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    Home»विशेष»इस बार राष्ट्रवाद का रंग खिलेगा बिहार के चुनावी मैदान में
    विशेष

    इस बार राष्ट्रवाद का रंग खिलेगा बिहार के चुनावी मैदान में

    shivam kumarBy shivam kumarMay 29, 2025Updated:May 30, 2025No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    भाजपा और नीतीश के लिए ‘आपरेशन सिंदूर’ ने बनाया अनुकूल माहौल
    पहली बार जाति के आधार पर राजनीति की बात नहीं हो रही है बिहार में
    एनडीए ने सीट शेयरिंग को दिया अंतिम रूप, पर इंडी अलायंस में उलझन

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ानेवाली भूमि के रूप में चर्चित बिहार की सियासत आम तौर पर देश के दूसरे राज्यों से अलग होती रही है। बिहार में अब तक जातिगत मुद्दे और समीकरण ही विधानसभा चुनाव की दशा-दिशा तय करते रहे हैं। इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा का चुनाव होना है और इसके लिए जमीन तैयार हो रही है। चुनावी मुद्दों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस बार पहली बार बिहार में जाति के आधार पर राजनीति की बात नहीं हो रही है, बल्कि राष्ट्रवाद, ऑपरेशन सिंदूर और देशहित की बातें हो रही हैं। जाहिर है कि इस बदले राजनीतिक माहौल का लाभ एनडीए, यानी भाजपा-जदयू को मिलेगा, जो राज्य की सत्ता में है। पहलगाम हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार में अपनी सार्वजनिक रैली कर चुके हैं और एक बार फिर 29-30 मई को बिहार आ रहे हैं। उनकी यात्राओं से अनुकूल माहौल बना है। इसी माहौल की पृष्ठभूमि में यह भी महत्वपूर्ण है कि एनडीए ने राज्य में सीट शेयरिंग को अंतिम रूप दे दिया है, जबकि विपक्षी इंडी अलायंस में अब तक इस मुद्दे को लेकर बातचीत भी शुरू नहीं हुई है। बिहार के इस दिलचस्प चुनावी परिदृश्य में एक और बात नोट करने लायक है और वह है सर्वेक्षण एजेंसियों की रिपोर्ट। ऑपरेशन सिंदूर के बाद बिहार में किये गये तमाम सर्वेक्षण इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि इस बार राज्य में राष्ट्रवाद की फसल खूब लहलहायेगी और पहली बार बिहार में जाति के आधार पर वोट शायद नहीं पड़ेगा। जाहिर है, यह निष्कर्ष एनडीए के पक्ष में ही जाता दिखाई दे रहा है। क्या है बिहार का चुनावी परिदृश्य और क्या हैं संभावनाएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की गहमागहमी शुरू हो चुकी है और इस बार ‘ऑपरेशन सिंदूर’ ने राजनीतिक माहौल को और गरमा दिया है। इन सबके बीच बिहार के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने खड़ी चुनौतियों का विश्लेषण करने पर यही पता चलता है कि बिहार का माहौल तेजी से बदलता दिखाई दे रहा है। बिहार की राजनीति आम तौर पर जातीय गोलबंदी और समीकरणों में बंधी होती है। लेकिन इस साल के अंत में होनेवाले विधानसभा चुनावों का माहौल पिछले चुनावों से पूरी तरह अलग नजर आ रहा है। बिहार में इस बार जाति की बात नहीं हो रही है और न ऐसे मुद्दे ही सामने आ रहे हैं। इनके स्थान पर ऑपरेशन सिंदूर, राष्ट्रवाद, देशहित और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर लोग बात कर रहे हैं।
    इसका साफ मतलब यही है कि ऑपरेशन सिंदूर, जिसमें भारतीय सेना ने पाकिस्तान की आतंकी और सैन्य संरचनाओं पर हमला किया, ने बिहार के चुनावी माहौल को नया रंग दिया है। इस ऑपरेशन ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को एक मजबूत कहानी दी है। पीएम मोदी ने पहलगाम आतंकी घटना के दूसरे दिन ही मधुबनी में इसकी शुरूआत की थी। जब उन्होंने कहा था कि इस घटना के आतंकवादियों को धरती के आखिरी छोर तक खोज कर मारा जायेगा। फिर ऑपरेशन सिंदूर हो गया। भाजपा ने इस मौके का फायदा उठाते हुए 10 दिनों तक बिहार में तिरंगा यात्राएं निकालीं, जिससे राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनाने की कोशिश की गयी। हालांकि, नीतीश कुमार ने इन यात्राओं को चुपचाप देखा, शायद सतर्कता के साथ, क्योंकि वह जानते हैं कि भाजपा इस मौके का इस्तेमाल अपने प्रभाव को बढ़ाने और बिहार में अपना मुख्यमंत्री स्थापित करने के लिए कर सकती है।

    भाजपा के लिए सुनहरा अवसर
    भाजपा के लिए 2025 का चुनाव बिहार में अपने मुख्यमंत्री को लाने का सुनहरा अवसर है। 2020 में चिराग पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के जरिये नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) की सीटों को कम करने में अहम भूमिका निभायी थी। भाजपा अब चाहती है कि प्रशांत किशोर की नयी पार्टी जन सुराज भी ऐसा ही कुछ करे, जिससे नीतीश की स्थिति कमजोर हो और भाजपा को फायदा मिले।

