होती खाई आ गयी थी। इसके बाद तो एक के बाद एक कई घटनाएं हुईं, जिसने इस खाई को ऐसे मुकाम पर ला दिया, जहां से किसी के लिए भी वापस जाना असंभव हो गया। बंगाल में केंद्र से टकराव की पटकथा पिछले कई सालों से लिखी जा रही थी। यह टकराव विकास या संविधान के हित के लिए नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से सियासी लाभ के लिए ही है। आधुनिक बंगाल का इतिहास गवाह है कि राज्य में जब भी कोई चुनाव आता है, टकराव और हिंसा की राजनीति अचानक तेज हो जाती है। लेकिन चुनाव के बाद इस टकराव के खत्म होने की मिसालें भी इसी इतिहास में मौजूद हैं।
इस सबमें एक बात साफ है कि इस टकराव से भारतीय संघवाद की परिकल्पना को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा है। इसके अलावा यह स्थिति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अराजक स्थिति की तरफ भी ले जा रही है, क्योंकि राज्य और केंद्र के बीच रिश्ते हाल के दिनों में पहले से ही खराब चल रहे हैं और इसमें गिरावट से देश को ही नुकसान पहुंचेगा।