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    Home»Breaking News»बंगाल में दम तोड़ रहा है भारत के संघवाद का सिद्धांत
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    बंगाल में दम तोड़ रहा है भारत के संघवाद का सिद्धांत

    azad sipahiBy azad sipahiMay 11, 2021No Comments7 Mins Read
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    राजनीतिक हिंसा : केंद्र-राज्य सरकार के बीच टकराव से होगा दोनों का नुकसान

    पश्चिम बंगाल में विधानसभा का चुनाव खत्म होने के बाद जो कुछ हो रहा है, वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण, बल्कि खतरनाक भी है। बंगाल के राज्यपाल का कहना है कि यहां संविधान खत्म हो गया है। जिस प्रदेश ने देश का संविधान बनाने में अहम भूमिका निभायी और एक से एक बौद्धिक रत्न पैदा किये, वहां इस तरह के राजनीतिक-सामाजिक माहौल की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज उसी प्रदेश में इंसानियत तार-तार हो रही है। महिलाओं की आबरू लूटी जा रही है। हत्या, लूट और हिंसा का नंगा नाच हो रहा है। जांच के लिए गये केंद्रीय मंत्री पर हमला हो रहा है। पश्चिम बंगाल की धरती पर आज भारतीय संघवाद का सिद्धांत दम तोड़ता नजर आ रहा है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच की लगातार चौड़ी होती खाई ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि राज्य के लोगों के साथ-साथ पूरा देश आशंका भरी नजरों से संस्कारों से भरे इस प्रदेश को देख रहा है। हालत यह हो गयी है कि राज्य के भविष्य के बारे में कोई भी आकलन खतरे से खाली नहीं है। राज्य सरकार का केंद्र के साथ यह टकराव इस बात की ओर स्पष्ट इशारा करता है कि इस बार मामला सीधा नहीं है। टकराव की यह राजनीति बंगाल के लिए नयी नहीं है, लेकिन इस बार तो संवैधानिक प्रावधानों की सारी सीमाएं टूट गयी लगती हैं। आखिर देश को सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण की राह दिखानेवाले पश्चिम बंगाल की राजनीति कड़वाहट और टकराव के इस चरम बिंदु तक क्यों और कैसे पहुंच गयी। क्या इसके लिए केवल ममता बनर्जी जिम्मेवार हैं या फिर भाजपा का अति-उत्साह और किसी भी कीमत पर बंगाल फतह करने में विफल होना है। इन तमाम सवालों के बरअक्स पश्चिम बंगाल की मौजूदा खतरनाक स्थिति पर आजाद सिपाही के टीकाकार राहुल सिंह की विशेष रिपोर्ट।