    नीतीश के सामने कई चुनौतियां
    नीतीश कुमार, जो बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं, इस बार कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। एक सर्वे के अनुसार, ऑपरेशन सिंदूर से पहले ही एनडीए को बिहार में बढ़त थी। सर्वे में 60% से अधिक लोगों ने नीतीश के प्रदर्शन से संतुष्टि जतायी और 50% से अधिक ने माना कि एनडीए अगला चुनाव जीतेगा। अत्यंत पिछड़ा वर्ग (इबीसी), जो बिहार की आबादी का 36% है, में एनडीए को 68.72% समर्थन मिला, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में 39.63% समर्थन था। अनुसूचित जाति में भी एनडीए को 48.23% समर्थन प्राप्त था।

    सर्वेक्षणों में एनडीए को बढ़त
    ऑपरेशन सिंदूर के बाद बिहार में कराये गये सर्वेक्षणों में एनडीए को बढ़त हासिल हुई है। विभिन्न कंपनियों द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों का संकेत है कि बिहार का राजनीतिक माहौल इस बार बदला हुआ रह सकता है। पहली बार बिहार में जाति की बात नहीं हो रही है, जातीय समीकरण का प्रभाव कम नजर आ रहा है और देशहित की बात ज्यादा हो रही है।

    नीतीश की लोकप्रियता गिरी
    हालांकि, नीतीश की लोकप्रियता में कमी आयी है। सर्वेक्षणों के अनुसार, उनकी लोकप्रियता 18% से घटकर 15% हो गयी है और वह मुख्यमंत्री पद के लिए तीसरे पसंदीदा उम्मीदवार बन गये हैं। उनके सामने तेजस्वी यादव (35.5%) और प्रशांत किशोर (17.2%) हैं। नीतीश की घटती लोकप्रियता के कारणों में उनकी सेहत, बार-बार गठबंधन बदलने से विश्वसनीयता में कमी और एनडीए द्वारा मुख्यमंत्री चेहरा घोषित न करना शामिल हैं।

    तेजस्वी की लोकप्रियता भी घटी, कांग्रेस कमजोर कड़ी
    बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव इस बार सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं, हालांकि उनकी लोकप्रियता भी 40.6% से घटकर 35.5% हुई है। तेजस्वी ने बेरोजगारी और प्रवास जैसे मुद्दों को अपनी रणनीति का केंद्र बनाया है, जो सर्वे में 43.8% लोगों की प्राथमिक चिंता है। वह युवाओं और अल्पसंख्यकों को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस की आक्रामकता उनकी राह में बाधा बन रही है।

    प्रशांत किशोर और जन सुराज पार्टी पहली बार मैदान में
    प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी पहली बार सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। किशोर ने नीतीश की सेहत और नेतृत्व को कमजोर बताकर उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाये हैं। वह नीतीश और तेजस्वी की अनुपस्थिति से बने ‘वैक्यूम’ का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं, खासकर मुस्लिम और अन्य समुदायों में।

    क्या है भाजपा की रणनीति
    भाजपा नीतीश को गठबंधन का चेहरा बनाये रखते हुए भी अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश में है। वह ऑपरेशन सिंदूर और राष्ट्रवादी मुद्दों के जरिये मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। साथ ही चिराग पासवान और सम्राट चौधरी जैसे नेताओं को आगे बढ़ाकर वह भविष्य में नीतीश के विकल्प को भी ध्यान में रख रही है, हालांकि लोकसभा के दलीय संतुलन को देखते हुए यह सब नेपथ्य में है।

    क्या है बिहार का सामाजिक समीकरण
    बिहार की आबादी में इबीसी (36%), ओबीसी (27%) और अनुसूचित जाति (19.6%) का बड़ा हिस्सा है। यदुवंशी (14.26%) और नीतीश की कुरमी जाति (2.87%) भी महत्वपूर्ण हैं। एनडीए को इबीसी और ऊपरी जातियों में मजबूत समर्थन है, जबकि राजद का आधार यदुवंशी और मुस्लिम वोटर हैं। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भाजपा ने मुस्लिम समुदाय में भी 28.47% समर्थन हासिल किया है, जो तेजस्वी-कांग्रेस के लिए चिंता का विषय है।

    क्या हो सकते हैं दूसरे मुद्दे
    बिहार में ऑपरेशन सिंदूर और राष्ट्रवाद के बाद अन्य प्रमुख मुद्दों के रूप में बेरोजगारी और पलायन सबसे बड़े मुद्दे उभरे हैं, जो तेजस्वी की रणनीति को मजबूत करते हैं। दूसरी ओर नीतीश की सरकार ने स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और बुनियादी ढांचे में उपलब्धियों का दावा किया है, लेकिन उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं।

    भाजपा को मिलेगा बड़ा लाभ
    ऑपरेशन सिंदूर ने बिहार के चुनावी माहौल को राष्ट्रवादी रंग दिया है, जिसका फायदा एनडीए, खासकर भाजपा, को मिल सकता है। हालांकि, नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव आसान नहीं है। उनकी घटती लोकप्रियता, सेहत की चिंताएं और बार-बार गठबंधन बदलने की छवि उन्हें कमजोर कर रही है। तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर उनकी चुनौतियों को और बढ़ा रहे हैं, जबकि भाजपा अपनी रणनीति के तहत नीतीश को समर्थन देते हुए बिहार में अपने कदम मजबूत कर रही है। ऐसे में यह बात भी ध्यान देने लायक है कि एनडीए ने सीट शेयरिंग को अंतिम रूप दे दिया है, जबकि विपक्षी इंडी अलायंस अब तक इस तरफ एक कदम भी नहीं बढ़ा है। इस तरह बिहार का यह चुनाव न केवल नीतीश के लिए, बल्कि पूरे एनडीए और विपक्ष के लिए एक कड़ा इम्तिहान होगा।

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