आज से करीब नौ साल पहले अप्रैल, 2011 में जब देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली में महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धी निवासी पूर्व फौजी अन्ना हजारे ने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक आंदोलन शुरू किया था, सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश ने एक नया सपना देखा था। लेकिन तब झारखंड 11 साल का किशोर था और उसे अपने भविष्य की चिंता सता रही थी। तीन साल बाद देश में आम चुनाव हुए और भाजपा ऐतिहासिक जीत हासिल कर केंद्र में सत्तासीन हुई। इसके कुछ ही दिन बाद झारखंड में भी चुनाव हुए और यहां भी पहली बार एक पूर्ण बहुमत की सरकार ने सत्ता संभाली। झारखंड की सवा तीन करोड़ जनता को लगा कि उसका कैशोर्य अब सुधर जायेगा और इसके साथ ही युवावस्था की आकांक्षाएं भी अंगड़ाई लेने लगी। झारखंड ने तेजी से दौड़ शुरू की, लेकिन पांच साल बीतते-बीतते यह तथ्य सामने आ गया कि किशोरावस्था में जो सपने झारखंड ने बुने थे, वे हकीकत में नहीं बदल सके। झारखंड के लोग ठगे रह गये और एक बार फिर सुखद-निरापद भविष्य के सपनों में उलझ कर रह गये। युवा झारखंड को अब पता चल रहा है कि किशोरावस्था में उसे जो सपने दिखाये गये थे, वे पूरे तो नहीं ही हुए, बदले में राजनीतिक स्थिरता के नाम पर उससे बड़ी कीमत वसूल कर ली गयी। यह कीमत थी सिस्टम को हाइजैक करने की और व्यवस्था को पंगु बनाने की। वर्ष 2011 में जिस लोकपाल को लेकर उतना बड़ा आंदोलन हुआ, उसके एक अंग लोकायुक्त तक को झारखंड में शो पीस बना कर रख दिया गया। झारखंड में सत्ता तो बदल गयी, लेकिन को इस अभिशाप से अभी पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है। इसे जड़ से खत्म करने की सरकार के समक्ष चुनौती बहुत बड़ी है। तमाम बिंदुओं पर नजर दौड़ाती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
कहा जाता है कि सपनों के टूटने का दर्द बहुत गहरा होता है और यह किसी भी समाज की व्यवस्था के लिए घातक होता है। करीब 20 साल का झारखंड आज भी अपने सफर के इसी मोड़ पर खड़ा है, जहां उसके पास टूटे हुए सपने हैं और उन सपनों को सहेज कर फिर से उन्हें रंगीन बनाने की चुनौती सरकार के सामने है। याद कीजिये 2011 की चार अप्रैल की तारीख, जब दिल्ली के रामलीला मैदान में गांधीवादी अन्ना हजारे ने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक आंदोलन शुरू किया था और देखते-देखते पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया। तब झारखंड किशोरावस्था में था, लेकिन उसने भी अन्ना आंदोलन में साझीदारी निभायी थी। यह उस आंदोलन का परिणाम ही था कि 2014 के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक स्थिरता मुख्य मुद्दा बना। यह मुद्दा कारगर रहा और राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। लेकिन अगले पांच साल में झारखंड ने इस स्थिरता की बहुत बड़ी कीमत चुकायी। इस कीमत का पता अब चल रहा है, जब लोकायुक्त कहते हैं कि राज्य सरकार के विभाग उनका सहयोग नहीं कर रहे। संसाधनों के अभाव में यह संस्था पूरी तरह लाचार होकर रह गयी थी। चर्चा तो यहां तक थी कि किसी शिकायत से संबंधित कागजात मांगने