    इसी महीने की दो तारीख को जब पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव परिणाम घोषित हुआ और ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की, तो पूरे देश को लगा कि पिछले एक साल से वहां जारी माहौल अब ठंडा होगा। केंद्र और राज्य की सरकार में खिंचीं तलवारें अब वापस म्यान में चली जायेंगी। लेकिन उम्मीद की यह लौ अधिक देर तक नहीं जल सकी और पूरा प्रदेश चुनाव बाद की राजनीतिक हिंसा में जलने लगा। डेढ़ दर्जन लोगों की जान चली गयी और करोड़ों की संपत्ति नष्ट कर दी गयी। हजारों लोग पड़ोसी राज्यों में पलायन कर गये। कोरोना संकट तो खैर था ही। वह भी खतरनाक रूप से बढ़ने लगा। ममता बनर्जी ने तीसरी बार सत्ता संभाली, लेकिन पहले दिन से ही उनकी राह में कांटे बिछने लगे। पहले राज्यपाल का शासन-प्रशासन को सलाह और फिर केंद्र के बीच में पड़ने से मामला सुधरने की बजाय बिगड़ता गया। यहां तक कि मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में राज्यपाल ने तंज भरे लहजे में कुछ बातें कह कर माहौल को कुछ अधिक तनावपूर्ण बना दिया। मंत्रिमंडल विस्तार से ठीक पहले ममता बनर्जी टीम में नामित चार चार विधायकों, फिरहाद हाकिम, सुब्रत मुखर्जी, मदन मित्रा और शोभन चटर्जी के खिलाफ राज्यपाल ने सीबीआइ जांच की इजाजत देकर इस तनाव को चरम पर पहुंचा दिया है। राज्यपाल का यह फैसला भले ही प्रावधानों के अनुरूप हो, लेकिन समयानुकूल नहीं है। इन चारों विधायकों को राज्य कैबिनेट में मंत्री बनना था और ठीक मंत्रि पद की शपथ से एक दिन पहले उनके खिलाफ जांच की इजाजत देना कहीं न कहीं कठघरे में खड़ा करता है। यह काम पहले भी हो सकता था या कुछ दिन बाद भी किया जा सकता था।
    पश्चिम बंगाल के राजनीतिक माहौल को इतना तनावपूर्ण बनाने के कारणों का विश्लेषण किये बिना यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि यह राज्य और देश, दोनों के लिए खतरनाक है। इस तनाव ने देश के संविधान को कठघरे में खड़ा कर दिया है। संविधान में वर्णित संघीय शासन प्रणाली में राज्यों को इस किस्म की स्वायत्तता की कल्पना नहीं की गयी है। हालांकि यह बात भी सही है कि स्वायत्तता की सीमा को परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार के साथ केंद्र के इस व्यवहार को भी पूरी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
    हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब राज्य सरकार सीधे-सीधे केंद्र से टकरायी है। करीब दो साल पहले जब ममता सरकार की पुलिस ने सीबीआइ की टीम को कोलकाता के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के घर जाने से रोक दिया था, तभी केंद्र और राज्य सरकार के बीच की दूरी सामने आ गयी थी। फिर एक साल बाद भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह के हेलीकॉप्टर को जाधवपुर में उतरने की अनुमति नहीं दी गयी थी। अभी चुनाव से ठीक पहले दिसंबर में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को तलब किया, लेकिन राज्य सरकार ने उन दोनों को वहां नहीं जाने दिया। टकराव के वर्तमान माहौल की पटकथा पिछले कई सालों से लिखी जा रही थी। इस चुनाव ने उसे और गति दे दी है। अभी नया टकराव शीतलकुची गोली कांड है, जहां चुनाव के समय केंद्रीय बलों ने आत्मरक्षार्थ गोली चलायी थी, जिसमें चार ग्रामीण मारे गये थे। तृणमूल का दावा है कि ये चारों उसके समर्थक थे और केंद्रीय दल ने जानबूझ कर उन्हें गोली का निशाना बनाया, जबकि उस सहय के एसपी ने यह रिपोर्ट दी थी कि भीड़ केंद्रीय बल के जवानों का हथियार छीनना चाहती थी, जिसके बाद सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षार्थ गोली चलायी। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही ममता बनर्जी ने उस एसपी को सस्पेंड कर दिया और अब सुरक्षा बलों के खिलाफ जांच आ आदेश देकर एसटीएफ का गठन कर दिया है। मंगलवार को एसटीएफ ने सुरक्षा बल के जवानों को बुलाया है। जाहिर है, अब सीधे-सीधे राज्य और केंद्रीय बल के बीच टकराव होगा और जहां जिसका सीमाना होगा, वहां वह अपनी ताकत दिखायेगा। पिसेगी बंगाल की जनता। जाहिर है, यह टकराव विकास या संविधान के हित के लिए नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से सियासी लाभ के लिए ही है।
    यह भी हकीकत है कि टकराव की यह जमीन एकाएक तैयार नहीं हुई है। 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद जब वामपंथियों और तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में भाजपा ने अपना पैर तेजी से फैलाया, तब से ही राज्य एक अजीब किस्म के तनाव से गुजर रहा है। इस तनाव में एक तरफ सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस है, तो दूसरी तरफ भाजपा। ममता बनर्जी ने एक जुझारू, कर्मठ और हमेशा जनता के मध्य रहनेवाली नेता के तौर पर अपनी छवि गढ़ी है, लेकिन इसमें भी दो मत नहीं है कि जिद्दी और हठी स्वभाव के चलते कई मौकों पर उन्हें तानाशाह होते हुए भी देखा गया है। पिछले पांच-छह वर्षों के राजनीतिक सफर में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को पश्चिम बंगाल में एक कट्टर प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जा सकता है और यही कारण है कि न तो तृणमूल भाजपा पर आरोप मढ़ने का कोई मौका गंवाना चाहती है और न ही भाजपा किसी मौके से चूकना चाहती है। आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला अब तो सीधे-सीधे हिंसा में बदल गया है।
    आधुनिक बंगाल का इतिहास गवाह है कि राज्य में जब भी कोई चुनाव आता है, टकराव और हिंसा की राजनीति अचानक तेज हो जाती है। लेकिन चुनाव के बाद इस टकराव के खत्म होने की मिसालें भी इसी इतिहास में मौजूद हैं। इस सबमें एक बात साफ है कि इस टकराव से भारतीय संघवाद की परिकल्पना को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा है। इसके अलावा यह स्थिति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अराजक स्थिति की तरफ भी ले जा रही है, क्योंकि राज्य और केंद्र के बीच रिश्ते हाल के दिनों में पहले से ही खराब चल रहे हैं और इसमें गिरावट से देश को ही नुकसान पहुंचेगा। यहां अटल बिहारी वाजपेयी का वह कथन याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकारें आती-जाती रहेंगी, लोग आते-जाते रहेंगे, लेकिन हमारा संविधान और हमारा लोकतंत्र हमेशा बचा रहना चाहिए।

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