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    Home»Breaking News»ममता की हठधर्मिता से प्रशासनिक व्यवस्था को नुकसान
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    ममता की हठधर्मिता से प्रशासनिक व्यवस्था को नुकसान

    azad sipahiBy azad sipahiMay 30, 2021No Comments5 Mins Read
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    खतरनाक संकेत : यह सियासी प्रतिद्वंद्विता नहीं, भारत की संवैधानिक आत्मा पर हमला है

    पश्चिम बंगाल में 28 मई को जो कुछ हुआ, वह न केवल अप्रत्याशित और दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था पर करारी चोट है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के जिस विद्रूप और बदरंग चेहरे का प्रदर्शन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने किया, वह केवल प्रधानमंत्री पद का अपमान नहीं, बल्कि सभ्यता और सामान्य अनुशासन के विपरीत था। कोई भी देश और राज्य एक संविधान, एक व्यवस्था और एक अलिखित अनुशासन से चलता है। जब यह सब खत्म होने लगता है, तो अराजकता और पतन की शुरूआत होती है। आजादी के बाद से भारत में यह पहला मौका है, जब किसी प्रधानमंत्री की बैठक में किसी राज्य का मुख्य सचिव नहीं उपस्थित रहा हो। बंगाल के संदर्भ में कहा जा सकता है कि जिस प्रदेश ने देश का संविधान बनाने में अहम भूमिका निभायी और देश को नायाब बौद्धिक रत्न दिये, जो समाज अपनी भद्रता के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, वहां इस तरह का व्यवहार किया जाये। इससे केंद्र और राज्य सरकार के बीच की खाई और भी चौड़ी हो गयी है, जिसका नुकसान दोनों को उठाना होगा। ममता बनर्जी ने जो स्थिति पैदा कर दी है, उसे राज्य के लोगों के साथ-साथ पूरा देश आशंका भरी नजरों से देख रहा है और इन सभी घटनाओं को एक खतरनाक संकेत के रूप में देख रहा है। टकराव की यह राजनीति नयी नहीं है, लेकिन इस बार तो बात प्रशासनिक अमले तक पहुंच गयी है। इस टकराव का जिम्मेदार चाहे जो हो, एक बात तय है कि इससे देश का नुकसान हो रहा है। पश्चिम बंगाल की मौजूदा खतरनाक स्थिति पर आजाद सिपाही के टीकाकार राकेश सिंह की विशेष रिपोर्ट।

    पश्चिम बंगाल में 28 मई को हुए दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण पर झारखंड के एक वरीय आइएएस अधिकारी ने टिप्पणी की कि यह अकल्पनीय है। हम ऐसी स्थिति सपने में भी नहीं सोच सकते कि देश के कार्यपालक प्रमुख की बैठक से उस राज्य का सबसे वरिष्ठ नौकरशाह अनुपस्थित रहे, जहां बैठक हो रही है। यह स्थिति सोच से परे है और इसका परिणाम क्या होगा, कोई नहीं कह सकता। जहां तक कानून और नियम की बात है, तो अखिल भारतीय सेवा के किसी भी अधिकारी को केंद्र जब चाहे, अपने पास बुला सकता है। राज्य सरकार उस अधिकारी पर हुक्म तो चला सकती है, लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि अधिकारी की नियुक्ति का अधिकार राज्य सरकार को नहीं है। अधिकारी की प्रतिक्रिया के बाद केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय के एक वरीय अधिकारी ने बताया कि अखिल भारतीय सेवा का हर अधिकारी सेवा नियम से बंधा होता है और उसके अनुसार वह केंद्र के प्रति जिम्मेदार होता है। राज्यों को उसकी सेवा प्रशासनिक सहूलियत के लिए सौंपी जाती है। इसलिए केंद्र के बुलाने पर किसी भी अधिकारी के लिए वहां आना अनिवार्य है।

    ये दोनों प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलापन बंद्योपाध्याय ने प्रधानमंत्री की बैठक में देरी कर बहुत बड़ी गलती की है और अब उन्हें केंद्र को इसका जवाब देना ही होगा।
    लेकिन यह तो नियम-कायदे और व्यवस्था की बात है, जिसे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जूते की नोंक पर रखा हुआ है। प्रधानमंत्री की समीक्षा बैठक में उनका नहीं आना सही हो सकता है, लेकिन अपने मुख्य सचिव को वहां नहीं भेज कर उन्होंने देश की संवैधानिक व्यवस्था पर चोट की है। इस चोट का असर कितना गहरा होगा, इसकी कल्पना खुद ममता ने भी नहीं की होगी। हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने की उनकी कार्यशैली अब न केवल बंगाल के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए बड़ा खतरा बनती जा रही है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है और स्वस्थ लोकतंत्र में इसका हमेशा स्वागत होता है, लेकिन प्रशासन राजनीतिक चाबुक से नहीं हांका जा सकता है। इसकी एक सीमा होती है, एक मर्यादा होती है और सबसे बढ़ कर एक व्यवस्था होती है। ममता बनर्जी और उनके मुख्य सचिव अलापन बंद्योपाध्याय ने इन सभी का उल्लंघन किया है। यही कारण है कि इनके आचरण पर पूरा देश आज अचंभित है।

    पिछले साल भी ममता बनर्जी ने मुख्य सचिव और डीजीपी को केंद्रीय गृह मंत्रालय के बुलावे पर दिल्ली जाने से रोक दिया था, जिस पर काफी विवाद हुआ था। हालांकि चुनाव के शोर में यह विवाद दब गया। अब ताजा घटनाक्रम ने भारत की संघीय व्यवस्था के प्रावधानों में ऐसी दरार को सामने लाकर रख दिया है, जो अब तक विधायिका की लाल कालीन के नीचे छिपा हुआ था। यकीनन इस विवाद से किसी का भला तो नहीं ही होगा, बल्कि बंगाल और देश को नुकसान होगा। इसकी पूरा जिम्मेदारी ममता बनर्जी पर ही जायेगी, क्योंकि पहल उनकी तरफ से हुई है। इस तरह का आचरण करने से पहले उन्हें याद रखना चाहिए कि वह लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार की मुखिया हैं और उनके ऊपर केवल एक पार्टी या राज्य की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता की रक्षा करने की जिम्मेदारी भी है। यहां यह सवाल उठ सकता है कि प्रधानमंत्री की बैठक में ममता के प्रतिद्वंद्वी को क्यों बुलाया गया और प्रधानमंत्री की ओर से भी राजनीति की गयी है, लेकिन यह समय सवाल उठाने का नहीं है। ममता मुख्यमंत्री हैं और मुख्यमंत्री को किसी चेहरे से एलर्जी नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा ही है, तो फिर वह विधानसभा की कार्यवाही में कैसे शामिल होंगी, जहां शुभेंदु अधिकरी नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में उनके सामने होंगे। जाहिर है, दो राजनीतिक दलों के बीच के रिश्ते का असर यदि कार्यपालिका पर पड़ने लगे, तो फिर लोकतंत्र के आगे बढ़ने या मजबूत होने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। ममता बनर्जी को भी यह समझना होगा और उन्होंने जो कुछ किया, उसके लिए वह माफी मांगें या नहीं, लेकिन पश्चाताप तो करना ही होगा। रही बात अलापन बंद्योपाध्याय की, तो वह अपनी सेवा के आखिरी दौर में हैं और अपने चमकदार अतीत पर लगे इस दाग को देख कर वह भी खुद को ही कोस रहे होंगे।

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