पर सरकार की तरफ से उनके पास दो ट्रक फाइलें भेज दी जाती थीं। केवल लोकायुक्त ही नहीं, गड़बड़ियों पर निगाह रखने, उन्हें रोकने और दोषियों को कानून के कटघरे तक लाने के लिए जिम्मेदार सरकार के हर महकमे को राजनीतिक रूप से नियंत्रण के घेरे में ले लिया गया। मंत्रिमंडल निगरानी विभाग, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, स्पेशल ब्रांच, सीआइडी और दूसरे ऐसे महकमों का काम जी-हुजूरी और लीपापोती तक सिमट कर रह गया था। राज्य में व्यवस्था बनाने की जगह उसे तोड़ने में पूरी ताकत लगने लगी थी। इसका नतीजा वही हुआ, जिसका डर था। काम तो हो रहे थे, लेकिन गड़बड़ियों की जिम्मेवारी कोई भी लेने के लिए तैयार नहीं था। हालत यहां तक पहुंच गयी कि उद्घाटन के 16 घंटे बाद ही साढ़े चार हजार करोड़ की कोनार नहर परियोजना के बांध बह गये और इंजीनियरों ने कह दिया कि चूहों ने इसे कुतर दिया, इसलिए ऐसा हुआ। कुछ खबरें इसको लेकर प्रकाशित हुर्इं, तो पूरा सरकारी महकमा बचाव में आ गया। न किसी पर कार्रवाई हुई और न कोई जांच। गुमला में एक ही बारिश में नौ पुल बह गये, लेकिन किसी को फर्क नहीं पड़ा। पावर का ऐसा प्रदर्शन शायद ही कहीं और देखने को मिले। ऐसे अनगिनत वाकये हैं, जिन्होंने झारखंड के सपनों को न केवल बेरहमी से कुचला, बल्कि उसके सुखद भविष्य पर भी बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। मुट्ठी भर नौकरशाहों ने पूरे सिस्टम को अपने इशारों पर नचाना शुरू कर दिया और वे राजनीतिक नेतृत्व को यह समझाने में सफल हो गये कि जनता बेहद खुश है और राज्य विकास के रास्ते पर तेजी से दौड़ रहा है। इन अफसरों को जब भी किसी मामले में फंसने की आशंका होती थी, उसे तत्काल मंत्रिमंडल निगरानी विभाग या सीआइडी के पास भेज दिया जाता था, जिन्हें फाइलों का कब्रगाह बना दिया गया था। ऐसा नहीं है कि पांच साल में कोई काम नहीं हुआ। काम तो हुआ, लेकिन गड़बड़ियां भी बहुत हुईं और सबसे बड़ी गड़बड़ी यह हुई कि इनके लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। कंपनियां आयीं और पैसा बटोर कर निकल गयीं। ठेकेदारों को काम दिया गया, उन्होंने कुछ काम किया, पैसा पूरा लिया और बोरिया-बिस्तर समेट लिया। बिचौलियों और सत्ता के गलियारों में खुलेआम अपना सिक्का चलानेवालों को रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं था।
इसी नकारात्मक शासन का परिणाम 2019 के चुनाव में सामने आया। अब सरकार बदलने के बाद उन टूटे हुए सपनों का हिसाब लिये जाने का सिलसिला शुरू हुआ है। जाहिर है, इस पर राजनीति भी होगी और हो भी रही है। इस रूप में वर्तमान सरकार के सामने यह बड़ी चुनौती है। उसे झारखंड के बिखरे सपनों को न केवल सहेजना है, बल्कि मर चुके सपनों को जिंदा भी करना है। गड़बड़ियों को सामने लाना जरूरी है, लेकिन उनको सुधारना सबसे बड़ा काम है। कहा जाता है कि गलत क्या है, इसे जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन गलत को सही करने से फर्क पड़ता है। झारखंड के पास संसाधन है, इच्छाशक्ति है और वह बहुत आगे जा सकता है। अब इस युवा झारखंड की आंखों में नये सपने उभरने लगे हैं, जिनमें रंग भरना और उन्हें हकीकत में बदलना बड़ी चुनौती है।