देश के विभिन्न शहरों से प्रवासी कामगारों के आने-जाने का सिलसिला जारी है। अब आने का सिलसिला कम, जाने का सिलसिला तेज हो गया है। लेकिन सारी कवायद के बावजूद हजारों ऐसे श्रमिक है जो किसी भी हालत में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, सूरत आदि शहरों में जाने के लिए तैयार नहीं हैं।
हालत यह है कि बड़े शहरों में हमेशा पंखा के नीचे रहकर काम करने वाले लोग अब अपने गांव में, गांव के आसपास कड़ी धूप में पसीना बहा रहे हैं। वह नहीं चाहते हैं की फिर से परदेस जाएं और वहां स्थिति विकट होने पर जलालत झेलते हुए घर वापस आएं। हालांकि जाने वालों में मजबूरी है कि यहां कोई काम धंधा मिल नहीं रहा है तो क्या करें। सरकार मनरेगा, सात निश्चय योजना समेत कई अभियान चलाकर प्रवासी कामगारों को काम देने की कवायद कर रही है। लेकिन काम कराने वाले संवेदक सरकार और प्रशासन के आदेश की सरेआम धज्जियां उड़ा रहे हैं। जेसीबी, पोकलेन, ट्रैक्टर और बाहरी कामगारों के सहारे काम कराया जा रहा है। जिसको लेकर श्रमिक आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है और संवेदक जिला प्रशासन को भी ठेंगा दिखा रहे हैं। इसका नमूना खोरामपुर घाट पर चल रहे कटाव निरोधक कार्य में देखने को मिल रहा है।
जल संसाधन विभाग सिंचाई डिवीजन द्वारा खोरमपुर घाट में कटाव निरोधक कार्य चल रहा है। जिसमें स्थानीय श्रमिकों से काम कराने का आदेश दिया गया था। लेकिन यहां अधिकतर श्रमिक बाहर के हैं। कटाव निरोधक कार्य का निरीक्षण करने पहुंचे डीएम ने इस संबंध में जब पूछा तो कहा गया कि सभी श्रमिक स्थानीय हैं। लेकिन वहां काम कर रहे अधिकतर श्रमिक अपना घर पटना जिला बताया रहे हैं। हालांकि दर्जन भर से अधिक स्थानीय श्रमिक इस काम में लगे हुए हैं, बोरा में बालू भरने के बाद उसे सील पैक कर कटाव स्थल पर बिछाया रहे हैं। इन कामगारों में कई कामगार ऐसे हैं जो पंजाब और असम के अगरतला के चावल- दाल मिल में पैकिंग करते थे। लेकिन यहां बालू पैकिंग कर रहे हैं और इस काम में भी वह खुश हैं कि परिवार के साथ रह कर काम कर रहे हैं।
बोरा पैकिंग में लगे रामनाथ पासमान, कारी पासवान, रामेश्वर पासवान, बैजनाथ पासवान आदि ने बताया कि वे लोग पंजाब के फतेहगढ़ साहिब के सिद्धू चावल मिल में चावल पैकिंग करते थे और ट्रक एवं ट्रेन के माध्यम से पंजाब से देश के विभिन्न शहरों से लेकर गांव भेजने के लिए लोडिंग करते थे। जब लॉक डाउन हो गया तो काम ढ़ीला पड़ गया, फैक्ट्री मालिक ने खाना का हर संभव जुगाड़ किया। लेकिन बगैर काम के वहां रहकर क्या करते, इसलिए एक लाख 20 हजार में बस कर 30 लोग बेगूसराय के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित अपने गांव आ गए। यहां भी एक महीना से अधिक समय तक बेरोजगार बैठना पड़ा, तब जाकर अब काम मिला है। यहां बस 15-20 दिन और काम मिलेगा, उसके बाद बेरोजगार हो जाएंगे।
स्थानीय बाजार में जाकर काम खोजेंगेे, दिहाड़ी मजदूरी करेंगे, मोटियागिरी करेंगे, कोशिश करेंगे की फिर लौटकर परदेश नहीं जाएं। लेकिन जब यहांं काम नहीं मिलेगा तो मजबूरी में परदेस का ही आशा है। हम बिहार के मजदूरों को गांव में, अपने शहर में काम भले ही ना मिले, लेकिन परदेस में तो हर हाल में काम मिलेगा।